सीने में जलन, सांसों में तूफ़ान और शहर परेशान, दिल्ली का है हाल खराब
सीने में जलन, सांसों में तूफ़ान और शहर परेशान, दिल्ली का है हाल खराब
दिल्ली में सांस लेना भी मुहाल
कई जानकार लोगों के बच्चे इस समय सांस लेने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं. एक नाक बंद होती है तो दूसरी खुलने लगती है. नाक से पानी बह रहा है, आंखें जल रही हैं, सांसें उखड़ रही हैं लेकिन यह दिल है कि मानता नहीं, असल समस्या की ओर ध्यान न देकर कोई न कोई नया बहाना ढूंढने को तैयार बैठा है. कभी पराली जलाने का रोना है तो कभी दिवाली के पटाखे तो कभी नई बुलंद होती इमारतों की ओर से आती धूल. कुछ भी कह लें यह सब सरकारों की नाकामियां हैं जो समय रहते कोई काम नहीं करतीं और उन्हें लगता है कि जैसे बरसात में पानी के जमा होने पर थोड़ा सा शोर मचता है और उसके बाद सब शांत हो जाता है यह भी धुंआ बैठ जायेगा. वैसे भी हर साल बैठ ही जाता रहा है यह धुंआ. मगर यह हमारे शरीर के कुंए में जाकर जो हमारे फेफड़ों के साथ खिलवाड़ कर रहा है उस के बारे में कोई नहीं सोच रहा है.
सब हैं जिम्मेदार इस समस्या के लिए
किसी एक को इस धुंए का ज़िम्मेदार कहना बिलकुल उचित नहीं है. असल में हम सब इसके ज़िम्मेदार हैं. हम ने कभी अपनी असल समस्या को लेकर न तो अपने प्रतिनिधि चुने हैं और न ही आगे भी हम इन्हें मूल समस्याओं को लेकर चुनेंगे. हम सब अपने अपने कुओं में एक जैसे ही हैं इस लिए हमें प्रतिनिधि भी एक जैसे मिलते हैं. चुनाव से पहले कोई एक जज़्बात को उभारता नारा लगता है और फिर सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी उसके इर्द गिर्द ढोल बाजा लेकर कूदने लगते हैं. दोनों को ही इस में लाभ होता है. हानि तो उनकी होती है जिन्हें अपने लाभ हानि का कुछ अता पता नहीं है.
हम देश में वन नेशन वन इलेक्शन की बात करते हैं मगर अब तो ऐसा लगता है कि हम एक साथ कुछ राज्यों में भी चुनाव नहीं करवा सकते. इस लिए देश में हर समय चुनावी माहौल बना रहता है. चुनावी माहौल का अर्थ है कि सियासतदानों से लेकर जनता तक में कुछ न कुछ सियासी उथल पुथल मची रहती है. इन्टरनेट ने दुनिया बहुत छोटी कर दी है और देश के साथ साथ दुनिया भी मुठ्ठी में आ चुकी है. ऐसे में किसी भी राज्य में कुछ भी होता है तो उसका असर दूसरे राज्यों में होता दिखाई देना लाज़मी है. इस कारण से प्रगति के बहुत से घोड़े चुनावी वीरगति को प्राप्त होते चले जाते हैं. हर निर्णय चुनाव से पीड़ित होता है और ऐसे में सराय काले खान चोक तो बिरसा मुंडा चौक हो जाता है लेकिन सराय काले खान पर लगने वाला जाम जूं का तूं बना रहता है. अब तो दिल्ली की कुछ जगहों के जामों को नार्मल की संज्ञा दे दी गई लगती है कि यहाँ तो 15 से 20 मिनट का जाम लगता ही रहता है इस लिए वहां अब ट्रैफिक पुलिस वाले भी होते हुए भी नहीं होते. क्योंकि अगर होते भी हैं तो उन के हाव भाव से ही महसूस होने लगता है कि उनका होना न होना बराबर है क्योंकि उनके हाथ में कुछ भी करने को होता ही नहीं है. वह बेचारे भी इस धुंए को फांकते हुए अपनी जिंदगी की साँसें बोझल कर रहे होते हैं.
असल समस्याओं से बेपरवाह हो गए हैं हम
हम सब इतने बंटे हुए हैं कि हर ट्रैफिक जाम में साथ ही सिसक रहे होते हैं. सवाल इस बात का है कि क्या पराली जलाने वालों से ज्यादा धुआं यह जाम नहीं पैदा करते हैं. क्या सड़कों के फुटपाथ पर क़ब्ज़ा करने वाले बाज़ार धुआं पैदा नहीं करवाते? क्या जगह जगह खाने के ढाबे, सड़क किनारे रास्ते पर खड़ी रेहड़ियां, मेट्रो का मंहगा होना भी क्या इस जाम के कारण नहीं हैं? क्या जगह जगह भारी भरकम धुआं छोड़ते जनरेटर धुंए को नया आकाश नहीं देते? क्या फैक्ट्री प्रदूषण पैदा नहीं कर रही हैं? क्या ट्रकों को फ़िटनेस सर्टिफिकेट देते वक़्त उन्हें ढंग से बांटा नहीं जाता?
सवाल बहुत सारे हैं और उन के जवाब भी सभी को पता हैं लेकिन मामला बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे पर अटका हुआ है. अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो हमारी मुसीबतें इसी लिए बढ़ाई जाती हैं कि बाज़ार को अन्दर घुसने का रास्ता मिल सके. सड़क जाम होंगी तो फिर आप टोल रोड से जायेंगे, ऑटो टैक्सी वाले कण्ट्रोल में नहीं होंगे तो ओला उबर को रास्ता मिलेगा. लोगों का दम घुटेगा तो फिर प्योरीफायर का धंधा चमकेगा जैसे पीने का पानी ख़राब हुआ तो फिर बोतल में पानी और आरओ कामयाब हो गए, बिजली की समस्या हुई तो इन्वर्टर ने हमारे घरों में जगह बना ली.
बाजारवाद है आंख मूंदने का कारण
धुआं-धुआं ज़िन्दगी जैसे जैसे आगे बढ़ेगी हमारा तो पूरा विश्वास है कि हर वर्ष सभी को हॉस्पिटल जाकर जीने के लिए ऑक्सीजन लेनी होगी जिस तरह कोई गुर्दे का रोगी समय समय पर खून की सफाई के लिए डाइलेसिस करवा रहा होता है. जब आप बाज़ार के हत्थे चढ़ जाते हैं तो बाज़ार उस समय तक आप का खून निचोड़ता रहता है जब तक आप के पास एक बूँद भी खून बचा हो.
ऐसे में जब चारों ओर से केवल एक ही प्रकार के नारे सुनाई दे रहे हों, चुनाव भले झारखण्ड और महाराष्ट्र में हो रहा हो लेकिन पूरे देश की राजनीति उसी के इर्द-गिर्द घूम रही हो, जीवन में हर प्रकार का ज़हर घुलता जा रहा हो, अन्दर का शोर समाप्त और बाहर का शोर बढ़ता चला जा रहा हो और केवल एक दुसरे को नीचा दिखाना ही सिद्धांत बन गया हो तो ऐसे में अपने जीवन की खुद से ही भीख मांगनी पड़ती है. इन हालात में एक बात बहुत संतावना दे रही है कि हमारे पड़ोस के देश पाकिस्तान में एक्यूआई का स्तर हम से कहीं अधिक है. हम अभी 400 और 500 के आस पास भटक रहे हैं मगर वह हज़ार से ऊपर पार कर गया है और उस को कई शहरों में लॉक डाउन करना पड़ा है. यही सोच कर अपनी कम दूषित हवा में सांस लेते हैं कि चलो हम तो अब भी कम दूषित हवा पी रहे हैं. यह और बात है कि दुनिया में अनेकों ऐसे देश हैं जिनका एक्यूई 50 से भी नीचे है. देखना यह है कि वह किस प्रकार कितने भागों में बंटे हैं और उनकी हवा इतनी साफ़ क्यों हो गई है. दया कुछ तो गड़बड़ है पता करो..!
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है ….. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.