गरीब देश अमीर देशों से लंबे समय से जलवायु वित्त के रूप में 500 अरब डॉलर की सहायता की मांग कर रहे हैं, ताकि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए किए जाने वाले उपायों से आर्थिक क्षति की भरपाई कर सकें, लेकिन इस बार भी उनकी यह मांग पूरी नहीं हो सकी। अमीर देशों की ओर से कॉप-29 में गरीब देशों के लिए 300 अरब डॉलर के नए जलवायु फंडिंग पैकेज की पेशकश की गई, लेकिन भारत जैसे देशों ने उसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह बहुत कम है।

कॉप 29 सम्मेलन की समाप्ति के बाद यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या इस सम्मेलन से कोई ठोस निर्णय निकल पाया? देखा जाए तो पिछले 28 कॉप सम्मेलनों की तरह इस बार भी वही पुराने मुद्दे चर्चा में रहे, जिनका समाधान हर बार पीछे छूट जाता है। ऐसे में यह विचारणीय है कि आज तक इन सम्मेलनों में ऐसा क्या ठोस हुआ है, जिससे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से प्रभावी रूप से निपटने में मदद मिली हो या आगे मिलने की संभावना जगी हो?

1996 में शुरू हुए जलवायु सम्मेलनों में हम केवल वादे और चर्चाओं का दौर ही देखते आ रहे हैं। पेरिस समझौते के तहत कार्बन क्रेडिट प्रणाली और विकसित देशों द्वारा वित्तीय सहायता दिए जाने की जो बात हुई थी, वह अब तक कागजों पर ही सीमित है। वास्तव में 2016 से 2024 तक कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन और तापमान वृद्धि जैसे बुनियादी मुद्दों पर कोई नियंत्रण नहीं हो सका है। अगर जलवायु सूचकांक देखें तो अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे विकसित देश इसमें सबसे पीछे हैं।

ये देश जलवायु परिवर्तन पर गंभीर चर्चा तो करते हैं, लेकिन ठोस क्रियान्वयन में विफल रहते हैं। इनसे इतर भारत अपने स्तर पर प्रयास कर रहा है। सौर ऊर्जा और अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की दिशा में भारत की भूमिका सराहनीय है, लेकिन जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दे किसी देश की सीमाओं तक सीमित नहीं। उदाहरणस्वरूप यदि पाकिस्तान में प्रदूषण का स्तर बढ़ता है, तो इसका असर भारत पर भी पड़ता है। भूमिगत जल, वायुमंडलीय हवाएं और हिमखंड-ये किसी एक देश की समस्या नहीं हैं, बल्कि पूरे विश्व का साझा संकट हैं।

कॉप सम्मेलन का उद्देश्य विकसित और विकासशील देशों के बीच एक सेतु बनाना था, लेकिन यह मंच केवल वाद-विवाद और एक-दूसरे पर दोषारोपण तक तक सिमट गया है। अब तक न तो जलवायु वित्तीय सहायता की दिशा में कुछ सुधार हुआ है और न ही कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए हैं। इसे देखते हुए पनामा के मुख्य वार्ताकार कालोस गोमेज को कहना पड़ा कि हमारे जैसे गरीब देश हर मिनट कमजोर होते जा रहे हैं, लेकिन अमीर देश इस ओर संवेदनशीलता नहीं दिखा रहे।

छोटे देशों के गठबंधन ने तो एक तरह से कॉप 29 सम्मेलन से वाकआउट ही कर दिया। अब जब कॉप-29 सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका, तब फिर सभी देशों को अपने-अपने स्तर पर कुछ करने की आवश्यकता है। आखिर जब इन सम्मेलनों से कुछ ठोस निकल ही नहीं रहा है तो फिर सदस्य देशों को अपने स्तर पर प्रकृति के संहार से बचाने के लिए सक्रिय होने के अलावा और कोई उपाय नहीं।

भारत को चाहिए कि वह इन अंतरराष्ट्रीय बैठकों में अपनी बात रखने के साथ-साथ घरेलू स्तर पर भी ठोस कदम उठाए। यदि हम अपने प्रदूषण स्तर और स्थानीय पर्यावरणीय समस्याओं को नियंत्रित करने में सफल होते हैं, तो यह न केवल हमारी आंतरिक स्थिति को बेहतर बनाएगा, बल्कि वैश्विक मंच पर भी हमें मजबूत करेगा।

समय आ गया है कि स्थानीय स्तर पर मजबूत रणनीतियां बनाई जाएं। भारत को अपनी ऊर्जा खपत, कार्बन उत्सर्जन और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करना चाहिए। यदि हम अपनी समस्याओं का समाधान कर पाते हैं, तो हम दुनिया को यह दिखा सकेंगे कि किस तरह सीमित संसाधनों के साथ भी जलवायु संकट का समाधान संभव है।

अब इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या जलवायु सम्मेलन का मंच वाकई समस्याओं के समाधान का माध्यम है या केवल औपचारिकता भर है? कॉप सम्मेलनों की असफलता को देखते हुए इसके मौजूदा स्वरूप में बदलाव पर विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि जलवायु संकट की गंभीरता को अब अनदेखा नहीं किया जा सकता।

जब विकासशील देश अपने स्तर पर पर्यावरण की रक्षा के लिए सक्रिय होंगे तो विकसित देशों पर कुछ करने का दबाव पड़ेगा और वे अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आने को बाध्य हो सकते हैं। चूंकि यह सबकी जिम्मेदारी है कि आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और स्वस्थ पर्यावरण मिले, इसलिए पर्यावरण रक्षा के उपाय करने में देर नहीं की जानी चाहिए। पर्यावरण लगातार बिगड़ता ही जा रहा है। यदि दुनिया की चिंता छोड़ सब देश अपनी-अपनी जान बचाने के रास्ते ढूंढ़ें तो कुछ नहीं से कुछ तो हासिल किया ही जा सकता है।

भारत अपने स्तर पर काफी कुछ करने में पूरी तरह सक्षम है। भारत को इकोनमी के साथ इकोलाजी के प्रति भी गंभीरता का परिचय देना होगा। यह समय की मांग है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ-साथ सकल पारिस्थितिकी तंत्र उत्पाद (जीईपी) को भी बराबर महत्व मिले। जीडीपी जहां देश की अर्थव्यवस्था की सेहत बताती है वहीं जीईपी देश के पर्यावरण की सेहत बताती है।

(लेखक पर्यावरणविद् हैं)