बच्चों की आत्महत्या भयावह, पढ़ाई के दबाव के साथ इमोशनल कोशेंट भी जिम्मेदार ?
बच्चों की आत्महत्या भयावह, पढ़ाई के दबाव के साथ इमोशनल कोशेंट भी जिम्मेदार, अभिभावक समझें उनका मन
जायपुर का शहर कोटा! इसे कोचिंग की राजधानी भी कहा जाता है. वहां बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के छात्र IIT,मेडिकल और अन्य परीक्षाओं की कोचिंग के लिए आते हैं. एक प्रकार से दूसरे राज्यों से आए छात्रों को कोटा की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में हिस्सेदार मना जा सकता हैं. इन दिनों कोटा एक और वजह से सुर्खियों में है. वजह अच्छी नहीं, बल्कि बदनामी की है. वहां छात्रों की आत्महत्या के मामले लगातार सामने आ रहे हैं. 20 दिसंबर को यानी कल बिहार के वैशाली जिले के रहने वाले एक ग्यारहवीं कक्षा के छात्र ने अपने घर में पंखे से लटकर जान दे दीं. यह इस साल की 17वीं घटना थी. पिछले साल 2023 में 26 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी.
एंटी सुसाइड डिवाइस तक हम पहुंच गए
कहा जा रहा है कि लड़के के कमरे में एंटी स्युसाइड डिवाइस लगा हुआ था, पर उसने काम नहीं किया और उसकी लाश पंखे से लटकी मिली. यह बहुत चिंता का विषय है की हम आज इस हालत तक पहुंचे और यह सब बच्चों की सुरक्षा के लिए करना पड़ रहा है. हालांकि, यह डिवाइस जिस कमरे में लगा है, वो कमरे तक ही रहेगा, वो खराब हो गया, काम नहीं कर रहा, क्योंकि वह मशीन है. कई बार ऐसा किया जा सकता है कि वो काम ना करे, क्योंकि कई बार हम देखते है कि हमने अगर कैमरा लगाया है तो उसको बंद कर दिया जाता है. या तो उसको इऩएक्टिवेट कर दिया जाता है. यह डिवाइस तो हमने कमरे में लगया, इसमें समस्या कहां हैं, समस्या तो मन के अंदर है. हम अगर कमरे में लगा भी लेंगे डिवाइस तो जिसने सोच लिया या जो इस स्थिति में पहुंच गया है कि उसको अपनी जिंदगी खत्म करनी है, उसको अगर मात्र यह एक रास्ता नज़र आता हैं तो वो कोई और रास्ता चुंन लेगा, कमरे से बहर चला जाएगा.
उपकरण की जगह बच्चों पर करें काम
इसमें जहां असल समस्या है, वहां पर हमें काम करने के लिए जरूरत है कि एंटी सुसाइड डिवाइस हम बच्चों के मन में लगा सके. क्यों बच्चा उस मनों स्थिति में जा रहा है? क्यों वैसी मानसिक परिस्थितियां उत्पन्न हो रही हैं? क्यों बच्चा उस कदम को उठाने के लिए मजबूर होता है ? या फिर उसको यह एक मात्र रास्ता नज़र आ रहा है. वो भी उस कमरे में, जहां वह रहते हैं. बच्चा उस उम्र में है, जब कहते हैं ना कि पौधों की खिलने की उम्र होती है. अब हमें लगता है कि वो जड़ जमा चुका और हम फसल की उम्मीद कर रहे होते हैं. हम खुश होने लगते हैं कि सब चीज ठीक होने वाली है, तभी वह एक झटके से हमें छोड़ कर चला जाता है. यह एक चिंता का विषय है.
यह सोचने की बात है कि हम बच्चों के मन के अंदर इस एंटी सुसाइड डिवाइस को कैसे लगाएं? यहां पर काम करने की जरूरत है. उत्तर प्रदेश और बिहार का बच्चा जब कोटा जैसे शहर में आ रहा है, या कोई भी बच्चा कहीं से भी किसी भी प्रदेश से आ रहा है, तो वो बहुत सारे सपने और उम्मीद के साथ आ रहा है. वो सपने और उम्मीद सिर्फ उसके नहीं है. उसके मां-बाप के, उसके रिशतेदारों के, उसके समाज के हैं. उससे जुड़कर के वो सपने और उम्मीद ओर ज्यादा भारी हो जाते हैं, वो बच्चों के लिए बहुत बड़ा लक्ष्य हो जाता है. बच्चों के मन में यह रहता है कि इस लक्ष्य को पूरा करना मेरे लिए जरूरी है. अगर यह में पूरा नहीं कर पाया तो मेरी जिंदगी में कुछ नहीं बचेगा.
बच्चों को खिलने दें, न थोपें अपनी ख्वाहिशें
इस ट्रेंड को समझने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन कोई प्रभाव नहीं हो रहा है. जहां पर काम करने की जरूरत है, वहां ढंग से काम नहीं किया जा रहा है. बच्चे की उम्र ही क्या है? अब जैसे इसी बच्चें की बात करें तो वह आठ महीने पहले घर से बहर आया और यहां पर आकर उस बच्चे ने यह कदम उठा लिया. आत्महत्या करने का प्रेशर इतना बढ़ता जा रहा है, इसपर काम करने की जरूरत है. इसपर क्यों काम नहीं हो पा रहा है? हम सब मिलकर जागरूकता लाने की कोशिश कर रहे हैं औऱ सरकार भी बोलती है कि वह भी इससे चिंतित है, लेकिन हालात सुधर नहीं रहे. कारण यह है कि जब बच्चा छोटा होता है, जब उसका पालन-पोषण चल रहा होता है तो उसके माता-पिता सोचने और तय करने लगते हैं कि उस बच्चे को क्या बनाना है? बच्चे का जीवन वहां से शुरू होने लगता है. यह कुछ एक-आध दिन में नहीं होता, बचपन से ही बच्चों को बड़ा होकर कुछ बनने का प्रेशर दिया जाता है. मां-बाप को बच्चे को क्या बनाना है? वो बनाना है जो वो खुद नहीं बन पाए.
यहीं से चीजें शुरू होती हैं और बढ़ते-बढ़ते जब बच्चा बड़ा होता है तो बेटा तुम क्या बनोगे? हमने वो सिखा दिया. बच्चा समझ नहीं पाता है कि उसे क्या बनना है? वहां तो बीज डाला गया है कि तुम्हे यही बनना हैं. अब वो बच्चा आम का बीज था, खजूर का पेड़ बनने वाला था, लेकिन उसको बोला गया कि तुमको तो खजूर बनना है. उसको तो पता ही नहीं था कि वो आम बनने वाला था. वहां से सफर शुरू हो जाता है कि तुम्हें ये बनना है, ये बनना है, ये भी बनना है. इसके लिए यह पढ़ो. यह नहीं पढ़ोगे तो फिर यह कैसे बनोगे? तो वह दबाव वहां से बनना शुरू हो जाता है.
बच्चों को समझें अभिभावक
अब बच्चे के जीवन में एक ही लक्ष्य है. जैसे उदाहरण के लिए उसे NEET की परीक्षा पूरी करनी है, तो अब वो उसकी जिंदगी बन गयी. बच्चे को पता है कि उसने NEET की परीक्षा को पास नहीं किया तो उसका होना ही बेकार है, उसके अस्तित्व का होना ही बेकार है. ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी परवरिश वैसी ही की गई थी. अब हम बच्चे को सिखा रहे हैं कि पहाड़ की चोटी पर तुम्हें चढ़ना है. यह बहुत अच्छी बात है. इसमें कोई दिक्कत नहीं हैं कि सफलता के ऊंचे शिखर पर उसे चढ़ना है, लेकिन वहां पर उनका तरीका गलत हो जाता है, जब बच्चे को विकल्प के बारे में नहीं बताते. बच्चे को हम यह नहीं बता पाते कि अगर शिखर तक नहीं पहुंच पाए तो उससे पहले भी बहुत सारे पड़ाव है, और वो जिंदगी का अंतिम सत्य नहीं हैं. अगर हम बच्चे को विकल्प दें, प्लान A,B,C बताते रहें तो बच्चे का लक्ष्य साफ-साफ उसे समझ में आ जाएगा.
समझें बच्चों का इमोशनल कोशेंट
एक और बात जो ध्यान देने की है, वह ये है कि हमेशा बच्चा पढ़ाई या करियर के दबाव से ही ऐसा गलत कदम नहीं उठाते. चूंकि कोटा करियर हब है, इसलिए हम इसे करियर से जोड़ रहे हैं. बच्चा सुसाइड कर रहा है, मतलब भावनात्मक तौर पर कमजोर है. जिसे हम ईक्यू कहते हैं- यानी उनका इमोशनल कोशेंट या इमोशनल इंटेलिजेंस. अगर बच्चे का आईक्यू बहुत अधिक है, लेकिन उसका ईक्यू कमजोर है, तो वह ऐसे कदम उठा सकता है. हमने कई मामलों में देखा है कि सभी लक्ष्य हासिल करने के बाद भी बच्चे यह कदम उठा लेते हैं. उसका ईक्यू स्ट्रॉन्ग करना होगा. हम उसे जीतने के साथ हारना भी सिखाएं. जीवन की खुशियों के साथ समस्याओं की भी बात हो.
इसमें परिवार की भूमिका बहुत जरूरी है, खासकर माता-पिता. जहां वह अपनी पूरी कमजोरी बेपर्द कर सकें और मां-बाप कहें कि कोई नहीं, तुमने कोशिश की, फिर देखेंगे. मां-बाप के बाद उसके शिक्षकों का बहुत बड़ा योगदान हो सकता है. ऐसे वाक्य अगर बच्चों को बारहां मिलते रहें तो वह बड़ा होकर मजबूत होता है और एक मजबूत व खुशहाल जीवन जीता है.
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