आज समाचार-मीडिया के सामने अभूतपूर्व चुनौतियां हैं ?

आज समाचार-मीडिया के सामने अभूतपूर्व चुनौतियां हैं

इस महीने एक प्रमुख अमेरिकी मीडिया संगठन के सीईओ ने इलोन मस्क पर निशाना साधा। एक प्रतिष्ठित पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त करते समय उन्होंने मस्क की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘आप मीडिया नहीं हैं!’ लेकिन सच्चाई यह है कि आज पूरी दुनिया में ही समाचार-मीडिया को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। टेक्नोलॉजी में नाटकीय बदलाव, एआई का तेजी से आगमन और सूचना-प्रसार और उपभोग के बदलते पैटर्न ने पत्रकारिता के पेशे के बारे में हमारी अधिकांश पुरानी धारणाओं को उलट दिया है।

मैंने डिजिटल मीडिया में आने से पहले टीवी मीडिया में दो दशक बिताए थे और अब जब मैंने इन दोनों ही माध्यमों को अच्छे-से देख-परख लिया है तो मैं कहूंगी कि पत्रकार बनना इससे पहले कभी भी इतना कठिन, या विडम्बनापूर्ण स्वर में कहूं तो इतना आसान नहीं रहा था।

मुझे प्राइम टाइम टीवी पर एक घंटे के शो की मेजबानी करने के लिए कैमरा, लाइन प्रोड्यूसर, फ्लोर मैनेजर, साउंड इंजीनियर सहित 15 लोगों की टीम की जरूरत पड़ती थी। लेकिन स्ट्रीमिंग सॉफ्टवेयरों की बदौलत, मैं अब वही शो अधिक से अधिक एक प्रोड्यूसर की मदद से कर सकती हूं और जरूरत पड़ने पर इसे अकेले भी कर सकती हूं।

यहां मैं जूम-कॉल जैसे दिखने वाले शो की बात नहीं कर रही। ये ऑनलाइन शो लगभग टीवी शो जितने ही अच्छे तरीके से बनाए गए होते हैं- ग्राफिक्स से लेकर साउंडबाइट्स तक हर मामले में। सूचना जुटाना और साक्षात्कार के लिए अनुरोध करना कभी भी इतना आसान नहीं रहा था, जितना आज है।

यह एक फोन नंबर हासिल करने से पहले अनगिनत फोन कॉल के माध्यम से रिसर्च करने से बहुत अलग है। आज एक स्मार्टफोन कैमरा कम रोशनी में भी हाई रिजोल्यूशन वाली तस्वीरें ले सकता है। छोटा आकार और इसकी सर्व-स्वीकार्यता भावनात्मक रूप से संवेदनशील साक्षात्कार लेते समय इसे पुराने स्टाइल के कैमरे की तुलना में कम दखल देने वाला बनाता है। सस्ता डेटा वाईफाई हॉटस्पॉट के रूप में कहीं से भी फुटेज ट्रांसमिट करना आसान बना देता है। विशाल ओबी वैन और सैटेलाइट डिश की जरूरत खत्म हो गई है।

मुझे याद है कि एक बार मैं कड़ाके की सर्दी में लद्दाख में बैठी थी और एक हाथ में फोन-डोंगल लेकर भारत और चीन के बीच गतिरोध की रिपोर्टिंग कर रही थी। बीस साल पहले, कश्मीर में एक रैली के दौरान मेरी आंखों के सामने एक अलगाववादी राजनेता की हत्या कर दी गई थी। तब मुझे अपने सहकर्मी को एक प्रतिस्पर्धी टीवी चैनल से निकटतम फोन बूथ तक दौड़ाना पड़ा ताकि मैं दिल्ली तक यह खबर पहुंचा सकूं।

सुरक्षा कारणों से जम्मू और कश्मीर में मोबाइल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। 1999 में कारगिल युद्ध की रिपोर्टिंग मैंने फ्रंटलाइन से बिना किसी फोन के की थी। हम अपने फुटेज को उन हेलीकॉप्टरों से दिल्ली भेजते थे, जो शहीदों के ताबूत ले जा रहे होते थे। लेकिन आज आपको खुद को एक मीडियाकर्मी घोषित करने के लिए बस एक डेटा प्लान वाला फोन भर चाहिए।

क्या पत्रकारिता के लिए बस इतना ही काफी है?

‘कंटेंट-क्रिएशन’ के लोकतंत्रीकरण का जश्न मनाया जाना चाहिए, पर क्या हम एक मीडिया के रूप में पहले से ज्यादा स्वतंत्र हुए हैं?

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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