मनुष्य को मशीन न बनाए, कामकाज एवं सामान्य जीवन में संतुलन से ही होगा बेहतर कल का निर्माण !
बहुत ज्यादा काम के घंटों से बच्चे भटकावग्रस्त और बुजुर्ग उपेक्षित और एकाकी हो जाएंगे। ऐसी स्थिति समाज एवं राष्ट्र के लिए शुभ नहीं। संवाद के लिए बने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म भी संवादहीनता और अकेलेपन के कारक बनते जा रहे हैं। चूंकि कार्यजीवन में संतुलन से ही व्यक्ति समाज एवं संस्थान में सर्वोत्तम योगदान दे सकता हैइसलिए जरूरी है कि कंपनियां कर्मियों को उनकी आवश्यकता समझकर अपेक्षित अवकाश प्रदान करें।
… आजकल वर्क-लाइफ बैलेंस पर बहस जोर पकड़ती जा रही है। इस बहस में कुछ दिग्गज उद्योगपतियों के बयान हतप्रभ करने वाले हैं। हम जानते हैं कि कोविड जैसी आपदा से निपटने के बाद हम सभी ने बहुत मुश्किल से अपने कार्य और परिजनों के मध्य समय का संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है, परंतु पिछले दिनों लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यन ने हफ्ते में 90 घंटे काम करने का विचार रखा।
उन्होंने दांपत्य जीवन का मखौल उड़ाते हुए कहा कि आखिर आप कब तक अपनी पत्नी को निहारेंगे। उन्होंने रविवार के अवकाश को भी गैर-जरूरी बताया। लगता है कि उन्हें न तो मानव-प्रबंधन की पेशेवर समझ है और न ही उनके भीतर मानवीय संवेदनाएं हैं। शायद उनका भारतीय जीवन-पद्धति, जीवन-दर्शन के साथ-साथ मानव-प्रबंधन क्षेत्र में हो रहे नवाचारों से भी कोई सराकोर नहीं। क्या वह मनुष्य को रोबोट से अधिक कुछ नहीं समझते? यह विडंबना ही है कि वह यह भी भुला बैठे कि रोबोट को भी देखभाल और रीचार्जिंग की आवश्यकता होती है।
कामकाजी घंटों की बहस कुछ समय पहले इन्फोसिस के सहसंस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने शुरू की थी। उन्होंने कहा था कि वैश्विक स्तर पर अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराना है तो हमें सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। इसके बाद कई कारोबारी ऐसी पैरवी कर चुके हैं, मगर महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा, आइटीसी के चेयरमैन संजीव पुरी और ओयो के सह-संस्थापक रितेश अग्रवाल ने काम के घंटे बढ़ाने का विरोध करते हुए काम और जीवन की गुणवत्ता को प्राथमिकता देने की बात की है।
सनातन परंपरा में मानव जीवन और उसकी कार्यक्षमता के संबंध में मानव-केंद्रित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया है। इस परंपरा में हम विकास और भौतिकवाद की अंधी दौड़ में शामिल होकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा नहीं करते, अपितु स्वस्थ और संतुलित जीवनशैली अपनाते हुए अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक उत्पादकता के शिखर तक पहुंचने का प्रयास करते हैं।
इस क्रम में हम यह भी देखते हैं कि जीवन और जीवन-मूल्य हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। हम उत्पादकता को बढ़ाने के लिए शारीरिक-मानसिक संतुलन को नहीं बिगड़ने देते, क्योंकि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।’ हमारे जीवन-दर्शन का लक्ष्य व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का सर्वांगीण विकास है, न कि एकाग्र भौतिक विकास हमारा एकमात्र ध्येय है। यही कारण है कि हमारे यहां सफलता की जगह सार्थकता पर बल है।
महात्मा गांधी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे भारतीय विचारकों के अनुसार जीवन के परम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का स्वास्थ्य, संतुलन और समन्वय आवश्यक है। यही चरम सुख और परम वैभव का प्रशस्त पथ है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति के मूल्यांकन का आधार विकास दर मात्र नहीं, बल्कि हैप्पीनेस इंडेक्स होना चाहिए।
व्यक्ति न केवल परिवार बसाता है, बल्कि समाज से भी जुड़ता है। वह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करके जीवन को सरल एवं सरस बनाता है। वह जीव और जगत के मध्य संतुलन स्थापित करता है। दूसरी ओर, भोगवादी जीवन पद्धति मानव को मशीन के रूप में देखती है। मानव जीवन का मशीनीकरण होने से उसके जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
मनुष्य का मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। यदि उपयोगितावादी दृष्टि से मानव जीवन को देखा जाएगा तो केवल मानसिक संताप बढ़ेगा। परिवार और समाज जैसी संस्थाएं भी संकटग्रस्त होंगी। उपयोगितावादी दृष्टि से समाज में विखंडनकारी और विभेदकारी जीवन पद्धति को प्रोत्साहन मिलता है।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो सप्ताह में 70 या 90 घंटे कार्य करने से सेहत पर दीर्घकालिक दुष्प्रभाव पड़ेगा। 2021 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी लंबी कार्यावधि का विरोध करती है। विभिन्न शोध बताते हैं कि अत्यधिक काम करने वाले उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अवसाद और हृदय संबंधी बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं। लंबे समय तक बैठ कर काम करने वालों में जीवनशैली संबंधी ऐसी बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।
युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति और कम होती प्रजनन क्षमता भी काम के अतिशय दबाव और नकारात्मक वातावरण की देन है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ और मशीनीकरण के इस युग ने निश्चित ही मानव जीवन तथा मानवीय संवेदनाओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विचारों का आदि-स्रोत मानव मस्तिष्क ही है।
यदि हम नवीन तथ्यों का अनुसंधान करना चाहते हैं तो इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य दुरुस्त रखना होगा। यह तभी संभव होगा, जब वर्क-लाइफ बैलेंस होगा। मौलिक चिंतन स्वस्थ मस्तिष्क से ही संभव हो पाता है। हम एआइ और रोबोटिक्स आदि के द्वारा कार्यों को आसान तो बना सकते हैं, लेकिन उसी कार्य को नवीनता या मौलिकता के साथ नहीं कर सकते। मशीन मनुष्य की जगह नहीं ले सकती।
अवसाद और अकेलेपन से बचने के लिए व्यक्ति परिवार और प्रकृति के साहचर्य में अपने तन-मन को दुरुस्त करता है। काम के अनावश्यक दबाव के कारण जीवनशैली प्रभावित होती है। जीवन की उत्पादकता और उपलब्धियों को संपूर्णता में देखने की आवश्यकता होती है। परिवार और समाज से अलग व्यक्ति का न कोई व्यक्तित्व है और न ही अस्तित्व। परिवार और समाज में रहकर ही व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है तथा रचनात्मकता एवं उत्पादकता बढ़ती है। इसलिए पारिवारिक और पेशेवर जीवन में उचित तालमेल बनाना होगा।
बहुत ज्यादा काम के घंटों से बच्चे भटकावग्रस्त और बुजुर्ग उपेक्षित और एकाकी हो जाएंगे। ऐसी स्थिति समाज एवं राष्ट्र के लिए शुभ नहीं। संवाद के लिए बने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म भी संवादहीनता और अकेलेपन के कारक बनते जा रहे हैं। चूंकि कार्यजीवन में संतुलन से ही व्यक्ति समाज एवं संस्थान में सर्वोत्तम योगदान दे सकता है, इसलिए जरूरी है कि कंपनियां कर्मियों को उनकी आवश्यकता समझकर अपेक्षित अवकाश प्रदान करें।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कालेज में प्राचार्य हैं)