आंबेडकर की आड़ में स्वार्थों का संधान ?
डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम का उपयोग संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया जाना सांस्कृतिक पतन की निशानी है। यदि राजनीति में आज जैसी तल्खी हर ओर बिखरी होती तो डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष नहीं बन पाते लेकिन कुछ ऐसे व्यक्तित्व उस समय उपस्थित थे जो प्रतिभा का सम्मान करना जानते थे। भारत के संविधान की सराहना पूरे विश्व में हुई है।
….. पिछले कुछ महीनों से देश में संविधान पर खूब चर्चा हो रही है, लेकिन यह सतही है, क्योंकि भारत के संविधान की सराहना तो पूरे विश्व में हुई है। इसे स्वतंत्रता आंदोलन के समर्पित सेनानियों ने जन-आकांक्षाओं और अभिलाषाओं की गहरी समझ के साथ तैयार किया।
इसको शब्द देने के लिए जिस अप्रतिम प्रतिभा की आवश्यकता थी, वह डॉ. भीमराव आंबेडकर के व्यक्तित्व में मिली। भावी पीढ़ियां और इतिहास उनका ऋणी रहेगा। देश का यह सौभाग्य था कि इस उत्तरदायित्व को निभाने के लिए डॉ. आंबेडकर उपलब्ध थे।
गांधी जी से उनके मतभेद थे, पंडित नेहरू और उनकी पार्टी उनको पसंद नहीं करती थी, लेकिन उस समय के राजनीतिक पटल पर स्वार्थ अनुपस्थित था। हर तरफ देश, देशवासियों और भारत के भविष्य की चिंता थी। लोगों को एक सम्यक मानवीय जीवन प्रदान करने का लक्ष्य ही हर तरफ लगभग सभी दलों और नेताओं का ध्यान आकर्षित कर रहा था।
यदि राजनीति में आज जैसी तल्खी हर ओर बिखरी होती तो डॉ. आंबेडकर संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष नहीं बन पाते, लेकिन कुछ ऐसे व्यक्तित्व उस समय उपस्थित थे, जो प्रतिभा का सम्मान करना जानते थे और देश हित को दलगत हित से ऊपर मानते थे।
संविधान के निर्माण में एक युग के सोच, समझ और वैचारिक सामूहिकता का योगदान रहा। इसी कारण वह इतना सशक्त बन सका। हालांकि एक ऐसा काला अध्याय भी भारत के संविधान से जुड़ा, जिसे इतिहास कभी भुला न पाएगा।
1975-77 के दौरान न्यायालय के निर्णय को निरस्त करने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए संविधान के शब्दों को ही नहीं, उसके आत्मा तक को तहस-नहस कर दिया गया था। यह उस दल ने किया था, जो स्वतंत्रता आंदोलन का सारा श्रेय स्वयं लेना चाहता रहा है।
उसने इसके लिए इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने में कोई शर्म महसूस नहीं की। आज वही दल खुद को संविधान का सबसे बड़ा रक्षक बताने का दावा कर रहा है। क्या भारत के संविधान निर्माण में पंडित मदन मोहन मालवीय, रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी तथा अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का वैचारिक योगदान नहीं था?
क्या डॉ. राजेंद्र प्रसाद का अथक परिश्रम भुलाया जाना चाहिए? क्या चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की बौद्धिकता को सम्मान नहीं मिलना चाहिए? इन मनीषियों ने भारत के संविधान के भविष्य को बचाने के लिए, उसे संगठित और समग्र बनाने के लिए सोशलिस्ट तथा सेक्युलर शब्दों को आमुख में आने नहीं दिया था। आपातकाल में इन दोनों शब्दों को संविधान में जोड़ना इन महानुभावों का घोर अपमान ही था।
संविधान के प्रति श्रद्धा भाव का प्रकटीकरण सही मायने में इन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान का भी प्रकटीकरण है। डॉ. आंबेडकर और उनके जिन सहयोगियों ने संविधान सभा में बैठकर देश के भविष्य का मार्ग निर्धारण किया, वे निश्चित ही विशेष कृतज्ञता के अधिकारी हैं।
डॉ. आंबेडकर ने देश को जोड़ने का प्रयास किया, अन्याय से हर किसी को मुक्त करने का मार्ग सुझाया। उन्होंने सिखाया कि प्रत्येक मनुष्य हर दूसरे मनुष्य को अपने समकक्ष स्तर पर आदर और सम्मान प्रदान करे। वे लोग जो जाति, उपजाति या किसी भी अन्य प्रकार के वर्गीकरण द्वारा उनका नाम लेकर अपने पक्ष में कुछ मतदाता बढ़ा लेने का प्रयास करते हैं, उन्हें सुसंस्कृत नहीं माना जा सकता, भले ही वे किसी भी पद पर हों।
ऐसे लोग समाज के हितैषी तो नहीं ही माने जाएंगे। जिस देश की संस्कृति ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ का संदेश देती हो, जहां आयु और अनुभव के प्रति आदर और सम्मान करना बचपन से ही सिखाया जाता रहा हो, वहां डॉ. आंबेडकर जैसे पवित्र नाम का उपयोग क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया जाना किसी बड़े सांस्कृतिक पतन की ओर ही इंगित करता है।
संविधान निर्माता जानते थे कि सत्ता के आने से और उसके द्वारा प्राप्त अधिकार, सुविधाएं तथा धन-संग्रह की संभावनाएं व्यक्तियों पर नकारात्मक प्रभाव अवश्य डालेंगी। 26 नवंबर, 1949 को जब संविधान का अंतिम प्रारूप स्वीकृति के लिए संसद में प्रस्तुत किया गया, तब संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने जो भाषण दिया, वह सदियों तक लोगों का ध्यान आकर्षित करता रहेगा।
उन्होंने कहा था, ‘देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा, जिसके अनुसार देश का प्रशासन किया जाएगा। देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा, जो देश पर प्रशासन करेंगे। यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है।’
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने देश में सांप्रदायिक भेद, जातिगत भेद, भाषा तथा प्रांतीयता के भेद और इसी प्रकार के अन्य भेदों का भी उल्लेख किया। उन्होंने अपेक्षा की कि, ‘इसके लिए हमें ऐसे दृढ़ चरित्र व्यक्तियों दूरदर्शी लोगों और ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो छोटे-छोटे समूहों और क्षेत्रों के लिए पूरे देश के हितों का परित्याग न करें और जो इन भेदों से उत्पन्न हुए पक्षपात से परे हों।
हम केवल आशा ही कर सकते हैं कि इस देश में ऐसे लोग बहुत मिलेंगे।’ अफसोस कि आज देश में हमें ऐसे लोग आवश्यक संख्या में नहीं मिल रहे हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए देश हित को पीछे छोड़ने वाले देश की प्रगति और विकास के रास्ते के अवरोधक बन रहे हैं।
(लेखक प्रधानमंत्री स्मारक और ग्रंथालय में फेलो हैं)