जज के घर पर जलते नोटों ने कई सवाल खड़े किए हैं ?
हम जैसे पत्रकारों- जिन्होंने बीते तीन दशकों में देश में क्या कुछ नहीं होते देखा है- के लिए भी दिल्ली उच्च न्यायालय के जज के घर पर जलते हुए नोटों की तस्वीरें हैरान कर देने वाली थीं! न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के घर के बाहरी हिस्से में आग लगने पर ये जलते हुए नोट मिले थे।
जब उनके किसी परिचित ने मदद के लिए फायर ब्रिगेड को फोन किया, तब जज स्वयं घर पर नहीं थे। उसके बाद जो हुआ, उसे फिर से दोहराने की जरूरत नहीं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच के नतीजों तक जज को न्यायिक कर्तव्यों से अस्थायी रूप से मुक्त कर दिए जाने के बावजूद कई ऐसे सवाल मुंह बाए खड़े हैं, जिनके अभी तक कोई जवाब नहीं मिले हैं।
आग लगने की घटना और जलते हुए नोटों से भरे कमरे का पता लगना 14 मार्च को होली की रात को हुआ था। लेकिन आज तक यह नहीं पता चल पाया है कि वहां से कुल कितनी रकम बरामद हुई? या सब जल गई? और अगर आग में सारे नोट जल गए, तो पुलिस ने रकम का अंदाजा कैसे लगाया?
कहा जा रहा है कि कमरे में 15 करोड़ रुपए मिले हैं। लेकिन क्या किसी ने इसकी गिनती की? अगर नहीं, तो इस आंकड़े का आधार क्या है? वीडियो में दमकलकर्मियों को जलते नोटों की लपटों को बुझाते देखा जा सकता है। क्या वे कोई नोट बचाने में कामयाब रहे या नहीं? और सबसे बड़ा सवाल- यह पैसा किसका है? क्या जज उन पैसों के प्राप्तकर्ता थे या नहीं? और अगर थे तो पैसे देने वाला कौन था?
भले ही इनमें से अंतिम प्रश्न के उत्तर के लिए विस्तृत जांच की आवश्यकता हो, लेकिन कम से कम दूसरे बुनियादी सवालों के जवाब तो हमें मालूम होने चाहिए। जज ने अपने खिलाफ साजिश का दावा किया है। वे यह भी कहते हैं कि जब उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार-जनरल अगले दिन (यानी 15 मार्च को) मौका-मुआयना करने गए, तो उन्होंने वहां नोट जलने का कोई सबूत दर्ज नहीं किया था।
अगर यह सच है तो मलबा हटाने का आदेश किसने दिया? और अगर मलबा हटाया गया था, तो मीडिया द्वारा कैप्चर किए गए दृश्यों में सूखे पत्तों के बीच जले हुए नोटों के छोटे-छोटे टुकड़े कैसे दिख रहे हैं? क्या पुलिस ने कमरे से बरामदगी पर पंचनामा तैयार किया था? क्या उन्होंने कमरे में मौजूद हर चीज को जब्त करके फोरेंसिक जांच के लिए भेजा है?
इस मामले में जस्टिस वर्मा की प्रतिक्रियाएं भी परस्पर विरोधाभासी रही हैं। एक तरफ तो उन्होंने तर्क दिया है कि जिस आउटहाउस में जलते हुए पैसे को फिल्माया गया था, उसका उनसे और उनके परिवार से कोई संबंध नहीं था।
उन्होंने दावा किया कि जिस कमरे में आग लगी थी, उसे एक बाउंड्रीवॉल उनके घर से अलग करती है। उनकी दलील मानें तो वो कम से कम इस बात से इनकार करते नहीं मालूम होते हैं कि वहां से नोट मिले थे। उनकी कोशिश उन जले हुए नोटों से खुद को अलग करने भर की रही है।
लेकिन अपने बयान के दूसरे हिस्से में वे इस बात पर जोर देते हैं कि दिल्ली हाईकोर्ट के प्रतिनिधि जले हुए नोटों का कोई सुराग नहीं खोज पाए हैं! मामले में अपनी पहली प्रतिक्रिया में सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस बयान जारी करते हुए बताया कि जस्टिस वर्मा का इलाहाबाद में उनकी होम हाईकोर्ट में वापस तबादला करने का कदम उनके खिलाफ जारी जांच से जुड़ा हुआ है।
लेकिन सवाल उठता है कि शिकायत के संज्ञान में आने के बाद स्थानांतरण की कार्यवाही को क्यों नहीं रोक दिया गया? सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की जांच से जुड़ी हर बात को पब्लिक डोमेन में रखा। इस तरह मीडिया और आमजन जज के घर में जलते नोटों की तस्वीरें देख पाए। जहां यह पारदर्शिता सराहना के योग्य थी, वहीं इसके कुछ दिनों बाद जज का तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट में करने की मंजूरी क्यों दे दी गई?
यह हैरान करने वाला है कि यदि जस्टिस वर्मा को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित 3 सदस्यीय पेनल द्वारा जांच लंबित रहने तक न्यायिक कार्य से हटा दिया गया था तो फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनका तबादला क्यों किया गया? उनके दोषी या निर्दोष साबित होने तक इसे रोका क्यों नहीं गया?
अब इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील इस तबादले के विरोध में हड़ताल का आह्वान कर रहे हैं। कॉलेजियम यह तर्क दे सकता है कि दोनों घटनाक्रमों का आपस में संबंध नहीं है। लेकिन मौजूदा माहौल में कोई भी इसे नहीं मानेगा। हां, यह जरूर है कि राजनेता कॉलेजियम प्रणाली को चुनौती देने के एक अवसर के रूप में इसका उपयोग कर सकते हैं।
सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन इस मामले में कहानी जस्टिस वर्मा से कहीं आगे जाती मालूम होती है। अगर पैसा उनका है, तो जांच इस पर केंद्रित होनी चाहिए कि पैसे किसने दिए। और अगर उन्हें फंसाया गया है, तो किसने फंसाया और क्यों? (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)