आख़िर जघन्य अपराधों में भी पुलिस सबूत क्यों नहीं जुटा पाती …!

फ़ैसले से आहत परिजन …!

दिल्ली की घटना है। एक लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया और उसके बाद भी जघन्यता की हद पार की गई। लोअर कोर्ट ने फाँसी की सजा सुनाई। हाईकोर्ट ने भी इस सजा की पुष्टि की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तीनों आरोपियों को बरी कर दिया। कहा कि अभियोजन सबूत नहीं दे पाया। संदेह के लाभ में तीनों आरोपियों को बरी किया जाता है। यही नहीं, कोर्ट ने उन अन्य तीन आरोपियों को भी बरी कर दिया जिन्होंने अपील की ही नहीं थी।

लड़की के माता-पिता जार-जार रो रहे हैं। कह रहे हैं कि ग्यारह साल तक क़ानूनी लड़ाई लड़ने के बाद हमने न्याय पालिका पर से भरोसा खो दिया। लड़की के पिता ने तो यहाँ तक कहा कि जो अपराधियों के साथ होना था, वह हमारे साथ हो गया। माँ ने कहा- वे अपराधी तो हमें कोर्ट में भी मार डालने, काट डालने की धमकी जब-तब दिया करते थे, लेकिन हम सोचते थे कि न्याय एक दिन हमारे साथ भी होगा, पर नहीं हो सका।

आख़िर इतने जघन्य अपराधों में भी पुलिस सबूत क्यों नहीं जुटा पाती है। कोर्ट सही ही होगा और उसे सजा के लायक़ पर्याप्त सबूत नहीं मिल पाए होंगे, लेकिन पुलिस क्या कर रही थी? ग्यारह साल की क़ानूनी लड़ाई में वह क्या दो- चार सबूत भी नहीं जुटा पाई? … और अगर पुलिस नाकाम रही तो क़ानून में क्या उसके लिए किसी सजा का प्रावधान नहीं है? अगर नहीं है तो पुलिस तो जिसको चाहे बरी करवा सकती है और जिसे चाहे सजा दिलवा सकती है क्योंकि क़ानून तो सबूत के अलावा भावना, विचार, परिस्थिति कुछ भी देखता नहीं है! ऐसे में गरीब कहाँ जाए?

 
छावला गैंगरेप के खिलाफ दिल्ली में कई प्रदर्शन भी हुए थे। तस्वीर 2012 में हुए ऐसे ही एक प्रदर्शन की है। (सोर्स- सोशल मीडिया)

सब जानते हैं – पुलिस तो पैसे और पहुँच वालों की ही होती है फिर न्याय ग़रीबों तक कैसे पहुँचेगा। पुलिस न्याय के डंडे से कैसे बच सकती है? और जो बचती रही, तो अपराधी भी बचते रहेंगे।

कहा जाता है कि न्याय सब के लिए है और सबके लिए समान भी है, लेकिन बीच में पुलिस आ जाती है। ये पुलिस का जो आना है, यही ख़तरनाक है। सबूत छिन्न- भिन्न करना या उन्हें मिटा देना अपराधियों के बाएँ हाथ का खेल होता है। कई मामलों में तो ऐसा हो ही रहा है। पुलिस आँखें मूँदे बैठी रहती है। यह हर हाल में रुकना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो लोगों का न्याय या न्यायपालिका पर से भरोसा उठता जाएगा। वह स्थिति देश और समाज के लिए बिल्कुल ठीक नहीं होगी। इस बारे में क़ानून के जानकारों, क़ानून के निर्माताओं और जन नेताओं को भी सोचना चाहिए। न्यायपालिका पर भरोसा तभी रह पाएगा।

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