मतदाता समझता है लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव में फर्क …?
आम चुनाव में करीब डेढ़ वर्ष का समय बाकी है पर उससे पहले 2023 में जिन राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, वे हैं त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना। इसके अलावा केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में भी अगले वर्ष चुनाव की संभावना है। ऐसे में हाल ही संपन्न हुए गुजरात, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर भावी चुनावी परिदृश्य से पर्दा हटाते नजर आते हैं। यहां कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है।
निर्बाध 17 लोकसभा चुनाव और 388 विधानसभा चुनाव देख चुका भारतीय मतदाता अब इतना परिपक्व हो गया है कि वह स्थानीय, राज्य विधानसभाओं व लोकसभा चुनावों के बीच फर्क कर सके और तदनुसार स्थानीय व राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता दे।स्वतंत्रता के सात सात दशक के दौरान भाषाई पुनर्गठन के कई चरण देखे गए। प्रत्येक राज्य एक लघु लोकतंत्र है, जिसकी अपनी चुनावी विशिष्टता है। ‘अखिल भारतीय’ स्तर पर कोई सामान्य अवधारणा बनाना मुश्किल है। नौ राज्यों में अगले साल चुनाव होने हैं। इनमें से पांच बड़े राज्यों में तीन प्रमुख राज्य हिंदी पट्टी के हैं, जो लोकसभा चुनाव से ठीक पहले होंगे। इन चुनावों के आधार पर ही लोकसभा चुनावों की तस्वीर उभर कर आएगी।
गुजरात, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली निकाय चुनावों से यह स्पष्ट हो चुका है कि भाजपा, कांग्रेस और आप पार्टी की स्थिति क्या है। तीनों की क्या खूबियां और क्या खामियां हैं। पहली दो राष्ट्रीय पार्टियां गठबंधन की अगुवाई कर रही हैं। आप पार्टी को इन चुनावों में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला। हिमाचल प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान गांधी परिवार से केवल प्रियंका गांधी कुछ सभाओं में शामिल हुईं। भारत जोड़ो यात्रा निकाल रहे राहुल गांधी चुनावी राज्य गुजरात में सक्रिय नहीं हुए और न ही कोई राजनीतिक बयान दिया। पार्टी के कई दिग्गज नेताओं ने चुनावी राज्यों में जाने की बजाय राहुल के साथ कदमताल मिलाना बेहतर माना। बेरोजगारी, ईंधन व अन्य वस्तुओं के बढ़ते दाम और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पार्टी ने प्रदेश नेताओं पर छोड़ दिए।
हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी वादे निभाए, लेकिन उसे एंटी इनकम्बेंसी का सामना करना पड़ा। साथ ही उन नेताओं की नाराजगी भी झेलनी पड़ी,जिन्हें टिकट नहीं मिला। भ्रष्टाचार का मुद्दा विपक्ष व सत्तारूढ़ पार्टी दोनों में हावी रहा। बीजेपी ने पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के नेतृत्व में प्रचार कर सत्ता बदलने की परम्परा में इतनी सेंध तो लगा ही दी कि पार्टी को कांग्रेस से केवल 0.9 प्रतिशत ही कम प्रतिशत वोट मिले। प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने नाम पर वोट मांगते दिखे बजाय प्रत्याशी के। आप को काफी जल्दी यहां कांग्रेस की मजबूती का अंदाजा हो गया और उसने अपना सारा ध्यान गुजरात पर फोकस कर दिया।
कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश की ही तरह दिल्ली और गुजरात चुनाव भी प्रदेश प्रभारियों के जिम्मे छोड़ दिया। भाजपा और आप ने यहां मोदी व केजरीवाल के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा। वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री गुजरात गए और वहां विकास परियोजनाओं की घोषणा की। कांग्रेस के पास संसाधनों का भी अभाव दिखा। गुजरात और दिल्ली में पार्टी की स्थानीय इकाइयों का प्रदर्शन खास नहीं रहा। कांग्रेस की अपने पारम्परिक समर्थक समुदायों क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों पर भी पकड़ कमजोर होती जा रही है। मुसलमानों को छोड़ बाकी समुदाय बीजेपी के पक्ष में चले गए हैं। हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर का भाजपा में से चले जाना भी कांग्रेस के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। पटेल और ओबीसी वर्ग का समर्थन हाथ से फिसल गया। बड़ी संख्या में मुसलमानों व कमजोर जातियोें के वोट आप पार्टी को चले गए। बीजेपी ने 45 नए उम्मीदवार मैदान में उतारे जिनमें से 43 जीते।
दिल्ली चुनाव पूरी तरह से आप के नाम रहे। पार्टी को मुफ्त सेवाएं और सामान देने का लाभ मिला। स्कूल व चिकित्सा सुविधाएं बेहतर बनाने के नाम पर भी पार्टी ने वोट बटोरे। भाजपा और कांग्रेस दोनों के पास ऐसा कोई नेता नहीं है, जो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के बराबर लोकप्रिय हो। आप कांग्रेस की कमजोरी का फायदा उठाकर बीजेपी का विकल्प बनने की रणनीति पर चल रही है। भाजपा के लिए प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता काम आती है। फिर संघ के समर्थन के अलावा पार्टी नेतृत्व हर चुनाव जी-जान से लड़ता है, भले ही वह शहर का हो या राज्य का। उधर, कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा में मगन है, जिसके राजनीतिक मायने हैं भी तो स्पष्ट नहीं हैं।