ये भी एक दौर है, वो भी एक दौर था… जामिया में अब हर बात पर बवाल क्यों?

भरत कहते हैं कि भारत विरोधी मानसिकता वाले लोग और तरह-तरह के असमाजिक तत्व यूनिवर्सिटी के बाहर रहते हुए भी यूनिवर्सिटी के भीतर रहनेवाले छात्रों का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं.

दयारे शौक मेरा, शहरे आरजू मेरा… (यह मेरी आशा की जमीं, यह मेरे सपनों की जमीं). जामिया के तराने की शुरुआत इन लाइनों से होती हैं और जब भी यह गाया जाता तो शरीर में देशभक्ति का एक अलग ही नशा चढ़ जाता. मैंने भी करीब पांच साल तक जामिया से पढ़ाई की, जिसमें दो साल स्कूल और तीन साल यूनिवर्सिटी में गुजारे.
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कभी सीएए विरोधी आंदोलन, कभी रोहित वेमुला मामला और अब बीबीसी डॉक्यूमेंट्री के बहाने एक बार फिर जामिया में बवाल हुआ. क्या वाकई में जामिया में बदलाव आया है, इस बारे में अगर खुद लिखता तो वह मेरी राय होती, लेकिन यूनिवर्सिटी के करीब और लगातार वहां जाने वाले अपने दोस्तों से बात करके जाना कि आखिर क्या वाकई में कुछ बदलाव हुआ है.

बदला है तो सिर्फ नजरिया!

सबसे पहले अपने साथ जामिया में पढ़ने वाले एक दोस्त इरफान चौधरी से बात की, जो यूनिवर्सिटी के पास ही रहते हैं. उन्होंने साफ कहा कि आज भी कुछ नहीं बदला है और वैसे ही पढ़ाई होती है, जैसे हमारे समय में होती थी, लेकिन यूनिवर्सिटी के प्रति लोगों का नजरिया जरूर बदल गया है. यूनिवर्सिटी 1920 में बनीं थी और तभी से यहां पर सभी जाति और समुदाय के छात्र व शिक्षक हैं, जो आज भी पढ़ते और पढ़ाते हैं. यहां पर दिवाली और ईद दोनों ही त्योहार पहले की तरह मनाए जाते हैं, लेकिन कुछ लोग अपनी नेतागिरी को चमकाने के लिए विवादों को जन्म देते हैं.

इरफान ने कहा कि जामिया यूनिवर्सिटी होने के बाद भी छात्रसंघ चुनावों से दूर रहती है, क्योंकि छात्र राजनीति नहीं बल्कि पढ़ने के लिए यहां पर आते हैं. हालांकि अब कुछ छात्र दूसरे संगठनों से प्रभावित होने लगे हैं और हर बात पर आवाज उठाना अपना हक समझते हैं, जो हमारे समय में नहीं था.

तब अनुशासन नहीं तोड़ते थे छात्र

एक समय था, जब यूनिवर्सिटी का वीसी कोई आदेश जारी करता था और उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती थी, लेकिन अब इसमें जरूर बदलाव आया है. वीसी के मना करने बावजूद बीबीसी डॉक्यूमेंट्री देखने या दिखाने पर अड़ना गलत है. युवाओं को समझना होगा कि हमें कुछ ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिससे नेताओं को राजनीति करने का मौका मिले.

हालांकि इस समय यूनिवर्सिटी में कुछ छात्र ऐसे हैं, जो राजनीति चमकाने और सरकार के फैसलों का विरोध करने के लिए ही हर बात का विरोध करते हैं. जो हमारे समय में नहीं था. कई बार ऐसे तत्व छात्रों का, युवाओं का अपने राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल भी कर लेते हैं.

आसानी से बहकाए जा रहे युवा

ओखला में रहने वाले एक दूसरे दोस्त भरत से भी बात की. भरत कहते हैं, “जब हम पढ़ते थे, उस समय भी राम मुद्दा हावी था, लेकिन ऐसी कोई बात नहीं होती थी. आज के छात्र दिमाग का प्रयोग नहीं करते और उनको आसानी से बहका दिया जाता है. आज यूनिवर्सिटी के आस-पास छात्राओं को गुमराह करने वाले आसानी से देखे जा सकते हैं.” वो कहते हैं,


“पहले चाय की दुकानों पर भी पढ़ाई को लेकर बात करते थे, लेकिन अब यहां पर धर्म की बातें ज्यादा होती हैं.”


वो कहते हैं, “आज मुस्लिम युवाओं के दिमाग में यह बिठाया जा रहा है कि केंद्र सरकार उनके खिलाफ काम कर रही है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है. भरत कहते हैं कि भारत विरोधी मानसिकता वाले लोग, सामाजिक समरसता बिगाड़ने वाले लोग और तरह-तरह के असमाजिक तत्व यूनिवर्सिटी के बाहर रहते हुए भी यूनिवर्सिटी के भीतर रहनेवाले छात्रों का राजनीतिक इस्तेमाल कर लेते हैं. युवाओं को उनके बहकावे में आने से बचना चाहिए.

दोनों दोस्तों से बात करके एक बात जरूर साफ हुई कि जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार आई है, तब से मुस्लिम छात्राें को लगने लगा है कि उनके धर्म के खिलाफ कई गलत कदम उठाए जा रहे हैं, जबकि हिंदू छात्रों को लग रहा है कि पिछली सरकारों में उनकी आवाज को दबाया गया. दोनों के बीच आए इस बदलाव के कारण ही जामिया, जेएनयू और दूसरी कई यूनिवर्सिटीज में छात्रों में फूट और विरोध की खबरें सामने आती हैं.

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