हिंडनबर्ग संदिग्ध है ..!
हिंडनबर्ग संदिग्ध है। उसके ऑफिस, फोन, संस्थापकों का ब्योरा उसकी साइट पर नहीं है। आप उनसे सम्पर्क तक नहीं कर सकते
इजरायल के पूर्व विदेश मंत्री अब्बा एबान ने एक बार कहा था कि ‘फलस्तीनी किसी अवसर को गंवाने का मौका नहीं गंवाते।’ उनकी बात सही थी। 1970 के दशक में फलस्तीनियों को लेबनान की घरेलू राजनीति में उलझने के कारण वहां से निकाल बाहर कर दिया गया था।
1990 के दशक में वे कुवैत पर इराक की चढ़ाई का समर्थन करने की भूल कर बैठे और खाड़ी देशों का तिरस्कार झेला। 2000 के दशक में इजरायल से शांति-वार्ताओं के दौरान उन्होंने जरूरत से ज्यादा हठधर्मिता दिखाई और नतीजतन हमास-नियंत्रित गाजा और फताह-नियंत्रित वेस्ट बैंक में बंट गए। ताबूत में आखिरी कील 2010 के दशक में ठुंकी, जब सभी अरब मुल्कों ने इजरायल के साथ शांति के करारनामे पर दस्तखत कर दिए और फलस्तीनी-प्रश्न को लावारिस छोड़ दिया।
ऐसी ही प्रवृत्ति भारत में राहुल गांधी में भी दिखलाई देती है। मिसाल के तौर पर देखें कि राहुल ने किस तरह से अदाणी मामले को डील किया है। हिंडनबर्ग नाम की पश्चिमी कम्पनी अदाणी समूह के विरुद्ध एक नकारात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।
यह सच है कि रिपोर्ट में कई जरूरी सवाल उठाए गए हैं और अदाणी समूह ने अभी तक पूर्णतया उनका उत्तर नहीं दिया है। लेकिन यह भी याद रखें कि हिंडनबर्ग एक अत्यंत संदिग्ध संस्था है। उसकी वेबसाइट पर उसके कार्यालय, फोन नम्बरों, निवेशकों, संस्थापकों आदि का कोई वर्णन नहीं है।
आप उनसे सम्पर्क नहीं कर सकते। आपको एक फॉर्म भरना होगा, जिसके बाद वो आपसे सम्पर्क करेंगे। इतना ही नहीं, वे शॉर्टसेलर्स भी हैं, जिसका मतलब है कि वे स्टॉक्स में गिरावट के आधार पर ही अपनी मार्केट-बेट्स निश्चित करते हैं, जिससे उनका व्यवसाय हितों के टकराव वाला हो जाता है।
हिंडनबर्ग का हवाला देना केवल इस नैरेटिव को ही मजबूत करेगा कि पश्चिम हमारे विकास को अवरुद्ध करने के लिए लालायित है। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत उनकी ‘ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा’ वाली मिस्टर क्लीन की छवि है।
राहुल चाहते तो हिंडनबर्ग की रिपोर्ट का इस्तेमाल उस छवि पर बट्टा लगाने के लिए कर सकते थे। लेकिन राहुल अपनी गलतियों से सीखते नहीं। 2019 के चुनावों से पहले उन्होंने राफेल का मुद्दा उछाला था। उसमें इतनी बाल की खाल निकाली गई थी कि आम जनता को वह पल्ले ही नहीं पड़ा। भला ‘एस्केप वेलोसिटी ऑफ जुपिटर’ जैसे संदर्भों को कौन समझ सकता था? क्या राहुल अदाणी मामले में भी एक बेहतर रवैया अपना सकते थे? बिलकुल।
उन्हें सीधी-सरल भाषा में मॉरिशस के रास्ते होने वाली मनी लॉन्ड्रिंग और पार्टीगत लेनदेन का मामला उछालना चाहिए था। लेकिन वे क्रोनी कैपिटलिज्म (पूंजीवादी-मिलीभगत) का मामला लेकर बैठ गए, जबकि स्वयं कांग्रेस के शासन वाली सरकारें अदाणी के साथ बिजनेस कर रही हैं।
भारत जोड़ो यात्रा का ही उदाहरण लें। आप खुद बताएं यात्रा का हासिल क्या था? सफेद टी-शर्ट और फिटनेस? ‘जो ठंड से डरते हैं उन्हीं को ठंडी लगती है और वो ही स्वेटर पहनते हैं’ जैसे जुमले? कांग्रेस प्रवक्तागण इन्हीं बातों को उत्साह से ट्वीट करते रह गए, जिसका आईटी सेल ने उपहास उड़ाने में देर नहीं की। जब भी राहुल कोई गम्भीर बात कहने की कोशिश करते हैं, बीजेपी उसे हास्यास्पद सिद्ध कर देती है।
पूरे नौ साल विपक्ष में रहने के बाद भी राहुल अभी तक बीजेपी की इस रणनीति का तोड़ नहीं खोज पाए हैं। एक और उदाहरण लें, आज जब देश में हिंदू एकत्रीकरण की राजनीति जोरों पर है, तब कश्मीर में जाकर यह कहने की भला क्या तुक है, ‘बाहरी लोग आपकी नौकरियां हड़प रहे हैं’, जबकि वहां पर उलटे गैर-कश्मीरी स्ट्रीट-वेंडरों की हत्या की जा रही है?
कोई भी गम्भीर राजनेता भला यह कैसे कह सकता है कि वह कश्मीर में बिना सुरक्षा-व्यवस्था के पैदल चला, जबकि राहुल स्वयं दावा कर चुके थे कि अनुच्छेद 370 के उन्मूलन के बाद वहां कानून-व्यवस्था बदहाल हुई है? सवाल यही है कि राहुल आखिर कब सीखेंगे?
राहुल गांधी अदाणी मामले में एक बेहतर रवैया अपना सकते थे। उन्हें सीधी-सरल भाषा में मॉरिशस के रास्ते होने वाली मनी लॉन्ड्रिंग और पार्टीगत लेनदेन का मामला उछालना चाहिए था। लेकिन वे क्रोनी कैपिटलिज्म (पूंजीवादी-मिलीभगत) का मामला लेकर बैठ गए, जबकि स्वयं कांग्रेस के शासन वाली राज्य सरकारें अदाणी के साथ बिजनेस कर रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)