हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच क्षेत्राधिकार पर बढ़ता कंफ्यूजन चिंताजनक

बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, असमानता जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए सरकारें अनेक लुभावने आयोजन करती हैं। उसी तरीके से करोड़ों मुकदमों के बोझ और जेलों में बंद लाखों कैदियों के ज्वलंत मुद्दों को डायवर्ट करने के लिए अदालतें भी चर्चित मुद्दों पर रोजाना नई हेडलाइन बनाती हैं। पीआईएल और न्यायिक पुनरावलोकन के दुरुपयोग के बासी आरोपों के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच क्षेत्राधिकार पर बढ़ता कंफ्यूजन चिंताजनक है।

आधार पर संसद का कानून पूरे देश में लागू है। इसकी वैधानिकता और अनिवार्यता पर सुप्रीम कोर्ट ने कई बड़े फैसले दिए हैं। अब जब आधार को वोटर लिस्ट से जोड़ने का मामला सामने आया तो सुप्रीम कोर्ट ने मामले को दिल्ली हाईकोर्ट भेज दिया। दूसरी तरफ पार्टियों के फ्री के वायदों को रोकने के लिए चुनाव आयोग के अनुसार संसद से नया कानून बनना चाहिए। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट मामले पर सुनवाई जारी रखे है।

महाराष्ट्र में दल-बदल मामले पर शिंदे गुट को सुप्रीम कोर्ट ने शुरुआती राहत देकर उनकी सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया। जब सुनवाई का अगला दौर शुरू हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों पर हाईकोर्ट में सुनवाई होनी चाहिए। दूसरी तरफ नुपूर शर्मा को हाईकोर्ट जाने का निर्देश देने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने रिव्यू के बगैर दोबारा सुनवाई करके उन्हें पहली तारीख में ही राहत दे दी।

ज्ञानवापी मामले पर पूजास्थल कानून की संवैधानिक वैधता पर फैसला देने के बजाय उसे जिला अदालत के पास ही ट्रायल के लिए भेज दिया गया। दिल्ली में केंद्र सरकार के सभी ऑफिस हैं। उसके बावजूद दिल्ली हो या त्रिपुरा, सभी हाईकोर्ट का संवैधानिक दर्जा बराबर है। लेकिन अम्बानी की वीआईपी सुरक्षा से जुड़े मामले पर त्रिपुरा हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने के साथ पूरे मामले को ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने पास ट्रांसफर कर लिया।

समानांतर सुनवाई के बढ़ते ट्रेंड को संविधान के इन चार पहलुओं से समझने की जरूरत है। पहला, संविधान के तहत जनता को मूल अधिकार मिले हैं। इनके उल्लंघन पर अनुच्छेद-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में और अनुच्छेद-226 के तहत हाईकोर्ट में याचिका दायर की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट में कोई भी व्यक्ति याचिका दायर कर सकता है। लेकिन हाईकोर्ट में याचिका दायर करने के लिए उस राज्य में निवास या ऑफिस होना जरूरी है।

दिलचस्प बात यह है कि अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूरे देश में लागू होता है। लेकिन हाईकोर्ट का आदेश संबंधित राज्य या राज्यों में ही लागू होता है। दूसरा, अनुच्छेद 226 और 227 के तहत हाईकोर्ट के पास व्यापक अधिकार हैं, लेकिन संवैधानिक व्याख्या के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का दर्जा सर्वोच्च है।

सुप्रीम कोर्ट के पास इसके लिए अनुच्छेद 145 (3) के तहत पांच या ज्यादा जजों की संविधान पीठ गठित करने का अधिकार है। आधार, समान नागरिक संहिता या कृषि कानून जैसे देशव्यापी मामलों पर किसी राज्य की हाईकोर्ट फैसला कर भी दे तो मामले का निस्तारण सुप्रीम कोर्ट में ही होगा। ऐसे मामलों को हाईकोर्ट के पास भेजने से दोहरी सुनवाई का बोझ बढ़ने के साथ मामले के निपटारे में विलम्ब होता है।

तीसरा, प्रधानमंत्री पूरे देश के मुखिया होते हैं, उसके बावजूद राज्यों के मुख्यमंत्री उनके अधीन नहीं माने जाते। ऐसा ही रिश्ता सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बीच होता है। इसीलिए प्रस्तावित अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन और कार्रवाई के सीधे प्रसारण जैसे मामलों पर हाईकोर्ट के क्षेत्राधिकार पर हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट बचता है। सिविल मामलों में जिला-अदालतों के साथ हाईकोर्ट का भी क्षेत्राधिकार है।

फांसी की सजा के मामलों में हाईकोर्ट की मुहर लगना जरूरी है। उसके अलावा फौजदारी मामलों में जिला अदालतों के पास जमानत और सजा देने के पूरे अधिकार हैं। चौथा, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सालाना न्यायिक कांफ्रेंस की तर्ज पर इस 30 जुलाई को पहली बार पूरे देश के जिला जजों की कांफ्रेंस हो रही है।

इसमें यह सहमति बननी चाहिए कि देशव्यापी संवैधानिक मसलों पर सुप्रीम कोर्ट में जमानत और फौजदारी से जुड़े मामलों पर जिला अदालत और हाईकोर्ट में सुनवाई हो। संवैधानिक मामलों को हाईकोर्ट या जिला अदालत भेजने का रिवाज बढ़ने पर सुप्रीम कोर्ट अपील कोर्ट बन जाएगा, जो संवैधानिक लिहाज से ठीक नहीं है।

हर मामला अपील में सुप्रीम कोर्ट के पास जाए, यह संस्कृति गलत है। संवैधानिक मामलों को हाईकोर्ट या जिला अदालत भेजने का रिवाज बढ़ने पर सुप्रीम कोर्ट अपील कोर्ट बन जाएगा, जो ठीक नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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