अब अप्रत्यक्ष नहीं अदृश्य प्लास्टिक के आघात ..!

विश्व पर्यावरण दिवस: सुगमता और सुविधाजनक जीवन का आधार बनना प्लास्टिक से मुक्ति के मार्ग की बाधा …

भारत में वर्ष 2014 में स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के साथ ‘प्लास्टिक से मुक्ति’ के लिए जंग छेड़ दी गई है। पर इसमें अभी भी समग्रता की नितांत आवश्यकता है। इसे ‘न रहेगा बांस और न रहेगी बांसुरी’ वाली कहावत के अनुरूप प्लास्टिक उन्मूलन लक्षित प्रयासों में तब्दील करना होगा।

आज विश्व में पर्यावरण दिवस पर गहरी चिंता प्लास्टिक और उसके दुष्प्रभाव को लेकर है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने भी मानवता को नुकसान पहुंचा रहे प्लास्टिक को केंद्र में रखते हुए इस वर्ष का ध्येय ‘बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन’ यानी प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को हराने का रखा है। दरअसल, सुगमता और सुविधाजनक जीवन का आधार बनना प्लास्टिक से मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा के रूप में स्थापित हुआ है।

प्लास्टिक को हराने के वर्तमान में किए जा रहे प्रयास अधिकांशतया प्लास्टिक को हटाने या उससे दूरी बनाने तक ही केंद्रित हैं, जबकि नए उपज रहे संकट और उससे जीव व मानव प्रजाति को प्रत्यक्ष तौर पर आघात आकलन से परे है। आमजन इस खतरे को महसूस करने की स्थिति में ही नहीं है। उसे अहसास ही नहीं है कि सम्पूर्ण वातावरण चाहे वह घर के अंदर हो या बाहर, समुद्र में हो या खेत में, इंसान हो या अन्य प्राणी, सभी के अंदर प्लास्टिक के अंश ‘माइक्रो प्लास्टिक’ के रूप में अपनी जगह बना रहे हैं। पांच मिलीमीटर से छोटे प्लास्टिक के कण अदृश्य ढंग से हर ओर हमला कर रहे हैं। पेरिस में हुए एक अध्ययन के अनुसार बाहरी वातावरण के लगभग 94% और घर के अंदर के 63% नमूनों में सूक्ष्म प्लास्टिक कण पाए गए हैं। प्रत्यक्षत: ये कण श्वसन प्रक्रिया को बाधित तो करते ही हैं, अपने साथ विषैले पदार्थ एवं प्रदूषणकारी तत्व भी शरीर तक पहुंचा देते हैं। इसकी विभीषिका का पैमाना तो यह है कि हर वर्ष हमारे महासागरों में लगभग डेढ़ करोड़ टन प्लास्टिक जाता है, जिसमें भी सूक्ष्म कणों की मात्रा अधिकतम होती है। जो मोटा प्लास्टिक वातावरण में रहता है, पानी एवं हवा के निरंतर सम्पर्क से सूक्ष्म कणों में विभक्त हो जाता है। यांत्रिकी एवं रासायनिक प्रक्रिया के माध्यम से भी सूक्ष्मकणों का सृजन होता रहता है।

हाल के वर्षों में प्लास्टिक के धागों से कपड़ों के निर्माण में अनेक प्रकल्प प्रारम्भ हो रहे हैं। वैज्ञानिक शोध के अनुसार ऐसे कपड़ों की धुलाई की प्रक्रिया मात्र से सूक्ष्म प्लास्टिक कण जलप्रवाह एवं वातावरण में आ जाते हैं और सम्पर्क में आने वाली पारिस्थितिकी को अपने दुष्प्रभाव की चपेट में ले लेते हैं। अत: प्लास्टिक अवयव का वस्त्र निर्माण में उपयोग एक समय विशेष के लिए समस्या को आगे धकेलने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसी प्रकार प्लास्टिक के सड़क निर्माण में उपयोग पर भी काफी जोर दिया जा रहा है और इसे भी प्लास्टिक के खतरों से निजात पान के सशक्त माध्यम के रूप में स्थापित करने के प्रयास हो रहे हैं। वास्तविकता इसकी भी कुछ और है। अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि प्लास्टिक के उपयोग से निर्मित सड़कें भी सूक्ष्म प्लास्टिक कणों के सृजन का सशक्त माध्यम बन रही हैं। टायरों के सड़कों पर घर्षण से ये सूक्ष्म कण पैदा होते हैं, जो टायर के रबर अवयव से जुड़कर वातावरण में प्रवाहित होने लगते हैं। हमारे खेत भी प्लास्टिक के सूक्ष्म कणों से अछूते नहीं हैं। शोध के अनुसार खेत की मिट्टी में भी लगभग 250 कण प्रति किग्रा. की दर से पाए जाते हैं। यह फसल के माध्यम से एवं मुक्तवातावरण में विचरण करते हुए शरीर तक का रास्ता पा लाते हैं। समुद्री खाद्य पर निर्भर व्यक्तियों की स्थिति तो और भी विकट है। तीन चौथाई से अधिक मछलियों व जल या समुद्री खाद्य में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पाए जाते हैं।

रीसाइक्लिंग, अपसाइक्लिंग, को-प्रोसेसिंग जैसे शब्दों के सहारे प्लास्टिक से मुक्ति की राह लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएगी। अनेकानेक स्थलों पर को-प्रोसेसिंग पद्धति के माध्यम से सीमेंट, स्टील या ऊर्जा जैसे उद्योगों में प्लास्टिक को जलाने का कार्य वैधानिक रूप से किया जा रहा है, मानो कि प्लास्टिक की समस्या को ही जला दिया जा रहा हो। यह खुले में कचरा जलाने की विकृति का उन्नत स्वरूप ही है। इसके प्रभाव का आकलन उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों एवं आसपास की आबादी में किया जाना चाहिए। प्लास्टिक को हराने के प्रयासों की दिशा को ‘उपयोग कम करने या नहीं करने’ के लक्ष्य के साथ-साथ इसके निर्माण एवं विनिर्माण को सीमित अथवा नगण्य करने की ओर लक्षित करना ही होगा।

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