दोषियों की रिहाई से जुड़े हालिया फैसलों पर जजों के साथ नेताओं को मंथन करने की जरूरत है
दिल्ली में श्रद्धा की लाश के सारे टुकड़े मिल भी जाएं तो क्या उसके लिव-इन-पार्टनर आफताब को फांसी होगी? सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों पर निगाह डालें तो इसका जवाब ना भी हो सकता है। निर्भया कांड से देशव्यापी गुस्से के बाद कानून में बदलाव होने के साथ दोषियों को फांसी भी हो गई। लेकिन छावला गैंगरेप कांड में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए तीनों दोषियों को रिहा कर दिया।
कोर्ट के अनुसार अपराध की सारी कड़ियों और सबूतों को पुलिस जांच में नहीं जोड़ने पर आरोपी को संदेह का लाभ मिलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को नजीर माना जाए तो शायद ही किसी अपराधी को सजा मिल पाएगी? श्रद्धानंद ने 600 करोड़ की संपत्ति हासिल करने के लिए अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व प्रधानमंत्री समेत 16 हत्याओं के दोषियों के अपराधियों की रिहाई करने का फैसला दिया है। श्रद्धानंद ने दिलचस्प तर्क देते हुए कहा कि उन्होंने सिर्फ एक हत्या की थी और जेल में उनका चाल चलन भी अच्छा है। इसलिए अब उनकी भी रिहाई होनी चाहिए।
अपराधियों के बरी होने से संविधान का शासन भी डगमगाता है। अगर मानवतावादी नजरिये से अपराधियों की रिहाई सही है, तो उसी समानता के भाव से लाखों गरीबों को भी रिहाई का फायदा मिलना चाहिए।
जीव हत्याकांड में घायल हुई महिला पुलिस अधिकारी ने सवाल करते हुए कहा है कि अपराधियों की रिहाई पीड़ित परिवारजनों के साथ बहुत नाइंसाफी है। हालांकि अब जाकर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की है। संगीन आपराधिक मामलों में आरोपियों की रिहाई से पुलिस के मनोबल के साथ सामाजिक व्यवस्था का ढांचा चरमरा रहा है। इसके कई बिन्दुओं पर मंथन करने की जरूरत है-
1. जजों को सामंती मानसिकता से मुक्त कराने के साथ नए चीफ जस्टिस चन्द्रचूड़ ने न्यायिक व्यवस्था को उत्पीड़न का माध्यम नहीं बनाने की बात कही है। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के अनुसार आजीवन कारावास के दोषियों को पूरी जिंदगी सलाखों के पीछे गुजारना पड़ेगा। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश से जुड़े अपराधियों की फांसी की सजा को सुप्रीम कोर्ट के जजों ने सन 1999 में कन्फर्म किया था। अब अनुच्छेद-142 की विशिष्ट शक्तियों के इस्तेमाल से अपराधियों की रिहाई करने से संवैधानिक व्यवस्था कमजोर ही हुई है।
2. राजीव गांधी की हत्या सुनियोजित साजिश का परिणाम थी। नेताओं के सहयोग से कानून की बारीक सीढ़ियों का इस्तेमाल करके दोषियों ने 30 साल बाद रिहाई हासिल करके अदालती सिस्टम को तमाशा बना दिया है। इस खेल में अदालतों के साथ नेताओं का समर्थन अहम है। कांग्रेस ने आरोपियों की रिहाई का औपचारिक विरोध किया, लेकिन दक्षिण के राज्यों में वोट के लिए कांग्रेसी नेता द्रमुक के साथ गलबहियें कर रहे हैं। अपराध-राजनीति के इस गाढ़े रिश्ते को मुखर स्वर देते हुए अकाली नेताओं ने जेलों में बंद आतंकियों की रिहाई की बात शुरू कर दी है।
3. निर्भया मामले में क्षमा याचिका के प्रावधानों के दुरुपयोग के बाद पूरे देश में गुस्से का माहौल बन गया था। लेकिन सियासी मामलों में हो रही रिहाई के खिलाफ इंडिया गेट में कोई कैंडल मार्च नहीं हो रहा। केन्द्र और राज्य के बीच रिश्तों के साथ राज्यपाल के क्षमा याचना के अधिकारों के इस्तेमाल का बड़ा मसला भी इन फैसलों से उभरता है। बिलकिस बानो मामले में दोषियों की रिहाई गलत है, फिर भी उसमे गुजरात सरकार ने केन्द्र सरकार की सहमति ली। जबकि पूर्व प्रधानमंत्री हत्या के मामले को तमिलनाडु राज्य का मानने से राज्यों में सियासी हितों के लिए राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करने का चलन बढ़ सकता है।
4. राजीव हत्याकांड के दोषियों की दया याचिका पर समय पर फैसला नहीं होने को आधार मानकर क्या कोर्ट ने फांसी की सजा काे आजीवन कारावास और उसके बाद रिहाई में बदलकर गलत परंपरा तो स्थापित नहीं कर दी है? पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की 1995 में हत्या हुई थी। उनके हत्यारे को अभी तक फांसी नहीं हुई। उसकी क्षमा याचिका पर हो रहे विलम्ब को आधार मानकर कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा है। इतिहास गवाह है कि राजीव गांधी जैसे फैसले अगर अपवाद की बजाए नजीर बन जाएं तो संवैधानिक व्यवस्था संकट में पड़ सकती है।
5. छोटे अपराधों के लिए सख्त कानून के साथ छुटभैयों को बुल्डोजर से डराने की जबरदस्त सियासत चल रही है। दूसरी तरफ जघन्य अपराध से जुड़े सजायाफ्ता लोगों की रिहाई सरकार, कानून के दोहरे रवैये को दर्शाता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)