फंसो फंसो जल्दी फंसो ..!

यह व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें हर अवस्था का व्यक्ति फंसा पड़ा है। व्यक्ति फंस रहा है फिर भी हंस रहा है। उसने फंसने को ही नियति मान लिया है। यहां नहीं तो वहां फंसेगा। यह नहीं तो वह फंसाएगा। इसलिए फंसते रहो और आगे बढ़ते रहो।

सवाल है कि हमें फंसा कौन रहा है? जो हमें बचाने का वचन देता है वही फंसा देता है। जो बचा रहा है वही फंसा रहा है। बचाव में ही फंसाव निहित है। कहा जा रहा था कि बाजार फंसा रहा है। लोगों ने डर के मारे बाजार जाना कम कर दिया। बाजार ने तब से घर में आना ज्यादा कर दिया। अब धड़ल्ले से बाजार घर में घुसा चला आ रहा है। जो बाजार में फंस जाते थे वे घर बैठे ही फंस रहे हैं। इस तंत्र में सुरक्षा का हर मंत्र बेअसर हो गया है। घर में घुसा हुआ बाजार बाहें फैलाकर बुला रहा है: जल्दी फंसो और चलते बनो ताकि दूसरों को मौका मिल सके। प्राणी फंस रहा है, फिर भी खुश हो रहा है। ऐसा लगता है कि व्यक्ति फंसने के लिए ही बना है। फंसे बिना उसकी मुक्ति संभव नहीं है। जो सदा दूसरों को फंसाने में लगा रहता है वह भी कहीं न कहीं फंसा हुआ रहता है। इसलिए बात साफ है कि फंसना ही जीवन है और फांसना, फंसाना ही संसार है।

याद रहे कि न फंसने की कोई सीमा है, न फंसाने की कोई मर्यादा। जो दीवारें किसी काम की नहीं, वे भी लोगों को फंसाने का काम करती नजर आती हैं। फंसाने वालों के चेहरे बड़े विनम्र, शालीन, दयालु एवं आकर्षक होते हैं। हाथ जोड़ कर खड़ा व्यक्ति फंसाने में माहिर होता है। यह जानने के बावजूद लोग फंसने के इतने आदी हो चुके हैं कि बिना फंसे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं है। फंसने के बाद ही उनके आंख-कान खुल पाते हैं। अब तो दूर से व्यक्ति को फंसाने की तरकीबें चल निकली हैं। निकट जाने की जरूरत ही नहीं। इन तरकीबों का नतीजा ही तो हैं साइबर अपराध। जो कभी न फंसने का प्रण ले चुके, वे भी बार-बार फंसकर शर्मिंदा हुए जा रहे हैं। अब हर स्थिति में एक फंसा हुआ प्राणी हो गया है मनुष्य, जो फंसने के लिए ही बना है। इसमें कोई शक नहीं।

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