राज्यों का बढ़ता कर्ज बना मुसीबत ..?
केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण राज्यों की वित्तीय अनुशासनहीनता से बढ़ा …
जब मुफ्त में कुछ दिया जाता है, तो इसके लिए जिम्मेदार राजनेता ‘कल्याणकारी राज्य’ के नाम पर इसे औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश करते हैं, जबकि इसके लाभार्थी शायद ही इसका विरोध करेंगे। इस चलन को नहीं रोका गया, तो देश कर्ज के भंवर में फंस सकता है।
कांग्रेस ने एक बार फिर मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है कि मोदी काल में देश पर कर्ज बढ़ गया है। लेकिन, यह बात एकदम सही नहीं है। वास्तविकता यह है कि वर्ष 2013-14 में केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी का 52.2 प्रतिशत था। आज 2022-23 में यह जीडीपी के लगभग 56 प्रतिशत के बराबर है। वर्ष 2018-19 के दौरान तो केंद्र सरकार का कुल कर्ज और देनदारियां जीडीपी का महज 48 फीसदी ही रह गई थीं। दरअसल, नरेंद्र मोदी सरकार के पहले 5 साल में जीडीपी के अनुपात में केंद्र सरकार का कर्ज 4.2 फीसदी कम हुआ। कोरोना काल में केंद्र सरकार का कर्ज बढ़ गया। भारत की जीडीपी में विकास की बजाय संकुचन हुआ और लोगों को चिकित्सा सहायता, कोरोना टीकाकरण, ऋण चुकाने में छूट, विभिन्न प्रकार की सहायता आदि उपायों को अपनाना सरकार के लिए आवश्यक हो गया। यही वजह है कि मार्च 2023 में खुद कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने भी माना था कि केंद्र सरकार का पूरा फोकस राजकोषीय घाटे और कर्ज के प्रबंधन पर है और इसका श्रेय केंद्र सरकार को दिया जाना चाहिए।
चिंताजनक हैं राज्य सरकारों के कर्ज
केंद्र सरकार के राजकोषीय अनुशासन ने केंद्र सरकार के ऋण को सीमा के भीतर रखा है। इसके लिए उसे अपने कट्टर विरोधियों से भी प्रशंसा मिलती है, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण बढ़ता जा रहा है। इसका मुख्य कारण राज्य सरकारों की वित्तीय अनुशासनहीनता है। गौरतलब है कि 2013-14 में जहां राज्य सरकारों का कुल कर्ज और देनदारी जीडीपी का महज 22 फीसदी था, वहीं साल 2018-19 तक (कोरोना से पहले) यह 25.33 फीसदी पर पहुंच गया और 2021-22 में यह बढ़कर जीडीपी के 31.05 फीसदी तक पहुंच गया। यह वाकई चिंताजनक है।
जहां राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम के अनुसार, राज्य सरकारों का ऋण और देनदारियां राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए, तो भी यह 2020-21 तक पंजाब में 48.98 फीसदी, राजस्थान में 42.37 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 37.39 फीसदी, बिहार में 36.73 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 35.30 फीसदी और मध्य प्रदेश में 31.53 फीसदी पहुंच गया। कैग का कहना है कि अगर राज्य सरकारों के उद्यमों के कर्ज और राज्य सरकारों की गारंटी को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह ऋण कहीं ज्यादा पहुंच जाएगा। आज केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण सकल घरेलू उत्पाद का 84 प्रतिशत बताया जा रहा है, लेकिन वास्तविक रूप से यह उससे कहीं ज्यादा है।
क्यों बढ़ रहा है राज्यों का कर्ज
केंद्र सरकार द्वारा गरीबों के लिए 3 करोड़ घर बनाने में सहयोग, कोरोना काल से अब तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज, कृषि भूमि वाले सभी किसानों को किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत के तहत करोड़ों लोगों का 5 लाख रुपए तक का मुफ्त इलाज, बुनियादी ढांचे के निर्माण पर भारी खर्च, औद्योगिक उत्पादन को गति देने के लिए लगभग 3 लाख करोड़ रुपए के उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन, कोरोना के दौरान तमाम तरह की राहत और प्रोत्साहन के साथ-साथ पूरी आबादी के टीकाकरण के भारी खर्च के बावजूद केंद्र सरकार का ऋण सीमा के भीतर है, जबकि कई राज्य सरकारें राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने में विफल रही हैं। रिजर्व बैंक के अनुसार पंजाब में 45.5 फीसदी कर राजस्व मुफ्त की योजनाओं में जाता है, जबकि आंध्र प्रदेश में यह खर्च 30.3 फीसदी है। आजकल कई राज्यों में अमीर और गरीब सभी को 100 से 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और महिलाओं के लिए सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त यात्रा जैसी योजनाओं की बाढ़ सी आ गई है।
मंडराते बड़े खतरे
गौरतलब है कि जब अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां देश में कुल कर्ज का लेखा-जोखा लेती हैं, तो उसमें न सिर्फ केंद्र सरकार का कर्ज, बल्कि राज्य सरकारों का कर्ज भी शामिल होता है। ऐसे में देश में जीडीपी के अनुपात में ‘समग्र सरकारी कर्ज’ में लगातार हो रहा इजाफा चिंता का सबब बनता जा रहा है। हाल ही में ‘मूडीज’ नाम की अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने उच्च सरकारी ऋण और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए राजकोषीय फिसलन के जोखिम को चिह्नित किया है, जो अवक्रमित रैंकिंग का कारण बन सकता है। यह अन्य बातों के अलावा, विदेशों में भारतीय कंपनियों के लिए उधार लेने की लागत को प्रभावित करता है। इस तरह की डाउनग्रेडिंग से हमारी विकास क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
रोकना होगा मुफ्त का चलन
जब मुफ्त में कुछ दिया जाता है, तो इसके लिए जिम्मेदार राजनेता ‘कल्याणकारी राज्य’ के नाम पर इसे औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश करते हैं, जबकि इसके लाभार्थी शायद ही इसका विरोध करेंगे। लेकिन इस चलन को नहीं रोका गया, तो देश कर्ज के भंवर में फंस सकता है। वेनेजुएला, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि कई देशों का हाल सभी ने देखा है। भारत वित्तीय कुप्रबंधन का शिकार न बने, इसे सुनिश्चित करना होगा।