वास्तविकता पर पर्दा डालने का प्रयास, इतिहास जानना हमारा अधिकार ?
न्यायमूर्तियों ने इस मुद्दे पर एएसआइ आदि संस्थाओं का सहयोग लिया है लेकिन पूजा स्थल अधिनियम ने यह संवैधानिक मार्ग भी बंद कर दिया है। हिंदुओं की भावना को गहराई से समझना चाहिए। मंदिर ध्वस्तीकरण राष्ट्रीय स्वाभिमान को रौंदने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। कोई भी सजग राष्ट्र ऐसे राष्ट्रीय अपमान को कैसे भूल सकता है। आखिर देश को नीचा दिखाने के आपराधिक कृत्य का प्रतिकार क्या है?
….भारत के मन में मंदिरों के प्रति प्राचीन काल से ही श्रद्धा भाव है, लेकिन ऐसे सैकड़ों मंदिर मध्यकाल में ध्वस्त किए गए। ध्वस्त मंदिरों की सामग्री से मस्जिदें बनाई गईं। ऐसे ध्वस्त मंदिर भारत के मन में घाव की तरह रिसते हैं। मूलभूत प्रश्न है कि जिन विदेशी आक्रांताओं ने मंदिरों पर मस्जिदें बनाईं, क्या उनके सामने जगह का अभाव था?
यह एक तथ्य है कि भारत में अनेक मस्जिदें मंदिरों को तोड़कर ही बनाई गई हैं। राम मंदिर के लिए छिड़ा अयोध्या आंदोलन यूरोप के पुनर्जागरण जैसा था। इसी दौरान कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने देश के सभी उपासना स्थलों के लिए ‘प्लेसेज आफ वरशिप एक्ट 1991’ पारित किया। इस अधिनियम में व्यवस्था है कि अयोध्या को छोड़कर देश के सारे उपासना स्थल 1947 की यथास्थिति में रहेंगे।
हिंदुओं से तत्कालीन सरकार की अपेक्षा थी कि वे मंदिर तोड़कर बनाए गए उपासना स्थलों को देखकर भी शांत रहें, मंदिर तोड़कर बनी मस्जिदों को भी स्वीकार करें और मंदिर ध्वंस के राष्ट्रीय अपमान को भी भूल जाएं। वे ढहाए गए उपासना स्थल देखकर भी चुप रहें। राष्ट्रीय स्वाभिमान त्याग दें और मौलिक अधिकारों को भी अतिक्रमित करने वाला उपासना स्थल कानून स्वीकार कर लें। अधिनियम का भाव है कि हिंदू ध्वंस मंदिरों और अत्याचारों को भूल जाएं। मंदिर और उपासना का इतिहास 1947 से शुरू करें। अधिनियम की संवैधानिकता सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है।
हिंदू उपासना स्थलों को ध्वंस करने और उन्हीं स्थानों पर इस्लामी उपासना स्थल बनाने का लक्ष्य दरअसल बहुसंख्यकों को नीचा दिखाना था। तैमूर का कहना था कि हमलों का मकसद हिंदुस्तान को झूठी आस्था और बहुदेववाद से मुक्त कराना है और इसके लिए मंदिरों को नष्ट करना जरूरी है। ऐसा कृत्य किसी एक जगह नहीं हुआ। अयोध्या, काशी, मथुरा और सोमनाथ राष्ट्रीय चर्चा में रहते हैं, लेकिन ऐसे अपमानजनक कृत्य सैकड़ों मंदिरों में हुए।
हिंदू अस्मिता एवं आस्था को नष्ट करने के कारण बहुत गंभीर हैं। वे हिंदुओं को बहुदेववादी कहते हैं। वे बहुदेववाद और मूर्ति पूजा समाप्त करने के लिए मंदिर ध्वस्तीकरण करते हैं। दिल्ली में कई हिंदू उपासना स्थलों को तोड़कर बनी ‘कुव्वत उल इस्लाम’ मस्जिद के नाम में ही इस्लाम की ताकत का उल्लेख है। ऐसी सारी घटनाएं हिंदू मन में अपमान का भाव पैदा करती हैं। मंदिर ध्वंस के अत्याचारों को हिंदू भूल नहीं सकते।
उत्तर प्रदेश के संभल दंगे की जांच कर रही वरिष्ठ अधिकारियों की टीम को वर्षों पुराना बंद पड़ा प्राचीन मंदिर मिला है। ऐसी घटनाएं हिंदू मन को आहत करती हैं। देश की राष्ट्रीय अस्मिता को अपमानित करने वाले चिह्नित होने चाहिए। बेशक मंदिर ध्वस्त करने वाले लोग और शासक अब जीवित नहीं और हम उन्हें उनके कृत्यों के लिए दंडित नहीं कर सकते, मगर आखिर इसका क्या औचित्य कि हिंदू अपनी मांग के लिए उचित संस्थाओं को प्रार्थना पत्र भी नहीं दे सकते?
राष्ट्रीय अपमान के कारणों एवं गुनहगारों को जानना हर नागरिक का अधिकार है। यह अधिनियम 1947 से पूर्व उपासना स्थलों की जानकारी वर्जित करता है, जबकि इतिहास जानना हमारा अधिकार है। इतिहासबोध से राष्ट्र शक्तिशाली रहते हैं। जीवंत राष्ट्र इतिहास से सीखते हैं, मगर यह अधिनियम 1947 से पूर्व सांस्कृतिक राष्ट्रभाव की चर्चा सीमित करता है। यह इतिहास के प्रवाह की उपेक्षा है।
अधिनियम पारण की हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार विधेयक सदन में रखने के साथ उसके उद्देश्य का विवरण भी दिया जाता है कि सरकार विधेयक क्यों लाई? उपासना स्थल अधि. के संदर्भ में भी सरकार की ओर से उद्देश्य एवं कारण बताए गए। कहा गया था कि पूजा स्थलों के परिवर्तन के संबंध में अक्सर उत्पन्न होने वाले विवादों को देखते हुए यह अनुभव किया गया है कि ऐसे परिवर्तनों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
अधिनियम में किसी उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने की बात महत्वपूर्ण है। अपना धार्मिक क्षेत्र बनाए रखना प्रत्येक मजहब, पंथ का अधिकार है। उपासना स्थलों का धार्मिक चरित्र बदलने का काम हिंदुओं ने कभी नहीं किया, लेकिन विदेशी हमलावरों ने हिंसा के बल पर उपासना स्थलों का चरित्र ही नहीं बदला, उनका ध्वस्तीकरण भी किया।
मंदिर भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की अभिव्यक्ति हैं। मंदिरों की अपनी उपयोगिता रही है। मंदिरों में चिकित्सा और शिक्षा के लिए चिकित्सालय और पाठशालाएं भी थीं। हिंदुओं ने कभी किसी देश पर हमला नहीं किया और न ही मतांतरण कराया, मगर मध्यकाल के विदेशी हमलावरों ने पूरी सभ्यता को उखाड़ फेंकने का अभियान चलाया। नोबेल पुरस्कृत वीएस नायपाल ने भारत के लिए ‘इंडिया द वुंडेड सिविलाइजेशन (भारत एक घायल सभ्यता)’ शब्द का प्रयोग ठीक ही किया था।
हिंदुओं के उपासना स्थल निराले हैं। मंदिर हिंदू दर्शन की प्रतिमा हैं। दुनिया के अनेक देशों में हिंदू मंदिर हैं। राष्ट्रगीत वंदे मातरम् में भारत माता के लिए असीम श्रद्धा व्यक्त की गई है और भारत माता की प्रतिमा को मंदिर में विराजमान बताया है-‘तोमारेई प्रतिमा गडि मंदिरे मंदिरे।’ मंदिर ध्वंस के मामलों में हिंदू पक्ष ने कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की। वे हरेक मामले को लेकर संवैधानिक संस्थाओं के पास जाते रहे हैं।
न्यायमूर्तियों ने इस मुद्दे पर एएसआइ आदि संस्थाओं का सहयोग लिया है, लेकिन पूजा स्थल अधिनियम ने यह संवैधानिक मार्ग भी बंद कर दिया है। हिंदुओं की भावना को गहराई से समझना चाहिए। मंदिर ध्वस्तीकरण राष्ट्रीय स्वाभिमान को रौंदने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। कोई भी सजग राष्ट्र ऐसे राष्ट्रीय अपमान को कैसे भूल सकता है।
रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है, ‘देश की सुरक्षा और खुशहाली किसी भी शासन के लिए गौरव का कार्य है, किंतु मुस्लिम इतिहासकारों ने अधिक प्रशंसा उन सुल्तानों और गाजियों की लिखी है, जिन्होंने अधिक से अधिक मंदिर तोड़े।’ कई इतिहास लेखक भी मंदिर ध्वंस की घटनाओं का उल्लेख नहीं करते।
कथित सेक्युलर मध्यकाल की हिंदू उत्पीड़न एवं मंदिर ध्वंस की कार्यवाही को भूल जाने का उपदेश देते हैं। राष्ट्र को यह जानने का अधिकार है कि उस बर्बर कालखंड में भारतीय राष्ट्रभाव के साथ क्या हुआ? आखिर देश को नीचा दिखाने के आपराधिक कृत्य का प्रतिकार क्या है?
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)