मखदूम मास्टर्स इन सोशल वर्क थे। उन पर पत्नी द्वारा दहेज का झूठा आरोप लगाया गया। उन्हें जेल जाना पड़ा और अपने बेटे से दूर होना पड़ा। उन्होंने न्यायालय में लड़ाई लड़ने की कोशिश की, लेकिन जब समझ आया कि कानून बिल्कुल एकतरफा है तो उम्मीद छोड़ दी।

इस समय देश ऐसी ही एक और आत्महत्या देखकर रो रहा है। पत्नी से प्रताड़ित होकर बेंगलुरु में आत्महत्या करने वाले अतुल सुभाष के सुसाइड वीडियो और 24 पन्नों के नोट ने देश को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर महिलाओं के संरक्षण के उपाय पुरुषों की जान क्यों ले रहे हैं? न्याय प्रणाली इतनी एकतरफा कैसे हो गई कि आदमी जान दे दे रहा है? उन कानूनों का धड़ल्ले से मजाक क्यों उड़ाया जा रहा, जो महिलाओं के संरक्षण के लिए लाए गए और कैसे महिलाओं ने ही इन कानूनों को उगाही का जरिया बना लिया है?

यह किसी से छिपा नहीं रह सका है कि झूठे मुकदमों की सूची अंतहीन रूप से लंबी होती जा रही है। पूरे के पूरे परिवार को दहेज के झूठे केस में फंसा देना, आपसी विवाद में दुष्कर्म का आरोप लगा देना, बायफ्रेंड से ब्रेकअप पर शादी का झांसा देकर शोषण का आरोप लगाना, लड़ाई हो जाए तो छेड़छाड़ बता देना, बास नौकरी से निकाल दे तो सेक्सुअल हैरेसमेंट बताना, बच्चे की कस्टडी हथियाने के लिए पिता पर ही पोक्सो लगाना अब आम हो गया है।

अनगिनत उदाहरण हैं, जो लोग अपने आसपास देख रहे हैं। विडंबना यह है कि पुलिस सब कुछ जानते हुए भी झूठे मामलों को रद नहीं करती। लंबे ट्रायल के बाद जब कभी न्यायालय पुरुष को निर्दोष करार कर देते हैं तो भी महिलाओं को हर्जाना भरने को नहीं कहते। यह कैसा न्याय है?

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल में एक पति के खिलाफ पत्नी द्वारा लगाए गए मुकदमे को रद कर दिया। प्रेम विवाह के बाद एक साल चली इस शादी में पति तलाक की अर्जी लगाता है। इससे पत्नी इतनी आक्रोशित हो जाती है कि न केवल 498 ए और दहेज का झूठा आरोप लगाती है, बल्कि ससुर पर दुष्कर्म और देवर पर छेड़छाड़ का झूठा मामला भी दर्ज कराती है।

परिवार के सभी लोगों को लपेटते हुए 11 धाराएं लगाई जाती हैं। न्यायालय इन सबको सिरे से झूठा कहकर केस रद कर देता है, लेकिन महिला को हजार रुपये तक का भी हर्जाना भरने को नहीं कहा जाता। सोचिए अगर कोई पुरुष ऐसा झूठा मामला बनाता तो उसे कितनी घृणा और सजा मिलती। उक्त मामले में महिला को कोई सजा नहीं मिली।

अब यह आम बात हो गई है कि झूठे केस लगाओ और पैसे उगाहो। यही बात अतुल ने भी अपने अंतिम शब्दों में कही। उन्होंने यह भी कहा था कि वह अपनी ही कमाई अपनी बर्बादी के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा। ऐसा नहीं है कि यह पहली दफा है कि किसी पुरुष ने आत्महत्या कर ली और कोहराम मच गया। न जाने कितने अतुल सुभाष मर चुके हैं।

लाखों परिवार तबाह हो चुके हैं, लेकिन समाज दशकों से यह देखते हुए भी चुप रहा, क्योंकि पुरुषों के हित की बात भी महिलाओं के खिलाफ समझी जाती है और फेमिनिज्म और नारीवाद के जमाने में कोई आवाज नहीं उठाना चाहता। अब अतुल सुभाष की आत्महत्या ने लोगों को प्रश्न पूछने पर मजबूर कर दिया है। उनकी आत्महत्या ने देश में वैसी लौ जला दी है, जैसी निर्भया के समय महिलाओं के न्याय और सम्मान के लिए जली थी।

लोग कानून में बदलाव की मांग कर रहे हैं, लेकिन इसके बहुत आसार नहीं कि झूठे मुकदमों के सिलसिले को थामने के कोई ठोस जतन होंगे। क्या एक पुरुष की जिंदगी की हमारे देश में कोई कीमत नहीं? जितना उबाल अतुल सुभाष के केस को लेकर है, उतना अगर किसी महिला की मृत्यु पर होता तो संसद में महिला सुरक्षा पर सौ सवाल उठ रहे होते और कानून की कमियों पर चर्चा हो रही होती।

मुझे पुरुषों के ऊपर होते अन्याय को उजागर करते हुए एक दशक से अधिक समय हो चुका है। मुझे बहुत उम्मीद नहीं है हमारे सिस्टम से, लेकिन मैं आम लोगों से यह कहना चाहूंगी कि वे अतुल की मृत्यु व्यर्थ न होने दें। हर किसी को प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, कानून मंत्री को संदेश देना चाहिए कि अब बदलाव की जरूरत है।

कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं, बल्कि सिर्फ एक पहल। मेरे हिसाब से पहल एक कमेटी बनाने से की जा सकती है। जैसे जस्टिस वर्मा कमेटी निर्भया कांड के समय बनी थी, वैसी ही अब महिला संरक्षण कानूनों के दुरुपयोग और पुरुषों के ऊपर बढ़ती ज्यादतियों को देखने और समझने के लिए बननी चाहिए। कमेटी पूरे देश से सुझाव मांग सकती है। उसे महिला संरक्षण के कानूनों के दुरुपयोग के आंकड़े गहनता से देखने चाहिए। इसके बाद जरूरी बदलाव के कदम उठाए जाने चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में 498 ए के दुरुपयोग को कानूनी आतंकवाद कहा था। दो दशक बीत चुके हैं, लेकिन कानूनी आतंकवाद अब भी कायम है। इससे पहले और कोई अतुल सुभाष अपनी जान दें, इस आतंकवाद को रोका जाए। अतुल के जान देने के बाद से लगभग आठ ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें पत्नी या बहू की प्रताड़ना से त्रस्त लोगों ने जान दी है। इन लोगों की मौतों को सरकार को देखना चाहिए, क्योंकि ये भी देश के ही नागरिक थे।

(लेखिका डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर और एकम न्याय फाउंडेशन की निदेशक हैं)