इंदौर । राजनीति सपने दिखाती है, गढ़ती है और पलभर में तोड़ भी देती है। गहरी नींद में सियासी ख्वाब सबसे ज्यादा तभी आते हैं, जब चुनाव नजदीक होते हैं। जाहिर है कि ख्वाब ज्यादा आएंगे तो टूटेंगे भी ज्यादा ही। ऐसा ही कुछ इन दिनों मालवा-निमाड़ के कुछ विधायकों और दावेदारों के साथ हो रहा है। बीते दिनों मुख्यमंत्री द्वारा भोपाल में बुलाई गई विधायकों की बैठक में अति आत्मविश्वास से अपने क्षेत्रों की स्थिति बयां कर रहे विधायकों के सामने जब उनकी कुंडली रखी गई, तो उन्हें जवाब नहीं सूझा। मालवा-निमाड़ के नौ विधायकों की मार्किंग तो निगेटिव बताई गई। उन्हें कह दिया गया कि टिकट उसे मिलेगा, जिसके हाथ में ‘जीत की रेखा’ होगी। अब कार्यकर्ता विधायकों से कुम्हलाए चेहरे का कारण पूछ रहे हैं। अब भला कोई ये कारण बता पाएगा?

हवन में हाथ न जल जाएं
राजनीति में मंशा भले अच्छी नीयत से काम करने की हो, लेकिन अच्छे या बुरे का फैसला काम के नतीजे से ही आंका जाता है। अब नगर निगम द्वारा 297 कालोनियों में एनओसी के बिना रजिस्ट्री न करने के फैसले को ही लीजिए। इस समय सरकार अवैध कालोनियों को वैध करने की प्रकिया में है। ऐसे में जमीनों के इंदौरी जादूगर भांप चुके हैं कि अवैध कालोनियों के दिन पलटने वाले हैं। इन कालोनियों में प्लाटों-मकानों की खरीद-फरोख्त करने वाले सक्रिय हो ही रहे थे कि नगर सरकार ने ये आदेश निकाल दिया। कहानी में ट्विस्ट तब आया जब पंजीयन विभाग ने प्रक्रिया से असहमति जता दी। अब ड्राफ्ट तैयार करने वालों से पूछा जा रहा है कि जब निगम से कालोनियों के नक्शे ही पास नहीं हुए, उन्हें निगम कैसे एनओसी दे देगा। इस पेंच में निगम टीम उलझ रही है।
22 सीटें, 200 दावेदार…पर नेता कितने?

जाति और वर्ग की राजनीति ने जबसे पड़ोसी राज्यों से मध्य प्रदेश में प्रवेश किया है, यहां भी समाज, जाति, क्षेत्र आधारित राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा है। मालवा-निमाड़ की 66 विधानसभा सीटों में 22 सीटें आदिवासी बहुल हैं। 2003 में कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली ये सीटें भाजपा के पाले में आई, तो समीकरण बदल गए थे। 2018 में वक्त फिर बदला और ये सीटें फिर कांग्रेस के पास लौट गईं। डेढ़ साल बाद भले ही भाजपा दोबारा प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई, लेकिन उसके बाद से ही दोनों दल इन सीटों पर नए आदिवासी क्षत्रपों की संभावनाओं को लगातार तलाश रहे हैं। स्थानीय विधायक और सांसद अपने क्षेत्र तक सीमित हैं। ऐसे में सर्वमान्य नेता की खोज न भाजपा में पूरी हो पाई, न कांग्रेस में। चुनाव सामने है और आदिवासी चेहरे के नाम पर किसे मैदान सौंपा जाए, यह सवाल अब भी अनुत्तरित ही है।

अफसरों का ’चालान‘ बनाने वालों की तलाश

भोपाल परिवहन कार्यालय में ‘चढौत्रे’ के बंटवारे की खबर लीक हो जाने से पूरे प्रदेश में हलचल मची ही थी कि अब इंदौर आरटीओ में ‘शिकायती चिट्ठी’ ने सनसनी मचा रखी है। तीन-चार महीनों से एक-दूसरे की कारस्तानियों की जानकारी पीएम-सीएम तक भेजी जा रही हैं। सादे कागज पर नहीं बल्कि परिवहन विभाग के लैटर हेड पर। दो दर्जन से ज्यादा पत्रों के पहुंचने के बाद पूरे मामले से पर्दा हटा। शिकायत कौन कर रहा है, इसकी जांच तो बाद में हुई। सबसे पहले यह पड़ताल की गई कि चिट्ठयों में भेजा क्या-क्या गया है। जिनका इतिहास ज्यादा ‘समृद्ध’ रहा है, सबसे ज्यादा परेशानी में वे ही हैं। जांच के दूसरे चरण में उसे तलाशा जा रहा है, जिसने अंदर की बातें बाहर कर अफसरों का चालान बनवा दिया। बातें निकली हैं तो दूर तलक जाएंगी ही।