सरकारी मेला विभाग ..? लोकतंत्र का अपमान ….

राजस्थान सरकार ने वर्ष 2023 का विधेयक संख्या 14 विधानसभा से पारित कराया है। जिसका नाम रखा है- राजस्थान राज्य मेला प्राधिकरण विधेयक-2023। सरकार के कामकाज तो वैसे भी मेला तंत्र की तर्ज पर चल रहे हैं। अफसरों की मौज-मस्ती और पेट भराई में कहां कसर रह गई है कि नया विभाग खोलने का निर्णय किया है। क्या राज्य के सभी भौगोलिक, सांस्कृतिक, लोकजीवन, व्यापारिक, धार्मिक मेलों के नाम पर सरकार कब्जा करना चाहती है? देवस्थान विभाग अकेला सरकारी समझ का बड़ा प्रमाण है। सरकार किस प्रकार का नया नियंत्रण करना चाहती है? धर्म पर, सम्प्रदायों पर, आस्था पर, आर्थिक आदान-प्रदान पर अथवा निजी आयोजकों पर? यह निर्णय सरकार का शीर्षासन ही प्रमाणित होगा।

इस प्राधिकरण के प्रारूप में 26 विभागों के प्रभारी सचिव, सदस्य हैं। दो-चार समाज के लोगों को जोड़ भी दिया, तो वे बेचारे एक कोने में बैठे रहेंगे। यह मूल रूप से सरकारी विभाग की नियंत्रण शाखा जैसा कार्य संचालन करेगा। हर कदम पर लालफीताशाही, स्वीकृति, अतिक्रमण, निषेध, वीआईपी कल्चर, जुआ-शराब के अड्डे, सरकारी प्रदर्शनियां बस। हर मेले का स्वरूप एक-सा हो जाएगा। आज भी जितने मेले पर्यटन विभाग संचालित कर रहा है, उनका मूल स्वरूप खो चुका है। सभी मेले आधुनिक सुविधा, विदेशी पर्यटकों के आधार पर चल रहे हैं। स्थानीय वातावरण खो गया है। तब मेले की परिभाषा क्या हुई? सरकारी अफसर मेलों को कितना समझते हैं, इसका उदाहरण दो वर्ष पूर्व बालोतरा के अधिकारियों ने दिया था- तिलवाड़ा पशु मेले पर निषेधाज्ञा जारी करके। भला हो मुख्यमंत्री का, जो उसी दिन आदेश रद्द कर दिया। वरना लाखों पशुपालकों का जीवन संकट में पड़ गया होता।

राजस्थान मेलों की धरती है। यहां अनेक श्रेणियों के मेले लगते हैं। पूरे देश में पशुपालन केवल राजस्थान में होता है और देश भर में पशु पहुंचते हैं। तिलवाड़ा, नागौर, परबतसर, पुष्कर प्रमुख पशु मेले हैं। हमारे कितने अधिकारी पशुओं-पशुपालकों और स्थानीय भूगोल की जानकारी रखते हैं। अभी तो शिक्षा विभाग में आने वाला अधिकारी स्वयं को शिक्षा विशेषज्ञ मान बैठता है, चाहे आयुक्त हो अथवा निदेशक। भले ही दो माह बाद बदल जाए।

हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक मेलों की भी लम्बी शृंखला है। लोकदेवताओं के मेले तो लक्खी मेलों के नाम से जाने जाते हैं। बाबा रामदेव, गोगामेड़ी, कैलादेवी, अजमेर ख्वाजा सा. का उर्स, सालासर-खाटूश्याम जैसे धाम, नाथद्वारा, सांवलियाजी, मदनमोहन जी, करणीमाता, बेणेश्वर, राणी सती जैसे मेलों की आय पर अधिकारियों की नजर पड़ी होगी।

लोकतंत्र का अपमान

बड़े मेलों में व्यवस्था तो सबको चाहिए। जल, रोशनी, यातायात, आवास, भोजन, सुरक्षा आदि सभी में सरकारी सहायता तो चाहिए और सरकार को देनी चाहिए भी, किन्तु सब-कुछ अपने अधिकार में लेना स्वतंत्रता पर सरकार का अतिक्रमण ही होगा। ऊपर से डण्डा यह भी कि मेला मजिस्ट्रेट का फैसला ही अंतिम होगा।

सरकार स्वयं राजनीति करती है। दूसरा, सरकार भ्रष्ट अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने से डरती है। बरसों तक कोर्ट के नोटिस जारी नहीं होने देती। स्वयं कोर्ट से मुकदमे वापस ले लेती है। इसका सीधा-सच्चा आईना देवस्थान विभाग है, जिसका कार्यक्षेत्र केवल मंदिर हैं और लगभग सभी मंदिर कंगाल होते जा रहे हैं। मंदिरों की जमीनें बिक गईं, ओरण सिमट गए, तालाबों में पट्टे कट गए। और क्या उम्मीद बाकी रह गई विभाग से? सरकार को कोई फलता-फूलता मेला/मंदिर मुट्ठी से बाहर जाता सुहाता ही नहीं है। जयपुर के गोविन्द देव जी का मंदिर निजी मंदिर है। सरकार ने सौ करोड़ की योजना क्यों कर घोषित कर दी? ताकि सरकार भीतर घुस सके!

मेलों के प्रबंध के लिए सुदृढ़ नीति बने यह आवश्यक है। पालना कौन कराएगा! आज कितने विभाग बदनाम हैं! किसको शर्म है! बेशर्मी तो मानो योग्यता बन गई। जनता त्राहि-त्राहि करे, सरकार आश्वासन देती रहे यह भी तो मेले का रूप है। सरकार मेलों की श्रेणियां उद्देश्यों, परम्पराओं, स्थानीय मान्यताओं आदि के आधार पर तैयार करे। आयोजकों से जिला स्तर पर बात करे, व्यवस्था करे, किन्तु नियंत्रण नहीं करे। कुछ सुविधाओं के लिए आयोजकों से मूल्य/किराया भी लिया जा सकता है। सरकार/ न्यायपालिका को यह भी देखना होगा कि आयोजक का भी किसी प्रकार का नियंत्रण व्यवस्था-यातायात- चिकित्सा- अग्निशमन जैसी व्यवस्थाओं पर न रहे। मेेले पूर्ण रूप से सार्वजनिक हों, वीआईपी कल्चर से मुक्त हों। जनहित प्राथमिकता रहे, आयोजक नहीं। मेला प्राधिकरण जैसी व्यवस्था तो लोकतंत्र का अपमान ही होगा। नई पीढ़ी के लिए राजस्थान ही नहीं बचेगा।

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