आखिर मनुष्य से मनुष्य क्यों कटता जा रहा है?
गहरे, काले अंधेरे से धीरे-धीरे कब फूटेगा चश्मा, और कब बहेगा जगमग करता नूर?
मुंबई से कोई सौ किलोमीटर पहले एक सिपाही चलती ट्रेन में चार लोगों को गोलियों से भून डालता है। ऐसा भी नहीं है जैसा पुलिस अफसर बता रहे हैं कि वो बड़ा गुस्सैल है। गुस्सैल है तो सामने बैठे या खड़े लोगों को मारता! लेकिन वो तो चार-छह बोगियों में जाकर लोगों को चुन-चुनकर गोली मारता है! वो भी इसलिए कि राजनीतिक बहस करते-करते उसका उग्रवाद अचानक सिर चढ़कर बोलने लगता है!
दूसरी तरफ नूंह में ब्रज मंडल यात्रा के दौरान हिंसा फैल जाती है। भरतपुर और ब्रज के पूरे इलाके में कहीं कर्फ्यू, कहीं निषेधाज्ञा लगानी पड़ती है। कई किलोमीटर तक जिसे, जहां, जो भी वाहन दिखा, उसे फूंक डाला।
सड़क पर रेंगते वाहनों से भला किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है! वो भी उस ब्रज के इर्द-गिर्द, जहां मिठाई की दुकान से कोई जलेबी चुराकर भागता है तो आज भी लोग कन्हैया-कन्हैया पुकारते हुए दर्शन की खातिर उसके पीछे भागने लगते हैं!
उस ब्रज में जहां रिक्शे या ऑटो के सामने गैया आ जाए तो लोग हॉर्न बजाकर नहीं बल्कि राधे-राधे कहकर उसके हटने की राह तकते हैं! उस ब्रज में जहां आज भी किसी के घर जाते हैं तो अपने कृष्ण लल्ला की मूर्ति को साथ ले जाते हैं, यह सोचकर कि पीछे लल्ला के खान-पान का ख्याल कौन रखेगा?
आखिर हमें क्या हो गया है?
क्यों हम हर तरफ मणिपुर फैलाना चाहते हैं?
ऐसा मणिपुर जहां न शक्ति स्वरूप महिलाओं की कद्र है, न मनुष्य मात्र की। आदमी से आदमी कटता जा रहा है, जैसे डंगर खुद ही फांक-फांक होता है। पहाड़ जहां पहाड़ नहीं, मौत के टीले नजर आते हैं। स्कूल शरणार्थी शिविर हो गए हैं और गलियां जैसे सारी की सारी श्मशान घाट को जा रही हों! कुकी, मैतेई को मार रहा है और मैतेई, कुकी को। कोई सरकार, कोई सुरक्षा बल और कोई सेना इन्हें रोक नहीं पा रही है।
आखिर राजनीतिक बहसों के दौरान हम क्यों अपना आपा खो रहे हैं?
हमारा राजनीतिक चातुर्य आखिर किस खोह में बंद हो गया है? दरअसल, जीवन के सारे दु:ख-दर्द जिनके लिए मायने नहीं रखते, अक्सर वे ही राजनीतिक बहस में उलझते हैं। वर्ना बहस करने के लिए और भी कई मुद्दे पड़े हैं। महंगाई, बेरोजगारी, बढ़ती वैमनस्यता, घटती करुणा-दया, लेकिन आज इन सब की किसी को न परवाह है, न फिक्र। इसलिए राजनीतिक बहस करते फिरते हैं।
फिर राजनीति में धर्म आता है। सम्प्रदाय आते हैं। जातियां और इनके भीतर छिपे गोत्र भी आते हैं। यहीं से तमाम तरह के विकार जन्म लेते हैं। फिर कोई सिपाही पालघर के पास चार लोगों को भून डालता है। फिर किसी ब्रज मंडल यात्रा के बीच संघर्ष होता है। आखिर किस पर भरोसा किया जाए? अब तो कंधे पर रखा हाथ भी भारी लगने लगा है।
अब तो कोई हमारे युवाओं और हर किसी विषय पर बहस के लिए हमेशा तैयार रहने वाले हमारे लोगों से यह भी नहीं पूछता कि तुम्हारी आंखें इतनी लाल क्यों हैं? क्या सुबह-सुबह दो-चार मिर्ची तो निगल नहीं गए थे तुम? खैर, कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि बहस करने के लिए अभी बहुत कुछ बाकी है। बहुत कुछ अनछुआ है। जैसे फिलहाल बारिश का दौर है। लेकिन वह भी अब तो टीन की चादरें बजाकर जगाती नहीं। गलियों में वो रेत के घर बनाते बच्चे भी अब नहीं दिखते। गली के छोर पर वो मुस्टण्डा इमली का पेड़ भी अब नजर नहीं आता।
दरअसल, जीवन की कश्ती को इस छोर से उस छोर तक खेते-खेते हम भूल चुके हैं कि आखिर हमारा अपना छोर कौन-सा है! वास्तव में हम राजनीति के कैक्टस को देखकर उसे ही फूलों की बहार समझ रहे हैं। चुन-चुनकर शब्द गढ़ रहे हैं।
अकाल में बटोरे गए दानों जैसे शब्द। यहां-वहां के इतने तर्क-कुतर्क दिए जा रहे हैं कि शब्द भी शरमा जाएं। लेकिन हर बहस और चर्चा और राजनीतिक बयानों के बीच हम भूल जाते हैं कि ये शब्द किसी मर्यादा पर नहीं रुकते।
जिन अर्थों की नग्नता ढंकने को हम उनके गले शब्दों की बांह डालते हैं, किसी दिन वही शब्द, उन्हीं अर्थों को बेइज्जत करके लौटते हैं और लज्जित, हमारे सामने आंख तक नहीं उठाते! ट्विटर और फेसबुक और वॉट्सएप पर इतना तीखा तर्क-वितर्क चल रहा है कि कश्मीर और मणिपुर भी सिकुड़कर मेलबॉक्स या मोबाइल स्क्रीन में समा गया है।
शायद इसीलिए, बड़े-बुजुर्ग कहते रहे कि राजनीति के आसपास ज्यादा देर रहना नहीं। ये एक भटकी हुई आत्मा है। हाथी है। ये शेर भी है और कभी-कभी इसे बिदका हुआ घोड़ा भी कहते हैं। इस बारिशी मौसम में कुछ लोग इसे मोर भी समझ बैठते हैं। बीच में आए आंधी के थपेड़ों ने जब कोड़े लगाए तो आंखों में पीली धूल के सिवाय कुछ भी नहीं रह गया। कुछ भी नहीं।
कुल मिलाकर हमें उन सारी नफरतों से आजाद होना है, जो इंसान को, इंसान से दूर करती हैं। वो जो सागर से मोती छीने, वो जो दीपक से ज्योति छीने, वो जो पत्थरों में आग लगा दे, वो जो सीने से राज चुरा ले, ऐसी भावनाओं से आजाद होना है- ताकि हमारे इर्द-गिर्द बहने वाली हवाएं हाकिमों की मुट्ठियों में दबकर न रह जाएं!
राजनीति के आसपास ज्यादा देर रहना नहीं
ट्विटर, फेसबुक, वॉट्सएप पर इतना तीखा तर्क-वितर्क चल रहा है कि कश्मीर और मणिपुर भी सिकुड़कर मोबाइल स्क्रीन में समा गया है। शायद इसीलिए, बड़े-बुजुर्ग कहते रहे कि राजनीति के आसपास ज्यादा देर रहना नहीं