बढ़ता साम्प्रदायिक तनाव अर्थव्यवस्था के लिए बुरा !
बढ़ता साम्प्रदायिक तनाव अर्थव्यवस्था के लिए बुरा …
आर. जगन्नाथन ने हाल ही में एक राष्ट्रीय दैनिक के लिए एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है। वे चिंतक, लेखक, अर्थशास्त्री हैं और वर्तमान में स्वराज्य पत्रिका के सम्पादकीय निदेशक हैं। यह पत्रिका दक्षिणपंथी विचारों को सामने रखती है और भाजपा की समर्थक है।
लेकिन यह पहली बार है, जब सरकार के समर्थक एक विचारक ने बिना किसी लागलपेट के यह कहा है कि साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की नीति अंतत: राष्ट्रीय हितों के ही विरुद्ध है। जगन्नाथन के विचार सुस्पष्ट हैं। चूंकि आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक की कमान भाजपा के हाथों में है, इसलिए वो यह नहीं होने दे सकती कि ध्रुवीकरण बेधड़क बढ़ता चला जाए, हिंसा की घटनाओं में बेरोकटोक इजाफा हो और यह सब देश की आर्थिक गतिविधियों के लिए प्रतिकूल साबित हो।
जगन्नाथन ने एक बहुत पते की बात कही। उन्होंने कहा कि हिंदू-हितों के संरक्षण के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण जरूरी नहीं है, यह उसके बिना भी हो सकता है। उन्होंने अंत में कहा है कि अगर भाजपा भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाना चाहती है तो उसे बेतुके ध्रुवीकरण के ऊपर सुप्रशासन को प्राथमिकता देना होगी।
हालांकि जगन्नाथन ने आर्थिक परिप्रेक्ष्यों में बात की है, लेकिन बढ़ते साम्प्रदायिक विद्वेष का सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा असर पड़ता है। नफरत, हिंसा और असहिष्णुता की घटनाओं में बढ़ोतरी होती है। लेकिन आर्थिक विकास और सामाजिक सौहार्द में भी हमेशा से एक सीधा सम्बंध रहा है।
जो देश आर्थिक विकास करके अपने करोड़ों लोगों को गरीबी और अभावों के दुष्चक्र से बाहर निकालना चाहता है, वह सामाजिक अस्थायित्व से जीर्ण-शीर्ण नहीं हो सकता। हाल ही में हरियाणा के नूंह में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों के बाद मिलेनियम सिटी कहलाने वाले गुरुग्राम में भी तनाव व्याप्त हो गया था, जहां पर लगभग तमाम टॉप ग्लोबल फॉर्च्यून 500 कम्पनियों के दफ्तर हैं।
वहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने स्टाफ से कहा कि वे ऑफिस न आएं और घर से ही काम करें। एनसीआर के अन्य सैटेलाइट टाउन- सोनीपत और पलवल में कर्फ्यू और धारा 44 लगाने की नौबत आ गई। स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए।
ऐसी घटनाओं से अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का चिंतित होना स्वाभाविक है। उनके लिए भारत एक आकर्षक डेस्टिनेशन है, लेकिन केवल तभी, जब सुरक्षा की गारंटी हो और हिंसा की बढ़ती घटनाएं आर्थिक गतिविधियों में बाधक न बनती हों।
जब भी विदेशी मीडिया या टिप्पणीकार भारत में बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव की ओर संकेत करते हैं तो सरकार उस पर अरुचि जताती है। लेकिन इस बार आलोचना के स्वर संघ परिवार के भीतर से आए हैं। मालूम होता है कि आरएसएस और भाजपा के दृष्टिकोण में बुनियादी अंतर है। जहां आरएसएस का हिंदुत्व का एजेंडा दीर्घकालीन है, वहीं भाजपा की नजर तात्कालिक चुनावी हितों पर रहती है।
आरएसएस शायद इस बात को समझती है कि भारत जैसे बड़े देश में- जहां अल्पसंख्यक इतनी तादाद में रहते हों- निरंतर ध्रुवीकरण की नीति कारगर साबित नहीं हो सकती। आज भारत में मुस्लिमों की संख्या 20 करोड़ के आसपास है, जो अपने हिंदू पड़ोसियों के साथ मिलजुलकर रहते हैं। ईसाइयों की संख्या भी भारत में 2 प्रतिशत है, जो कि हंगरी और यूनान की कुल आबादी से अधिक है। ऐसे में निरंतर साम्प्रदायिक टकरावों से तो देश में अराजकता और असुरक्षा की स्थिति ही निर्मित होगी।
भारत में जो हो रहा है, वह दुनिया की नजर से छिपा नहीं रह सकता। आज वैश्विक मीडिया और सोशल मीडिया की पहुंच सर्वव्यापी है और वह दुनिया के किसी भी कोने में पलक झपकते ही खबरों को पहुंचा सकता है। भारत पर वैसे भी दुनिया की पैनी नजर बनी हुई है, क्योंकि आज वह एक उभरती हुई ताकत, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और एक बड़ा बाजार है।
संघर्षरत समुदायों पर दोष मढ़ने का कोई लाभ नहीं, क्योंकि दोनों ही तरफ अतिवादी स्वर हैं। जहां मुस्लिमों की ओर से सार्वजनिक रूप से ‘सर तन से जुदा’ का नारा बुलंद होता है तो हिंदू भी धर्म-संसद के माध्यम से मुस्लिमों के संहार की बातें करते हैं।
देश में ऐसे उदार हिंदू भी हैं, जो अल्पसंख्यक वोटबैंक की राजनीति से खिन्न हैं और उनके मन में कुछ शिकायतें हैं, जिन्हें सुना जाना जरूरी है। लेकिन फिलहाल तो पेंडुलम दूसरी अति पर चला गया है, जिसमें हिंदू बहुसंख्यकवाद को राज्यसत्ता का समर्थन प्राप्त है। याद रखें जो देश अंदरूनी तौर पर संघर्षरत हो, वो आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं हो सकता।
फिलहाल तो भारत में पेंडुलम दूसरी अति पर चला गया है, जिसमें हिंदू बहुसंख्यकवाद को राज्यसत्ता का समर्थन प्राप्त है। लेकिन याद रखें कि जो देश अंदरूनी तौर पर संघर्षरत हो, वह आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं हो सकता है।