2024 में जीत के लिए दो स्तरों पर भाजपाई रणनीति !

2024 में जीत के लिए दो स्तरों पर भाजपाई रणनीति

अपने पंद्रह अगस्त के डेढ़ घंटे लंबे भाषण में प्रधानमंत्री ने उन्हें देख और सुन रहे देशवासियों को भारत के अतीत और भविष्य की एक नई कहानी सुनाई। इसके बाद देश में विभिन्न जगहों पर दिए जाने वाले भाषणों में भी वे इसी से मिलती-जुलती बातें कहते हुए नजर आए। ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय पैमाने पर की जाने वाली भाजपा की माहौलबंदी के केंद्र में भी इसी तरह की बातें की जाएंगी।

अंग्रेज़ी में इसी को ‘नैरेटिव’ सेट करने की संज्ञा दी जाती है। प्रधानमंत्री का कहना था कि देश हजार साल लंबी गुलामी के दौर से गुजरकर आज इस मुकाम पर पहुंचा है कि आने वाले एक हजार साल के लिए राष्ट्रीय महानता की बुनियाद रख सके।

यह दावा करते हुए प्रधानमंत्री ने अपनी खास शैली में स्वयं अपनी हस्ती को इतिहास की इस कहानी के केंद्र में स्थापित किया। उन्होंने एक ऐसी छवि बनाने की कोशिश की कि जैसे इस मुकाम पर देश का नेतृत्व करने के लिए प्रारब्ध ने उन्हीं को भेजा हो।

यह किस्मत ने तय किया है कि वे जिस योजना का शिलान्यास करें, उसका उद्घाटन भी उन्हीं के हाथ से हो। राजनीतिक व्यक्तिवाद का इससे आकर्षक उदाहरण लोकलुभावन ढंग से किसी और नेता ने आज तक पेश नहीं किया है।

प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही इस माहौलंबदी से एक सवाल पैदा होता है। क्या अगला लोकसभा चुनाव हजार साल की कथित गुलामी और हजार साल के कल्पित भविष्य के नाम पर लड़ा जाएगा या उसका फैसला गत दस वर्षों की खूबियों और खामियों के आधार पर होगा?

प्रधानमंत्री अच्छी तरह जानते हैं कि पिछली बार उन्हें केवल 37 फीसदी वोट मिले थे। उनकी पार्टी को मिली 303 सीटों में से अगर केवल 31 कम हो जाएं तो भाजपा बहुमत वाली पार्टी नहीं रह जाएगी। उसे गठजोड़ सरकार बनानी पड़ेगी। बहुतों के मन में सवाल है कि प्रधानमंत्री की दमदार शख्सियत गठजोड़ राजनीति के लिए उपयुक्त होगी या नहीं।

वैसे मानता हूं कि हर नेता भीतर से बहुत लचीला होता है। अगर गठजोड़ सरकार बनाने का मौका आया तो नरेंद्र मोदी के भीतर छिपे अटल बिहारी वाजपेयी को प्रकट होने में देर नहीं लगेगी। यह नौबत न आने पाए, इसीलिए वे अतीत और भविष्य के बीच अपने दस वर्ष लंबे वर्तमान को कहीं गुम कर देना चाहते हैं।

यानी जनता अतीत की गुलामी से बचने के लिए अगर किसी भविष्य का निर्माण करना चाहती है तो मोदी उसके लिए सबसे बेहतर प्रधानमंत्री हैं। उन्हें यह भी अंदाजा है कि विपक्ष ‘अतीत की गुलामी’ (जिसमें अंग्रेजों के 190 साल और उससे पहले मुसलमान शासन के सात सौ वर्ष भी आ जाते हैं) वाले फिकरे के प्रति असहज रहेगा और उसकी प्रतिक्रियाएं भाजपा को मुसलमान विरोधी हिंदू गोलबंदी करने में मदद करेंगी।

तो क्या मोदी के पास अतीत और भविष्य के बीच फंसे अपने दस वर्षीय शासनकाल की मजबूत और चमकदार रपट नहीं है? मेरे खयाल से लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने यह रपट ही पेश की थी।

दरअसल, समस्या रपट पेश करने की नहीं है, बल्कि यह है कि उसके बारे में वोटरों को यकीन कैसे दिलाया जाए। उलझन यह भी है कि भारत का मतदातामंडल एकसार नहीं है। उसकी कई परतें हैं और इन परतों से मिलकर एक पिरामिड बनता है। इस पिरामिड के आधार और बीच के हिस्से में ज्यादा गरीब, गरीब, कम गरीब और गरीबी से ठीक ऊपर वाले मतदाता भरे हैं।

खुशहाल मतदाता तो केवल उस हिस्से में हैं जो शिखर से थोड़ा ही नीचे है। मोदी हों या कोई और हो, उसे गरीब मतदाता ही जिता सकते हैं। इसलिए मोदी ने अपना फोकस उन्हीं पर रखा हुआ है। मसलन, अपने पंद्रह अगस्त के भाषण में उन्होंने दो बड़ी गरीब-लुभावन योजनाओं की घोषणा की।

ये हैं विश्वकर्मा योजना और लखपती दीदी योजना। अभी कुछ दिन पहले ही जस्टिस रोहिणी के नेतृत्व में लंबे अरसे से काम कर रहे आयोग ने अपनी रपट केंद्र सरकार को सौंपी है। राजनीतिक नजरिए से कहें तो इस कमीशन का काम आरक्षण का फोकस उन जातियों और बिरादरियों पर फेंकना था जिन्हें अभी तक इसका लाभ नहीं मिला है।

ये हैं कारीगर पिछड़ी जातियां (बढ़ई, लुहार वगैरह) जिन्हें मिल सकने वाले लाभ मंडल कमीशन के एक खास रुझान के कारण किसान पिछड़ी जातियों की तरफ चले गए हैं। समझा जा सकता है कि मोदीजी को रोहिणी आयोग की रपट में इन वंचित जातियों की प्रभावी संख्या दिखी होगी जो 25 से 30 फीसदी के आसपास है। वे यह भी जानते हैं कि यूपी में हुई उनकी चार जबरदस्त जीतों में इन अति पिछड़ों ने भाजपा का ही साथ दिया था। पंद्रह अगस्त पर घोषित विश्वकर्मा योजना मोदीजी ने अपने इन्हीं वोटरों के लिए तैयार की है।

सत्ता में वापसी की मोदी की योजना अब पूरी तरह से साफ है। पिरामिड के ऊपरी हिस्से के लिए हजार साल की महानता के भविष्य का आश्वासन है तो बीच वाले और निचले हिस्से के लिए ‘विश्वकर्मा’ और ‘लखपती दीदियां’ हैं!

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