चुनावी वादों पर स्वस्थ बहस जरूरी !

 मध्यप्रदेश कर्मशीलों की धरती है। यहां इन दिनों वादों के स्वप्नलोक तैर रहे हैं। चुनाव पूर्व हर दिन नई घोषणाएं। नए वचन पत्र। जनता खुश है। अफसर परेशान। वित्तीय संसाधन जुटाने में पसीने छूट रहे हैं। बिजली बिल माफ। गैस सिलेंडर पर सब्सिडी। …और भी न जाने क्या-क्या। सवाल उठ रहे हैं, क्या दलों को बड़े चुनावी वादे नहीं करने चाहिए? नीति बनाने वाले और अर्थशास्त्र के ज्ञानी कह रहे हैं, रेवड़ी संस्कृति पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए। चुनाव आयोग भी यही चाहता है कि चुनावी वादों के लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाया जाए। राजनीतिक दल ऐसे वादे कर रहे जो कहीं से विवेकसंगत नहीं दिखते। बड़े चुनावी वादे कई बार सामाजिक विषमता की स्थिति पैदा करते हैं। इनका फायदा उठाकर कोई दल चुनाव जीत जाता है, लेकिन नुकसान तो जनता को ही होता है। यह कोई नहीं पूछता- चुनावी वादों को पूरा करने के लिए पैसा कहां से आएगा? किस माध्यम से आएगा? सरकार की वित्तीय सेहत पर क्या असर पड़ेगा? बहरहाल, यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि फ्री बिजली से अगर किसी के घर में उजाला हो, किसान को सस्ती दर पर ट्यूबवेल से पानी मिले तो वह रेवड़ी संस्कृति का हिस्सा नहीं। लेकिन, सरकार के पास राजस्व बढ़ाने के कोई उपाय न हों तो वादे विकास के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। फूड, फर्टिलाइजर और फ्यूल तीन मुख्य सब्सिडीज हैं। इन पर ऐतराज नहीं। लेकिन, सच्चाई यही है 90% चुनावी वादे समाज में मुफ्तखोरी को बढ़ावा देते हैं। विकासशील देश में मानव विकास को रफ्तार देने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के मद में सब्सिडी तो जायज है। लेकिन, वोट के रेवड़ी बांटना कितना न्यायसंगत है? इससे बचने की सलाह तो प्रधानमंत्री भी दे चुके हैं। बेहतर होगा मतदाता खुद तय करें सत्ता में आने के बाद कौन-कौन से वादे पूरा करना संभव है और कौन नहीं। कौन सी घोषणा राज्य की सेहत की लिहाज से गलत या सही है। लोकतंत्र की भावना को जिंदा रखने के लिए यह पहल जरूरी है।

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