मध्य प्रदेश: दल-बदल क़ानून कैसे हुआ बेमानी? नेताओं के दल बदलने का दौर तेज हो गया है …
मध्य प्रदेश: दल-बदल क़ानून कैसे हुआ बेमानी?
नेताओं के दल बदलने का दौर तेज हो गया है ….
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव करीब आते ही नेताओं के दल बदलने का दौर तेज हो गया है। पिछले कुछ महीनों में सबसे ज्यादा नेता भाजपा से टूटकर कांग्रेस में गए हैं। ऐसे बड़े नेताओं की संख्या 31 है, जिनमें 25% सिंधिया समर्थक हैं …
दल बदलने वालों में वर्तमान विधायक, पूर्व मंत्री, सांसद, जिला पंचायत सदस्य भी शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि पार्टी बदलने वालों में केवल भाजपाई हैं। कांग्रेस से भी कई नेता भाजपा के खेमे में गए हैं। संडे स्टोरी में पढ़िए टिकट के लिए दल-बदलने वाले नेताओं ने कैसे अपनी-अपनी पूर्व पार्टी को परेशानी में डाल दिया है..
वीरेंद्र रघुवंशी, भंवर सिंह शेखावत और गिरिजाशंकर शर्मा ने भाजपा छोड़ी
31 अगस्त और 1 सितंबर को कोलारस विधायक वीरेंद्र रघुवंशी और पूर्व विधायक गिरिजाशंकर शर्मा ने भाजपा छोड़ी। रघुवंशी ने 2 सितंबर को कांग्रेस जॉइन भी कर ली। इसके साथ ही बदनावर से पूर्व विधायक भंवर सिंह शेखावत ने भी कांग्रेस का हाथ थाम लिया। ये तीनों दिग्गज नेता माने जाते हैं।
वीरेंद्र रघुवंशी ने पार्टी छोड़ते समय ज्योतिरादित्य सिंधिया समेत उनके साथ भाजपा में आए नेताओं पर कई आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि नवागत भाजपाइयों के कारण पार्टी की रीति-नीति ही बदल गई है। भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं की अनदेखी हो रही है।
भाजपा छोड़ने वाले गिरिजाशंकर शर्मा जनसंघ से जुड़े रहे हैं। वे दो बार नगर पालिका अध्यक्ष और दो बार विधायक रहे हैं। भाजपा संगठन में उन्होंने जिला अध्यक्ष समेत कई जिम्मेदारियां निभाईं। उन्होंने 2018 के चुनाव से पहले कांग्रेस जॉइन की थी फिर भाजपा में आ गए थे। गिरिजाशंकर शर्मा विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सीतासरन शर्मा के बड़े भाई हैं। सीतासरन शर्मा पांच बार से विधायक हैं। शर्मा परिवार नर्मदापुरम जिले की राजनीति में खासा दखल रखता है।
माखन सिंह सोलंकी: भाजपा SC-ST वालों का अपमान करती है
31 मार्च 2023 को आदिवासी नेता और पूर्व सांसद माखन सिंह अपने लोकसभा क्षेत्र बड़वानी में दिग्विजय सिंह की मौजूदगी में कांग्रेस में शामिल हुए। माखन सिंह 2009 में खरगोन-बड़वानी लोकसभा सीट से बीजेपी के सांसद रहे हैं। कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने कहा- भाजपा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से आने वाले लोगों का अपमान करती है।
कांग्रेस ने हमेशा डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर के दृष्टिकोण के तहत इस देश के अल्पसंख्यकों का सम्मान किया है। माखन सिंह ने ये भी कहा- भाजपा के स्थानीय नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। मेरा सम्मान नहीं हो रहा था। मुझे मंचों पर दरकिनार किया जाने लगा था।
राधेलाल बघेल: नरोत्तम मिश्रा को हराना ही मेरा लक्ष्य
6 मई को राधेलाल बघेल ने पूर्व सीएम कमलनाथ के उपस्थिति में कांग्रेस की सदस्यता ली। 2008 में वे दतिया जिले की सेवढ़ा विधानसभा सीट से बसपा के टिकट पर चुनाव जीते थे। 2013 में भाजपा के प्रदीप अग्रवाल से चुनाव हार गए थे। हारने के बाद उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया था। इसके बाद पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष का पद मिला। पार्टी छोड़ने से पहले वे प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य थे।
2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने मौजूदा विधायक प्रदीप अग्रवाल का टिकट काटकर बघेल को मैदान में उतारा था, लेकिन जीत नहीं पाए थे। बघेल ने भास्कर से बात करते हुए कहा- प्रदेश में भाजपा की तानाशाही चल रही है। हमारे जिले में गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा किसी को कुछ समझते नहीं हैं। इस बार दतिया विधानसभा से गृहमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ूंगा।
दीपक जोशी: भाजपा वैसी नहीं रही, जैसी मेरे पिताजी ने सींची थी
6 मई 2023 यानी जिस दिन राधेलाल बघेल ने कांग्रेस का दामन थामा, उसी दिन जनसंघ के संस्थापक सदस्य और पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी ने भी कांग्रेस जॉइन की। वो कमलनाथ के पास अपने पिता की तस्वीर लेकर पहुंचे। पहली बार साल 2008 में दीपक देवास के बागली से विधायक बने। 2013 में भाजपा की ही टिकट पर देवास की हाटपिपल्या सीट से चुनाव लड़े और जीते।
भाजपा छोड़ने के बाद दीपक जोशी मीडिया के सामने रो पड़े। उन्होंने कहा- स्व. पिताजी का हाटपिपल्या में स्मारक बनना है। प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष से लेकर मुख्यमंत्री तक सभी को कहा, लेकिन किसी को कोई असर नहीं पड़ा। बीजेपी अब वैसी नहीं रही, जैसी कि मेरे पिताजी ने सींची थी। मुझे भाजपा के किसी कार्यक्रम में बुलाया तक नहीं जाता था। यदि पार्टी कहेगी तो बुधनी से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ चुनाव लड़ूंगा।
यादवेंद्र सिंह यादव: सिंधिया आए तो निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होने लगी
22 मई 2023 को पूर्व विधायक राव देशराज सिंह के बेटे यादवेंद्र ने कांग्रेस जॉइन की। सदस्यता लेने के बाद यादवेंद्र ने कहा- मेरे पिता अशोकनगर की मुंगवाली विधानसभा से तीन बार विधायक रहे हैं। भाजपा को खड़ा करने में उनका बड़ा योगदान रहा है। मैं, मेरी पत्नी और मां वर्तमान में जिला पंचायत सदस्य है। हमारे परिवार ने भाजपा की सेवा की, लेकिन सिंधिया भाजपा में आए तो अशोकनगर में पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होने लगी।
वे कहते हैं- अशोकनगर में एसटी/एससी वर्ग के लोगों की जमीनों पर कब्जा कर ली गई। भ्रष्टाचार बढ़ गया है। अब भाजपा की विचारधारा नहीं बची है। सभी अपना पेट भरने में लगे हुए हैं। मेरे क्षेत्र के लोग और कार्यकर्ता परेशान हुए तो उनके साथ मैंने भी भाजपा छोड़ कांग्रेस पार्टी में आने का फैसला लिया।
हेमंत लारिया: टिकट नहीं मिला तो बदल दी पार्टी
सागर के हेमंत लारिया ने 21 मई को करीब 1 हजार समर्थकों के साथ प्रदेश कार्यालय पहुंच कर कांग्रेस जॉइन की। हेमंत के चचेरे भाई प्रदीप लारिया नरयावली से विधायक हैं। हेमंत लारिया पार्षद का चुनाव लड़ना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि पार्षद बनकर वे मकराेनिया नगर पालिका के अध्यक्ष बनें। अध्यक्ष पद एससी के लिए आरक्षित था। हेमंत ने विधायक भाई प्रदीप लारिया से पार्षद का टिकट दिलाने के लिए काफी जाेर लगवाया, लेकिन वे टिकट नहीं दिला पाए।
दीपक सारण: मंत्री कमल पटेल के राइट हैंड थे
कृषि मंत्री कमल पटेल के राइट हैंड माने जाने वाले हरदा के दीपक सारण ने 22 मई को अपने सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की थी। हरदा क्षेत्र के दीपक सारण को पार्टी में आने को कांग्रेस की बड़ी कामयाबी माना जा रहा है, क्योंकि उन्होंने कृषि मंत्री कमल पटेल के चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। चुनाव संचालन को लेकर कार्यभार संभाला था और बूथों पर उनकी पकड़ मजबूत है।
ध्रुव प्रताप सिंह: भाजपा भटक गई, इसलिए छोड़ दी
ध्रुव प्रताप सिंह ने 17 जून को भाजपा छोड़कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया। 2003 में कटनी के विजयराघवगढ़ से विधायक का चुनाव जीते थे। उस समय के कांग्रेसी नेता संजय पाठक को चुनाव हराया था। राजनीतिक करियर की शुरुआत भाजपा के साथ 1980 से की थी, तब भाजपा जनशक्ति के नाम से जानी जाती थी। भाजपा से पुराने नेताओं में से एक हैं। भाजपा छोड़ने का ऐलान करते हुए उन्होंने अपने इस्तीफे में लिखा कि भाजपा अब अपने मूल सिद्धांतों से भटक गई है।
भंवर सिंह शेखावत: पिता ने कांग्रेस जॉइन की, बेटा अभी भी भाजपा में
भंवर सिंह शेखावत 2 सितंबर को कांग्रेस में शामिल हो गए। वे बदनावर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं। भंवर सिंह शेखावत की गिनती मालवा में भाजपा के पुराने नेताओं में होती है। 90 के दशक में इंदौर-5 सीट से विधायक रह चुके हैं। 2013 में भाजपा ने उन्हें बदनावर से टिकट दिया था। शेखावत ने राजवर्धन सिंह दत्तीगांव को हराया था। पिछले चुनाव में राजवर्धन ने शेखावत को हरा दिया था। इसके बाद राजवर्धन सिंधिया के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।
2021 में हुए उप चुनाव में भाजपा ने बदनावर से शेखावत की जगह राजवर्धन को टिकट दिया। तब शेखावत ने पार्टी के इस फैसले का विरोध किया था। ये तभी से पार्टी से नाराज चल रहे हैं। भंवर सिंह शेखावत के पुत्र व पूर्व पार्षद संदीप शेखावत पिता के साथ कांग्रेस का दामन नहीं थाम रहे हैं। वे भाजपा में ही बने रहेंगे। शेखावत ने भाजपा छोड़ने के बाद कहा कि अब भाजपा उन लोगों के कब्जे में है, जिनसे भाजपा के पुराने कार्यकर्ता वर्षों से संघर्ष करते रहे।
अवधेश नायक:भाजपा को हराकर ही दम लूंगा
6 अगस्त को पाठ्य पुस्तक निगम के पूर्व उपाध्यक्ष अवधेश नायक ने कांग्रेस में वापसी कर ली है। साल 2008 में अवधेश दतिया से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। शिवराज सरकार ने उन्हें 2016 में निगम का उपाध्यक्ष बनने के बाद राज्यमंत्री का दर्जा दिया था। उन्होंने कहा- हम बिना शर्त कांग्रेस में आए हैं और दतिया में भाजपा को हराकर दम लेंगे।
अवधेश के साथ ही सागर की सुरखी विधानसभा से राजकुमार धनौरा ने भी कांग्रेस का हाथ थामा था। वे पूर्व सरपंच रहे हैं। राजकुमार ने कहा- सुरखी से विधायक और राजस्व मंत्री गोविंद सिंह राजपूत को इस चुनाव में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। राजकुमार ने भी सैकड़ों समर्थकों के साथ कांग्रेस पार्टी जॉइन की है।
वंदना बागरी: टिकट के लिए पूर्व मंत्री की बहू ने बदली पार्टी
वंदना बागरी सतना की रैगांव विधानसभा सीट से 5 बार विधायक रह चुके पूर्व मंत्री स्व. जुगल किशोर बागरी की छोटी बहू हैं। भाजपा की सक्रिय और बड़ी नेता मानी जाती थीं। इन्होंने 24 अगस्त को अपने पति देवराज बागरी के साथ कांग्रेस का दामन थाम लिया है। पति देवराज और वंदना दोनों जिला पंचायत सदस्य रह चुके हैं। रैगांव सीट पर बागरी परिवार का अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है। इस बार वंदना रैगांव से कांग्रेस की टिकट की दावेदारी कर रही हैं।
रोशनी यादव: भाजपा दिखावटी राजनीति करती है
भाजपा नेत्री रही रोशनी यादव 22 अगस्त को कांग्रेस में शामिल हो गईं। निवाड़ी जिले से ताल्लुक रखने वाली रोशनी भाजपा की सक्रिय नेता मानी जाती थीं। निवाड़ी जिला उपाध्यक्ष और जिला पंचायत सदस्य हैं।
भाजपा को दिए अपने इस्तीफे में रोशनी ने लिखा था- बहुत दुखी मन से आहत होकर मैं भाजपा की सदस्यता त्याग रही हूं। गत कुछ वर्षों से शीर्ष नेतृत्व का कार्यकर्ताओं और आम जनमानस के प्रति निराशा, नीति और नेतृत्व में उदासीनता, महिलाओं के प्रति दिखावटी योजना एवं उनके प्रति बढ़ते अत्याचार को देखकर मैं आहत हूं।
समंदर पटेल: टिकट का भरोसा नहीं मिला तो भाजपा छोड़ दी
समंदर पटेल ने 18 अगस्त को करीब 1200 गाड़ियों के काफिले के साथ भोपाल पहुंचकर दोबारा कांग्रेस का हाथ थाम लिया। वे राऊ विधानसभा क्षेत्र के लिम्बोदी के 4 बार (1994 से 2015 तक) सरपंच रह चुके हैं। तब यह ग्राम पंचायत इंदौर ग्रामीण का हिस्सा थी। 2018 में समंदर नीमच की जावद विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ चुके हैं। उनके पास खेती व अन्य प्रॉपर्टी मिलाकर 90 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है।
पटेल धाकड़ समाज से आते हैं। वे जावद सीट से टिकट चाहते हैं, लेकिन वहां से प्रदेश के लघु और मध्यम उद्योग मंत्री ओमप्रकाश सकलेचा की दावेदारी है। जब सिंधिया टिकट दिलाने का भरोसा नहीं दे पाए तो समंदर ने भाजपा छोड़ दी। समंदर पटेल ने कहा- मैंने बीजेपी इसलिए छोड़ी क्योंकि मुझसे जुड़े कार्यकर्ताओं की वहां अनदेखी की जा रही थी। उनको और मुझे संगठन के किसी कार्यक्रम में नहीं बुलाया जाता था।
बैजनाथ सिंह यादव: हमें मंच पर तक चढ़ने नहीं देते थे, बेइज्जती कैसे बर्दाश्त करता
यादव ग्वालियर चंबल क्षेत्र से आते हैं। उन्होंने 14 जून को करीब 700 गाड़ियों के काफिले के साथ भोपाल पहुंचकर कांग्रेस में वापसी की। बैजनाथ के साथ जिला स्तर के 15 नेता भी कांग्रेस में शामिल हुए। बैजनाथ यादव शिवपुरी से कांग्रेस जिला अध्यक्ष रह चुके हैं। उनकी पत्नी कमला यादव भी शिवपुरी से जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुकी हैं।
बैजनाथ ने बताया- भाजपा में शामिल होते ही मुझे प्रदेश कार्यसमिति का सदस्य बना दिया गया था। लेकिन यहां आकर हमें केवल घृणा ही मिली। मुझे मंच पर भी नहीं जाने देते थे। मैं अपना सम्मान पाने के लिए कांग्रेस में वापस आया हूं।
रघुराज धाकड़: भाजपा में हमारे साथ सौतेला व्यवहार होता था
धाकड़ ने 10 अगस्त को कांग्रेस में वापसी की। धाकड़ शिवपुरी के कोलारस से आते हैं और करीब 20 साल से राजनीति के मैदान में हैं। रघुराज की गिनती धाकड़ समाज के कद्दावर नेताओं में होती है।
रघुराज सिंह धाकड़ 2 बार जनपद सदस्य रह चुके हैं। रघुराज धाकड़ ने बताया- भाजपा में हमारे साथ सौतेला व्यवहार होता था। हमने ये बात सिंधिया काे भी बताई। मैं देखता हूं.. हर बार यही आश्वासन मिलता था, लेकिन निदान नहीं होता था। इस कारण वापस कांग्रेस में आ गया हूं।
राकेश गुप्ता: 40 साल कांग्रेस में बिताए, सिंधिया की वजह से दलबदलू का टैग लग गया
25 जून को राकेश गुप्ता ने कमलनाथ की मौजूदगी में कांग्रेस का हाथ थामा। राकेश शिवपुरी में बीजेपी के जिला उपाध्यक्ष पद थे। शिवपुरी में सिंधिया के लोकसभा चुनाव मैनेजमेंट का काम गुप्ता ही देखते थे।
खाटी कांग्रेसी राकेश कहते हैं कि मैं तो बस अपने नेता के लिए वहां गया था, लेकिन उन्होंने ही अपने कार्यकर्ताओं का ख्याल नहीं रखा। हम उपेक्षित थे, क्योंकि हम मूलरूप से कांग्रेसी थे। सिंधिया की वजह से मेरे ऊपर दलबदल का टैग लगा। इसके बाद भी क्षेत्र की जनता मेरे साथ है।
गगन दीक्षित: बीजेपी में तो प्रभुराम चौधरी की सुनवाई नहीं होती, हमारी क्या होगी
सैकड़ों समर्थकोंं से साथ सिंधिया फैंस क्लब के जिलाध्यक्ष गगन दीक्षित भोपाल पहुंचे। 24 जुलाई को दीक्षित के साथ सांची जनपद पंचायत अध्यक्ष अर्चना पोर्ते ने भी कांग्रेस का दामन थामा। इसके साथ ही इनके पिता प्रदीप दीक्षित ने भी प्रीति मालवीय और करीब 100 समर्थकों के साथ कांग्रेस जॉइन कर ली। रायसेन से ही सिंधिया के करीबी और मंत्री प्रभुराम चौधरी आते हैं।
गगन दीक्षित ने बताया- हम अपनी क्षेत्र के विकास के लिए कांग्रेस को छोड़ बीजेपी में गए थे। हमने प्रभुराम चौधरी के आश्वासन पर भाजपा जॉइन की थी। बीजेपी में कांग्रेस से आए कार्यकर्ताओं की सुनी नहीं जा रही थी। बीजेपी में खुद प्रभुराम चौधरी की सुनवाई नहीं होती तो हमारी कहां से होगी।
इनके अलावा सिंधिया समर्थक जयपाल सिंह यादव ने 10 अगस्त को कांग्रेस में वापसी की। जयपाल सिंह 2018 में चंबल की चंदेरी विधानसभा सीट से विधायकी का चुनाव लड़ चुके हैं। यादव की गिनती भी सिंधिया के खास लोगों में थी। हाल ही में अपने दर्जनों समर्थकों के साथ यादव ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है।
यदुराज सिंह यादव की चंबल की चंदेरी में मजबूत पकड़ है। संगठन के आदमी माने जाते हैं। सिंधिया चुनाव लड़ते थे, तो अशोकनगर में बड़ी भूमिका निभाते थे। जयपाल सिंह के साथ इन्होंने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया है।इनके साथ ही ग्वालियर से रंजीत यादव, सुबोध दुबे, दिनेश बरैया, नरेंद्र गुर्जर, राहुल शाक्य और दौरिस जाटव जैसे कट्टर सिंधिया समर्थक कांग्रेस में घर वापसी कर चुके हैं।
अभय मिश्रा-नीलम मिश्रा : भूल से कांग्रेस में चला गया था
11 अगस्त को बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इस दंपती को पार्टी की सदस्यता दिलाई। अभय मिश्रा रीवा जिले की सिमरिया सीट से 2008 में और इनकी पत्नी नीलम मिश्रा 2013 में विधायक रह चुकी हैं।
अजय मिश्रा ने कहा- साल 2018 में मैं भूलवश कांग्रेस में चला गया था। कांग्रेस में भीतरघात का कल्चर है। जन सेवा से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। मैं भाजपा में टिकट के लालच में नहीं आया हूं, क्योंकि पार्टी बदलने से पहले ही कांग्रेस ने मुझे टिकट देने का इशारा कर दिया था। मुझे पता था कि मैं कांग्रेस में रह कर लोगों का भला नहीं कर पाऊंगा।
प्रमिला साधौ: अपनी बहन को हराऊंगी
30 जून को राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और CM शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में प्रमिला ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। प्रमिला कांग्रेस से पूर्व मंत्री और महेश्वर से वर्तमान विधायक कांग्रेस विजयलक्ष्मी साधौ की बहन हैं। प्रमिला ने कहा- कांग्रेस में मठाधीशी चल रही है। नए लोगों को मौका नहीं दिया जा रहा है। मेरे पिताजी लगातार कांग्रेस में रहे। लेकिन मुझे कांग्रेस में उपेक्षित रखा गया, इसलिए मैं भाजपा में आई हूं। भाजपा मुझे टिकट देगी तो डंके की चोट पर चुनाव जीतूंगी। मैं अपनी मंत्री बहन को चुनाव में हराऊंगी।
पुष्पराज सिंह: कांग्रेस में मेरे साथ धोखा हो रहा था
5 जुलाई को कांग्रेस छोड़ रीवा रियासत के महाराज पुष्पराज सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया है। पुष्पराज रीवा सीट से 3 बार विधायक रहे हैं। वे दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में भी रहे थे। साल 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी राजेंद्र शुक्ल ने हराया। इसके बाद से पुष्पराज सिंह की राजनीति ठंडी पड़ गई थी।
पुष्पराज सिंह के बेटे दिव्यराज सिंह भाजपा के टिकट पर लगातार दूसरी बार विधायक चुने गए हैं। भाजपा में शामिल होने पर पुष्पराज सिंह ने कहा कि कांग्रेस उनके साथ धोखा कर रही थी। टिकट का आश्वासन देने के बाद भी उनका टिकट काट दिया जाता था।
धीरज पटेरिया: 29 मई को भारतीय जनता युवा मोर्चा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने कांग्रेस छोड़कर दोबारा भाजपा जॉइन की। धीरज 2018 में जबलपुर से विधायक का निर्दलीय चुनाव लड़ चुके हैं। चुनाव में इन्होंने भाजपा को नुकसान पहुंचाया था। पूर्व मंत्री शरद जैन को हार का सामना करना पड़ा था।
शिवराज सिंह यादव: 17 फरवरी को ग्वालियर पहुंचे CM शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें भाजपा की सदस्यता दिलाई थी। शिवराज सिंह यादव के साथ कांग्रेस के करीब 1 हजार कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हुए थे। शिवराज ग्वालियर में ओबीसी वर्ग के बड़े नेता माने जाते हैं। वे युवा नेता जिला पंचायत सदस्य के अलावा कांग्रेस के खेल प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे हैं। इनको भाजपा में लाने में मंत्री भरत कुशवाह की मुख्य भूमिका रही।
दुर्गेश वर्मा: 2 जनवरी 2023 को मध्यप्रदेश आदिवासी कांग्रेस के पूर्व प्रदेश सचिव और धार जिला कांग्रेस कमेटी के पूर्व प्रवक्ता ने प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा की मौजूदगी में कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा। वे धार जिले के डही क्षेत्र में कांग्रेस के कद्दावर नेता माने जाते हैं। वर्मा की माताजी फूलकुंवर बाई मंडी डायरेक्टर एवं डही के गाजगोता में सरपंच रही हैं। दुर्गेश वर्मा की बहन नगर परिषद डही की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं।
2022 के अंत में दो बड़े नेताओं ने छोड़ दिया था भाजपा का साथ
इससे पहले साल 2022 के अंत यानी 25 नवंबर को कमलनाथ के राइट हैंड माने जाने वाले उनके मीडिया समन्वयक नरेंद्र सलूजा ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। ये तब हुआ था, जब मध्य प्रदेश में राहुल गांधी की 5 दिन की भारत जोड़ो यात्रा का तीसरा दिन था। सलूजा सिख समुदाय से आते हैं और इंदौर के रहने वाले हैं। वे कमलनाथ के साथ लंबे समय से जुड़े हुए थे।
श्योपुर जिले की विजयपुर विधानसभा के पूर्व विधायक बाबूलाल मेवरा अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए थे। केंद्रीय कृषि मंत्री व मुरैना-श्योपुर सांसद नरेंद्र सिंह तोमर ने मेवरा और उनके समर्थकों को पार्टी की सदस्यता दिलाई। दल बदलने की ये प्रक्रिया एमपी में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के 5वें दिन हुई थी।
एक्सपर्ट …. ये सारा टिकट पाने का खेल है
वरिष्ठ पत्रकार …कहते हैं, ‘ये पहले से तय था कि चुनाव के वक्त सिंधिया कैंप में भगदड़ मचेगी। वे वापस कांग्रेस में आएंगे। जो नेता भाजपा छोड़ रहे हैं, उनको पूरा अंदाजा है कि इन चुनावों में भाजपा उनको टिकट नहीं देगी। इनमें कई बड़े सिंधिया समर्थक हैं, जिनको लगता है कि साढ़े तीन साल से वो उपेक्षित रहे हैं इसलिए उन्होंने ऐसा फैसला लिया। ये सभी लोग सिर्फ सिंधिया समर्थक टैग बनकर रह गए थे। ये भाजपा के नेता बन ही नहीं पाए। सबको ये बात तय लगी कि इन चुनावों में न उनकी राय चलेगी, न ही कोई बात मानी जाएगी। इस कारण उन्होंने अपनी पुरानी पार्टी यानी कांग्रेस का रुख किया।
[टिकट के लिए पार्टी छोड़ रहे विधायक-पूर्व विधायक:भाजपा के 31 बड़े नेता कांग्रेस में, इनमें 25% सिंधिया समर्थक; कांग्रेस से जाने वालों में पूर्व मंत्री भी ]
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दलबदल के जाल से बचने के लिए नेताओं ने ढूंढ लिए जुगाड़ू तरीके
गत 15 दिनों में भारतीय राजनीति में वही सब दिखा जो अब तक कई बार दोहराया जा चुका है-अर्थात सरकार गिराने के लिए विद्रोही विधायकों को एक आलीशान सुरक्षित रिजॉर्ट में ले जाया
गत 15 दिनों में भारतीय राजनीति में वही सब दिखा जो अब तक कई बार दोहराया जा चुका है-अर्थात सरकार गिराने के लिए विद्रोही विधायकों को एक आलीशान सुरक्षित रिजॉर्ट में ले जाया गया। इस बार निशाने पर महाराष्ट्र सरकार थी जिसके विरुद्ध शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था। यदि अन्य देशों के संविधान की तरफ देखें तो ब्रिटिश संसद के सदस्य किसी भी समय राजनीतिक दलबदल कर सकते हैं। इसे वे ‘क्रास ओवर’ कहते हैं यानी सरकार की ओर से उठ कर विपक्षी सीटों पर जा बैठना। 54 देशों के कॉमनवैल्थ में मात्र 23 देशों में दलबदल विरोधी कानून हैं और उनमें से भारत में ही यह सबसे कठोर है।
भारत में जवाहर लाल नेहरू के बाद से दलबदल शुरू हुआ जब कांग्रेस को अन्य दलों का सामना करना पड़ा और इसके साथ ही ‘आया राम गया राम’ की रिवायत शुरू हुई। वर्षों की लम्बी बहस के बाद 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दलबदल विरोधी कानून’ पारित किया गया और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। हालांकि 2003 में इसमें एक बार फिर संशोधन हुआ।
इसमें प्रावधान है कि ‘अपनी मूल पार्टी की सदस्यता स्वेच्छा से छोडऩे’ के लिए सदस्य को सदन से अयोग्य ठहराया जा सकता है। इसके अलावा अपनी पार्टी द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरीत मतदान करने या मतदान में हिस्सा न लेने के लिए सदन से निष्कासन की अनुमति है परंतु विचारणीय प्रश्र यह है कि क्या यह कानून भारत में सफल रहा है?
जैसा कि भारतीयों को बड़ा जुगाड़ू माना जाता है, हमारे नेताओं ने भी इस कानून से बच कर पार्टी बदलने के तरीके तलाश कर लिए हैं। एक आम तरीका यह है कि सत्तारूढ़ दलबदल कानून को ताक पर रख कर विपक्षी दल के विधायकों को तोड़ता है। जब पीड़ित दल उन्हें अयोग्य ठहराने के लिए स्पीकर के पास जाता है तो स्पीकर कुछ नहीं करते। जैसे कि मणिपुर में 2017 में विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद कांग्रेस के 7 विधायक भाजपा में शामिल हो गए। स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट के 4 सप्ताह के भीतर निपटारा करने के निर्देश के बावजूद उन्हें अयोग्य करने की याचिका को 2 साल तक लटकाए रखा। अंतत: सुप्रीम कोर्ट को दखल देते हुए मंत्री टी. श्यामकुमार सिंह को मंत्रिमंडल से हटाने के लिए विशेष अधिकारों का उपयोग करना पड़ा था।
हाल के वर्षों में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बड़ी संख्या में विरोधी दलों के विधायक सत्तारूढ़ दल में शामिल हुए लेकिन उन्हें अयोग्यता का सामना नहीं करना पड़ा। कर्नाटक में 2010 में भाजपा के विद्रोही विधायकों के एक गुट ने मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पा को पद से हटाने के लिए राज्यपाल से भेंट करके ‘विशेष संवैधानिक प्रक्रिया’ शुरू करने को कहा परंतु स्पीकर ने उन्हें स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोडऩे का आधार बना कर अयोग्य करार दे दिया। हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के इस फैसले को पलट दिया। इस आधार पर 2017 में अन्नाद्रमुक के 18 विधायकों के गुट को तत्कालीन मुख्यमंत्री पलानीसामी के विरुद्ध राज्यपाल से मिलने पर स्पीकर ने अयोग्य करार दे दिया।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि दलबदल कानून का देश में जरा भी पालन नहीं हो रहा है। इस कानून की असफलता के लिए कुछ विशेष कारण जिम्मेदार हैं। इसे लेकर पहली गलती है स्पीकर की ओर से विद्रोही विधायकों को अयोग्य ठहराने के विरुद्ध जवाब देने के लिए अधिक मोहलत देना। क्यों न इसके लिए 2 दिन ही दिए जाएं! ऐसे में स्पीकर का निष्पक्ष होना अनिवार्य है।
दूसरी गलती चूंकि सुप्रीम कोर्ट की है जो अक्सर इन मामलों में फैसला लेने में लम्बा समय लेती है। इससे विधायकों को तोडऩे तथा जोड़-तोड़ करने का समय मिलता है। साथ ही ऐसा करने वालों के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं है। ये दो बड़े कारण हैं जिनकी वजह से दलबदल कानून का उल्लंघन हो रहा है क्योंकि जब किसी सरकार को अल्पमत में लाने के लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ की बात आती है तो समय बहुत महत्वपूर्ण होता है।
महाराष्ट्र में शिवसेना के असंतुष्ट विधायकों को दलबदल विरोधी कानून के अंतर्गत डिप्टी स्पीकर के नोटिस का जवाब देने के लिए 12 जुलाई तक का समय देने के आदेश से सुप्रीम कोर्ट ने उनके लिए अयोग्यता के खतरे के बिना अपना उद्देश्य पूरा करना संभव बना दिया। कई लोगों का मत है कि हमें दलबदल कानून को ही समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि इसका कोई लाभ नजर नहीं आता।
क्यों न विधायकों को अधिकार दे दिया जाए कि वे जिसका चाहे समर्थन करें, या जिसे भी वोट देना चाहें दे सकें क्योंकि ऐसा न करके हम उन्हें उनकी पार्टी का ही गुलाम बना देते हैं जो उनकी अभिव्यक्ति के अधिकार को भी समाप्त करता है। पर अभी हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं है कि ऐसा किया जा सके। यहां परिपक्वता का अर्थ केवल लोकतंत्र के पुराने होने से ही नहीं है, देखना यह है कि क्या हमारे नेताओं में इतनी ईमानदारी व नैतिकता है कि वे अच्छाई-बुराई तथा अराजनीतिक मुद्दों को सामने रखकर देश हित में निष्पक्ष फैसले ले सकें?
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दलबदल की बढ़ती प्रवृत्ति वोटर के बीच नेता की विश्वसनीयता के लिए घातक
नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है. किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है, वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता. इसका असर विभिन्न स्तर के चुनावों में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट के तौर देखा जा सकता है.
दल बदल की प्रवृत्ति से नेताओं के प्रति वोटर के मन में विश्वास का संकट गहराना लोकतंत्र के लिए खतरा.
मध्यप्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनाव के बाद ऐसे दृश्य बड़ी संख्या में देखने को मिले हैं, जिसमें जीत का प्रमाण पत्र मिलने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधि ने उस दल को छोड़ दिया, जिसके सिंबल पर वह चुना गया. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को अपने नव निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को पाले में बनाए रखने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी. चुनाव के तत्काल बाद जिस तरह से निर्वाचित प्रतिनिधियों ने दलबदल किया उसके बाद वोटर की बीच उसकी छवि पर भी विपरीत असर पड़ा है. दल बदल की बढ़ती प्रवृति लोकतंत्र के लिए भी घातक मानी जा रही है.
नगरीय निकाय में दल बदल रोकने कोई कानून नहीं है
देश के किसी भी राज्य में ऐसा कोई कानून नहीं है जो स्थानीय निकायों के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को दलबदल करने से रोकता हो. अभी सांसद और विधायकों के दलबदल को रोकने वाला ही कानून देश में लागू है. इसके बाद भी देश में बढ़ी संख्या में विधायक दल बदल करते देखे जा सकते हैं. कई राज्यों में बहुमत वाली सरकारें दल बदल के कारण अल्पमत में आईं. बाद में उस दल की सरकार बनी जिसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया था. कर्नाटक और मध्यप्रदेश में भी विधायकों के इस्तीफे दिए जाने के कारण सरकारें अल्पमत में आईं. मौजूदा दल बदल कानून विधायकों को इस्तीफा देने से नहीं रोकता है.
सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित व्यक्ति यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता. विधायकों और सांसदों के दल बदल में अब यही पैटर्न देखने को मिल रहा है. लेकिन, निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं.
पार्षदों के दल बदल से सत्ताधारी दल को भी लगी चोट
मध्यप्रदेश के नगरीय निकाय के चुनाव के बाद पार्षदों की घेराबंदी भी उसी तरह हो रही थी, जिस तरह सरकार बनाने और गिराने के लिए विधायकों की जाती है. मध्यप्रदेश में नगरीय निकाय के चुनाव की दो अलग-अलग व्यवस्था लागू हैं. नगर निगम में महापौर का चुनाव जनता सीधे करती है. जबकि नगर परिषद में अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों द्वारा किया जाता है.
मध्यप्रदेश के अधिकांश बड़े शहरों में भारतीय जनता पार्टी के निर्वाचित पार्षदों की संख्या ज्यादा है. लेकिन, कुछ स्थानों पर महापौर कांग्रेस का निर्वाचित हुआ अथवा निर्दलीय या अन्य दल के उम्मीदवार को जीत मिली. परिषद के सभापति का चुनाव पार्षदों द्वारा किया जाता है. सभापति के चुनाव के अलावा नगर परिषद के अध्यक्ष के चुनाव में भी राजनीतिक दलों को अपने पार्षदों की घेराबंदी करना पड़ी. इसके बाद भी कई स्थानों पर बहुमत के बाद भी राजनीतिक दल अपना अध्यक्ष अथवा सभापति निर्वाचित नहीं करा सके.
सबसे बढ़िया उदाहरण शिवपुरी जिले की पिछोर नगर पालिका परिषद का है. यहां बहुमत भाजपा का था लेकिन, पार्षदों ने अध्यक्ष कांग्रेस का चुना. यह उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि क्रॉस वोटिंग कांग्रेस के पक्ष में हुई. जबकि देश में सरकारें गिराने और दल बदल कराने के सबसे ज्यादा आरोप भारतीय जनता पार्टी पर लग रहे हैं. राष्ट्रपति के चुनाव में भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की ओर से क्रॉस वोटिंग हुई थी.
नेताओं की विश्वसनीयता घटाने में दल बदल की भूमिका का असर
नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है. यद्यपि आजादी के बाद से ही नेताओं की छवि पर सवाल खडे होते रहे हैं. जन सेवा का भाव ही नेताओं के एजेंडे से गायब होता जा रहा है. किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है,वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता. देश में लगातार दल बदल की घटनाओं के साथ नेताओं के व्यक्तिगत हित की चर्चा भी व्यापक तौर पर होती है. असर विभिन्न स्तर के चुनाव में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट के तौर देखा जा सकता है.
मध्यप्रदेश के हाल ही में संपन्न हुए नगरीय निकाय के चुनाव में साठ प्रतिशत से भी कम वोटिंग ने नेताओं की नींद उड़ा दी थी. नेताओं की घटती विश्वसनीयता के कारण ही वोटिंग मशीन में नोटा का बटन जुड़ने को बड़ा कारण माना गया था. कई चुनावों में तो नोटा के खाते में आए वोटों से हार-जीत का गणित बदलते देखा गया.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए agrit patrika उत्तरदायी नहीं है.)
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ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद मध्य प्रदेश के 22 कांग्रेस विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया. अब अटकलें लगाई जा रही हैं कि ये लोग बीजेपी में शामिल हो सकते हैं. वहीं मध्य प्रदेश कांग्रेस का दावा है कि बीजेपी के भी कुछ विधायक उनके संपर्क में हैं.
ये मामला नया नहीं है. कर्नाटक समेत दूसरे राज्यों में पहले भी ऐसा हो चुका है कि विधायक अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी का दामन थाम लेते हैं.
हालांकि ऐसे बाग़ी विधायकों को दल-बदल करने से रोकने के लिए एक क़ानून मौजूद है. दल बदल क़ानून कहता है कि स्वेच्छा से पार्टी छोड़ने वाले विधायक या सांसद की सदस्यता ख़त्म हो सकती है.
संविधान के जानकार कहते हैं कि 1985 में ये कानून आने के बाद कुछ हद तक तो दल बदल पर लगाम लगी, लेकिन अब लग रहा है कि ये क़ानून काफ़ी नहीं है.
संविधान विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, “पहले गोवा, मणिपुर, झारखंड जैसे छोटे राज्यो में ये हो रहा था. लेकिन अब बड़े-बड़े राज्यों में चुनाव का मतलब ख़त्म होता जा रहा है. जनता किसी पार्टी को चुनती हैं, फिर उस पार्टी के लोगों को दूसरी पार्टी अपने पैसे के बूते या सत्ता का ग़लत इस्तेमाल कर अपनी तरफ आकर्षित कर लेती है और वो लोग उस पार्टी से टूटकर दूसरी पार्टी में चल जाते हैं. ये जनादेश के साथ खिलवाड़ है.”
मध्य प्रदेश के हालिया घटनाक्रम से पहले पिछले साल कर्नाटक में भी ये सब हो चुका है. वहां भी कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार को संकट में डालते हुए 17 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था.
लेकिन कर्नाटक के विधानसभा अध्यक्ष ने तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के विश्वासमत से पहले ही 14 विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया था. वो तीन को पहले ही अयोग्य ठहरा चुके थे. कुल 17 विधायकों को अयोग्य घोषित किए जाने से कर्नाटक विधानसभा में सदस्यों की संख्या 225 से घटकर 208 हो गई है. और बहुमत का आँकड़ा 105 हो गया था.
हालांकि बाग़ी विधायकों ने विधान सभा अध्यक्ष के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. उन्होंने कहा कि हमने तो इस्तीफा दे दिया है, अब हमें अयोग्य क्यों ठहराया जा रहा है. लेकिन कोर्ट ने कहा कि इस्तीफे का मतलब ये नहीं है कि आपको अयोग्य ना ठहराया जाए.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि स्पीकर को ये अधिकार नहीं है, कि वो सदन की बची हुई अवधि तक बाग़ी विधायकों की सदस्यता निरस्त कर दे. यानी अयोग्य ठहराते वक्त स्पीकर को ये अधिकार नहीं होगा कि वो बाग़ी विधायकों के विधान सभा के बचे हुए कार्यकाल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दे.
इसके बाद कर्नाटक में कुछ महीनों में दोबारा चुनाव कराए गए. इसमें बागी हुए विधायक भी बीजेपी के टिकट से लड़े और कई जीत भी गए. मुस्तफा कहते हैं कि मध्य प्रदेश में भी ऐसा हो सकता है, तो ऐसे में दल बदल क़ानून अब बेमानी होता लगता है.
वो कहते हैं कि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से दल बदल आसान हो गया है.
‘कानून में बदलाव की ज़रूरत’
फैज़ान मुस्तफा के मुताबिक़ दल बदल क़ानून में बदलाव लाने की ज़रूरत है.
वो कहते हैं, “क़ानून में संशोधन कर ये प्रावधान किया जाना चाहिए कि दल बदल करने वाला विधायक पूरे पांच साल के टर्म में चुनाव नहीं लड़ सकता. या फिर वो अविश्वास प्रस्ताव में वोट देंगे तो तो वोट काउंट नहीं किया जाएगा.”
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि दल-बदल क़ानून के दायरे से बचने के लिए विधायक या सांसद इस्तीफा दे रहे हैं. लेकिन ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि जिस पीरियड के लिए वो चुने गए थे, अगर उससे पहले उन्होंने स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया, तो उन्हें उस वक्त तक चुनाव नहीं लड़ने दिया जाएगा.
वो कहते हैं, “देशव्यापी कोई बहुत बड़ी वजह हो, आदर्शों की बात है या कोई बहुत उसूलों की बात है. तब तो ठीक है, लेकिन बिना वजह त्याग पत्र देने के बाद अगला चुनाव आप फिर से लड़ रहे हैं. तो ये तकनीकी तौर पर तो सही है. लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये सारे लोग कानून में बारूदी सुरंग लगा रहे हैं. किसी भी कानून को तोड़ने वाले उसका तरीका निकाल लेते हैं, यहां जो तोड़ निकाला गया है, उसे रिसॉर्ट संस्कृति का नाम दिया जा रहा है.”
क्या है दल बदल क़ानून
दल-बदल क़ानून एक मार्च 1985 में अस्तित्व में आया, ताकि अपनी सुविधा के हिसाब से पार्टी बदल लेने वाले विधायकों और सांसदों पर लगाम लगाई जा सके.
1985 से पहले दल-बदल के ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं था. उस समय ‘आया राम गया राम’ मुहावरा ख़ूब प्रचलित था.
दरअसल 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली, जिसके बाद ‘आया राम गया राम’ प्रचलित हो गया.
लेकिन 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इसके ख़िलाफ़ विधेयक लेकर आई.
1985 में संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. ये संविधान में 52वाँ संशोधन था.
इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाई गई. इसमें ये भी बताया गया कि दल-बदल के कारण इनकी सदस्यता भी ख़त्म हो सकती है.
कब-कब लागू होगा दल-बदल क़ानून
1. अगर कोई विधायक या सांसद ख़ुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है.
2. अगर कोई निर्वाचित विधायक या सांसद पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ जाता है.
3. अगर कोई सदस्य पार्टी व्हिप के बावजूद वोट नहीं करता.
4. अगर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है.
विधायक या सांसद बनने के बाद ख़ुद से पार्टी सदस्यता छोड़ने, पार्टी व्हिप या पार्टी निर्देश का उल्लंघन दल-बदल क़ानून में आता है.
लेकिन इसमें अपवाद भी है…
अगर किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें, तो उनकी सदस्यता ख़त्म नहीं होगी.
वर्ष 2003 में इस क़ानून में संशोधन भी किया गया. जब ये क़ानून बना तो प्रावधान ये था कि अगर किसी भूल पार्टी में बँटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी.
लेकिन इसके बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फ़ायदा उठाया जा रहा है. इसलिए ये प्रावधान ख़त्म कर दिया गया.
इसके बाद संविधान में 91वाँ संशोधन जोड़ा गया. जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया.
विधायक कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गँवाने से बच सकते हैं. अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी.
ऐसी स्थिति में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं.
तो इन परिस्थितियों में नहीं लागू होगा दल बदल क़ानून:
1. जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है.
2. अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं.
3. अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते है.
4. जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं.
स्पीकर के फ़ैसले की हो सकती है समीक्षा
10वीं अनुसूची के पैराग्राफ़ 6 के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फ़ैसला आख़िरी होगा. पैराग्राफ़ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता. लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ़ 7 को असंवेधानिक क़रार दे दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फ़ैसले की क़ानूनी समीक्षा हो सकती है.
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दल-बदल
दल-बदल का अभिप्राय –
- यदि कोई निर्वाचित सांसद या विधायक यदि अपने दल की सदस्यता का परित्याग करता है तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य हो जायेगी।
- यदि सदन में दल के निर्देश के विरुद्ध सांसद या विधायक कार्य करता है या निर्देश के विरुद्ध मतदान करना या ना करना तब भी अयोग्य घोषित कर दिया जायेगा लेकिन सामान्य विधेयक पर यह स्थिति लागू नहीं होती ।
सदन में तीन प्रकार के सदस्य होते है – (i) किसी दल के निर्वाचित सदस्य
जो किसी दल से निर्वाचित हो कर आया है दल के निर्देश की अवहेलना कर दिया हो तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य कर दी जायेगी ।
(ii) स्वतंत्र निर्वाचित सदस्य (निर्दलीय सदस्य) –
यदि निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी दल की सदस्यता प्राप्त कर ले तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य हो जायेगी ।
(iii) मनोनीत सदस्य – यदि मनोनीत सदस्य छ माह के बाद किसी दल की सदस्यता प्राप्त कर ले तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य घोषित कर दी जायेगी ।
दल बदल की समस्या:- (१) सरकार के अस्थायी होने का खतरा अर्थात् बार-बार चुनाव करवाना पड़ेगा जो कि यह गम्भीर समस्या बन जायेगी इसके लिए संसदीय शासन न हो कर बल्कि अध्यक्षीय शासन करना पड़ेगा । (२) आया राम गया राम की तरह दल हो बदलना जिन्होंने एक ही दिन में 6 पार्टी बदली थी । (३) जब निर्वाचन होता है तो हर एक दल अपना चुनावी घोषणा पत्र लाता है जिसे मेंनीफेस्टो कहते है अगर इस पर चुना जीता और वह दल को छोड़ रहा हो तो यह जनादेश का भी उल्लघंन करता है चुकी मतदाता एक विशेष व्यक्ति को मतदान नहीं देते बल्कि दल या पार्टी को मतदान देते है ।
दल बदल के कुछ अपवाद:- (१) सदन का स्पीकर अर्थात् अध्यक्ष । (२) यदि किसी राजनीतिक दल के द्वारा किसी सांसद या विधायक को स्वयं अपने दल से निष्कासित कर दिया जाए । (३) या किसी दल के निर्वाचित सदस्यो के 2/3 सदस्य अन्य दल में विलय हो जाए या कोई नया दल बना लें तो भी उनकी सदस्यता रद्द नहीं होगी ।
दल बदल का मुख्य उद्देश्य:- (१) सरकार के अस्थायित्व को रोकना । (२) सांसद या विधायक दल के निर्देश के अधीन होना । (३) कभी-कभी दल का हित जनता की इच्छा से महत्वपूर्ण हो जाना ।
निर्धारण:- सदस्यता रद्द या अयोग्य घोषित करना केवल स्पीकर कर सकता है जिसमे स्पीकर निष्पक्ष कार्य करता है लेकिन इस पर भी विवाद भी हो गया क्योंकि कभी-कभी स्पीकर दल के हितों की ध्यान में रख कर अयोग्य घोषित करने में विलंब कर देती हैं।
इन सब विवादों पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय :- (१) किहोतो होलोहान वाद (1994) :- इसमें यह कहा गया की —
(i) स्पीकर का निर्णय न्यायिक पुरनावलोकन के अन्तर्गत देखा जा सकता है। (ii) जब किसी सांसद या विधायक को अयोग्यता का निर्धारण करता है तब स्पीकर केवल एक अर्द्ध न्यायिक संस्था के रूप में करता है क्योंकि स्पीकर सदन की संचालन के प्रकिया का निर्धारण भी करता है ।
(२) नाबेम राविया वाद :- (i) यदि स्पीकर को पद से हटाने की नोटिस दे दी गई है तो स्पीकर किसी को अयोग्य घोषित नहीं कर सकता।
परिणाम:-
{१} यह संसदीय शासन में प्रतिकूल है। {२} उच्चतम न्यायालय द्वारा - (i) दल बदल,संसदीय शासन एक दूसरे के पूरक है जिसको कुलदीप नैयर वाद में कहा गया है। (ii) दल बदल का प्रयोग चयनात्मक रूप में होना चाहिए । किसी सामान्य विधेयक पर विचारक के लिए नहीं, इसका प्रयोग वहा हो जहां सरकार गिरने का खतरा हो