अकेला ज्योतिर्लिंग जहां शिव के साथ ब्रह्मा-विष्णु ..सफेद कपड़े में होती काल सर्पयोग की पूजा
अकेला ज्योतिर्लिंग जहां शिव के साथ ब्रह्मा-विष्णु:शीशे में दर्शन करते हैं भक्त, सफेद कपड़े में होती काल सर्पयोग की पूजा
महाराष्ट्र के नासिक शहर से लगभग 30 किलो की दूरी पर त्र्यंबक गांव की तरफ मैं जा रही हूं।
रिमझिम-रिमझिम बारिश की फुहारों से आसपास के पहाड़ गहरे और चटख हरे रंग के दिखाई दे रहे हैं। हल्की-सी ठंड महसूस हो रही है।
लगभग 45 मिनट का रास्ता तय करने के बाद मैं त्र्यंबक गांव पहुंचती हूं।
पहाड़ी बाजार के एक होटल में कमरा मैंने लिया।
जब मैं होटल पहुंची तब पता लगा कि रात के 8.30 बजे के बाद मंदिर के कपाट बंद हो चुके हैं इसलिए ज्योतिर्लिंग के दर्शन अब सुबह हो पाएंगे।
दरअसल त्र्यंबकेश्वर देश का 10वां ज्योतिर्लिंग है। इस ज्योर्तिलिंग में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही मौजूद हैं, यही इसकी विशेषता है।
मुझे ज्यादा कौतुहल था यहां होने वाले कालसर्प योग की पूजा देखने का।
सुबह-सुबह उठकर मैं मंदिर की ओर निकल पड़ी। वहां पहुंचते ही लंबी लाइन दिखी। पता चला कि सुबह चार बजे से लाइन लगनी शुरू हो जाती है।
बारिश हो रही थी। ऐसे में लाइन में खड़ा होना मुझे मुनासिब नहीं लगा तो मैं कालसर्प योग की पूजा देखने के लिए चली गई।
यहां के स्थानीय पंडित कमलाकर अकोलकर जी ने मुझे सुबह से ही बुलाया था। मैं उनके घर पहुंच गई। उनका घर परंपरागत शैली में बना हुआ है।
इसे बनाने में मिट्टी और लकड़ी का इस्तेमाल हुआ है। संकरी सड़क के किनारे कई पंडितों के परंपरागत मकान बने हुए हैं।
घर के बाहर ही मैंने जूते उतारे और तंग-सी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गई। अकोलकर जी ने मुझे एक और मंजिल ऊपर जाने के लिए कहा।
वहां जाकर मैंने देखा कि एक साथ दस लोगों की कालसर्प योग की पूजा चल रही है। जिनकी पूजा की जा रही है सभी ने एक जैसे ही सफेद रंग के नए कपड़े पहने हुए हैं।
मैंने पूछा क्या नए कपड़े में ही पूजा होती है? अकोलकर जी कहते हैं, ‘हां। ऐसा जरूरी है। जो लोग अपने साथ कपड़े नहीं ला पाते वह यहां से खरीद सकते हैं।
दरअसल जिन कपड़ों में कालसर्प योग की पूजा होती है उन्हें पूजा के बाद यहीं उतारकर जाना होता है। उन्हें आप अपने साथ नहीं ले जा सकते हैं।’
मैंने देखा की पूजा सामग्री में अनगिनत फल, कई प्रकार के अनाज, हल्दी, कुमकुम, चंदन, काला तिल, पान पत्ता, सुपारी, चावल, गेंहू, अगरबत्ती, पंचामृत, चांदी और सोने के नाग हैं।
जिनकी पूजा हो रही है उनमें से कोई आंध्रा से आया है, कोई मध्यप्रदेश से, कोई गाजीपुर से तो कोई महाराष्ट्र के ही दूसरे इलाकों से।
जिस स्थान पर पूजा हो रही है, उसकी दीवार और छत एक दम काली पड़ चुकी हैं। मैं इसकी वजह पंडित कमलाकर अकोलकर से पूछती हूं।
वो कहते हैं कि यहां सदियों से दिनभर सिर्फ कालसर्प योग की पूजा हो रही है। हवन की अग्नि से सारी दीवार काली पड़ जाती हैं।
कमोबेश यहां हर पंडित के घर ऐसे ही हैं। सभी पंडितों ने पूजा के लिए घर की ऊपरी मंजिल पर एक हॉल छोड़ रखा है, जहां एक साथ कई लोगों बैठकर पूजा कर सकते हैं।
उसके बाद मैं अकोलकरजी के साथ मंदिर की ओर बढ़ती हूं। वो यहां के पुजारी हैं तो वो मुझे मंदिर के पीछे के रास्ते से लेकर गए। अंदर जाने पर सबसे पहले भोगस्थल आया, जहां भोलेनाथ के लिए भोग बनता है।
पीछे के रास्ते से मैं पंडित जी के साथ मंदिर परिसर में दाखिल होती हूं। सह्याद्री पर्वतमाला की तलहटी में बसे मंदिर के परिसर में लोग आंखें मूंदकर ध्यानमग्न दिखे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे वो भगवान शिव से बातचीत कर रहे हैं।
चूंकि मैं लाइन में नहीं लगी हूं तो मुझे दर्शन जल्दी होने की संभावना है। नहीं तो आज का दिन लाइन में खड़े-खड़े ही बीत जाता।
गर्भ गृह के पास पुलिसकर्मी समेत काफी भीड़ है। बहुत मुश्किल से एक पुलिसवाले ने मुझे भीड़ में घुसाया और कहा कि मैडम सामने शीशा देख लें। मुझे अटपटा-सा लगा कि क्या मतलब है कि शीशा देख लें।
उसने समझाया कि गर्भगृह चार सीढ़ी नीचे उतरने के बाद आता है। वो स्थान बहुत छोटा है। वहां ज्यादा लोग एकत्र नहीं हो सकते हैं। इसी वजह से अंदर कोई नहीं जाता।
मैंने शीशे में दर्शन किए और सीढ़ियों के नीचे झांक भी लिया। देखा कि यह एक ऐसा शिवलिंग है जिसमें शालूंका (शिवलिंग का ऊपरी उभरा हुआ हिस्सा ) नहीं है। शालूंका की जगह इसमें छोटा सा गड्डा है।
कहते हैं कि इस गड्डे में भगवान शंकर, ब्रह्मा और विष्णु तीनों एक साथ विराजमान हैं। बाकी के ज्योतिर्लिंग में सिर्फ भगवान शिव ही विराजमान हैं।
इस गड्डे में प्राकृतिक तौर पर वृद्ध गंगा यानी गोदावरी के जल से अभिषेक होता रहता है।
दर्शन करने के बाद मैंने मंदिर परिसर में देखा कि सामने कई अभिषेक हो रहे हैं, कई लोग अपनी-अपनी पूजा करवा रहे हैं। मुझे ये भी बताया गया कि इस मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है जो और कहीं नहीं होती।
त्रिकाल पूजा के महत्व पूछने पर पुजारी अकोलकरजी एक कहानी सुनाते हैं, ‘स्थानीय मान्यता के अनुसार इस पर्वत पर गौतम ऋषि शिव की तपस्या किया करते थे। वह शिव के चमत्कारी भक्त थे।
उनके पास ऐसी सिद्धियां थी कि अगर वह सुबह धान बोया करते थे और वह दोपहर में तैयार हो जाया करता था। फिर शाम को वह वही धान खाते थे।
गौतम ऋषि का यश चारों दिशाओं में था। उनकी बढ़ रही प्रसिद्धि से बाकी के ब्राह्मण चिढ़ने लगे थे। उन सबने मिलकर भगवान गणेश की पूजा की।
गणेश ने उनसे वर मांगने को कहा। इस पर वो सब कहने लगे कि कुछ उपाय बताएं, जिससे गौतम ऋषि का यश कम किया जा सके।
गणेश ऐसा करना नहीं चाहते थे। उन्होंने सभी को बहुत समझाया। ब्राह्मण जिद पर अडे़ रहे। इसके बाद गणेश राजी हो गए। उन्होंने एक गाय का रूप लिया और गौतम ऋषि की खेत में उनका बोया धान चरने लगे। ऋषि ने कहा कि रुको।
यह धान शाम में बच्चों को खिलाना है। गाय नहीं मानी तो गौतम ऋषि एक तिनका लेकर गाय के पीछे भागे। गाय ने मरने का नाटक किया। गाय के मरने गौतम ऋषि दुखी हो गए, उन पर गाय मारने का पाप चढ़ गया था।
धीरे-धीरे वहां बाकी साधु-ब्राह्मण आ गए। उनकी आलोचना शुरू कर दी। साधुओं ने उनसे कहा कि तुम तभी दोषमुक्त हो पाओगे जब शिव के मस्तक पर सजी गंगा में स्नान करोगे।
गौतम ऋषि ने खूब तप किया और शिव को प्रसन्न कर लिया। शिव ने दर्शन दिए और कहने लगे कि बताओ क्या चाहिए। उन्होंने कहा कि मुझे आपके मस्तक पर सज रही गंगा में स्नान करना है। भगवान शंकर ने गंगा को धरती पर आने का आदेश दिया। गंगा नहीं मानी।
शंकर भगवान ने बहुत कहा, लेकिन वह नहीं मानी। इस पर क्रोधित हुए शंकर भगवान ने सहयाद्री पर्वत श्रृंखला के इस ब्रह्मगिरी पर्वत पर अपनी जटाएं पटक दी। जिससे गंगा भी गिरकर नीचे आ गई।
जैसे ही गौतम ऋषि गंगा स्नान के लिए आगे बढ़े, गंगा क्रोधित हो गई। उसने अपना रुख बदल लिया और गुप्त हो गई। एक छींटा भी गंगा ने गौतम ऋषि पर पड़ने नहीं दिया। गंगा ने भगवान शंकर से कहा कि मैं एक ही शर्त पर उन्हें स्नान करने दूंगी अगर आप भी यहां मेरे साथ रह जाएं।
इस पर ब्रह्मा और विष्णु ने कहा कि हम शंकर के बिना नहीं रहेंगे, हम भी उनके साथ रहेंगे। इसके बाद गौतम ऋषि ने गंगा स्नान किया और वो गाय की हत्या के दोष से मुक्त हो गए। इस तरह सृष्टि को चलाने वाले तीनों भगवान त्र्यंबकेश्वर में रह गए। यही वजह है कि यहां त्रिकाल पूजा होती है।’
मंदिर सुबह कितने बजे से भक्तों के लिए खुल जाता है? मुख्य ट्रस्टी स्वप्निल बताते हैं कि सुबह चार बजे मंदिर में सेवा शुरू हो जाती है। भक्तों के लिए कपाट पांच बजे खुलता है। सुबह 9 बजे पांच पकवानों का भोग चढ़ता है। भोग लगाने के लिए 15 मिनट कपाट बंद होता है। इसके बाद दर्शन दोबारा से शुरू होता है। दोपहर की आरती के बाद शिव जी को नहलाकर दोबारा सुखाया जाता है। उसके बाद वापस श्रृंगार होता है।
मंदिर की व्यवस्था को एक ट्रस्ट देखता है। स्वप्निल बताते हैं कि इस मंदिर को 1755 में तीसरे पेशवा यानी बालाजी नाना साहिब पेशवा ने बनवाया था, जिसे बनने में कुल 31 साल लगे थे। मंदिर 1786 में बनकर पूरा हुआ था। कुल 786 कारीगरों ने इसे बनाने का काम किया था। मंदिर के लिए पत्थर राजस्थान से हाथी-घोड़ों पर मंगवाया गया था।
नासिक महाकुंभ दूसरे कुंभ से किस तरह अलग है?
बाकी जगह शाही स्नान के बाद सिर्फ कुंभ के दिनों में ही स्नान की मान्यता है लेकिन नासिक के त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में 12 महीने स्नान की मान्यता है। कहते हैं कि यहां स्नान करने से इंसान पाप और दोष से मुक्त हो जाता है।
यहां पितृदोष पूजा भी होती है। ये दो तरह की होती है। इसे त्रिपिंडी श्राद्ध भी कहते हैं। एक तीन दिन की और दूसरी एक दिन की। जिसे जो करवानी हो वह करवा लेता है। यह पूजा यहां के मशान में होती है। माना जाता है कि गौतमी गोदावरी पाप धुलवाने वाली नदी है जो कि यहीं बहती है।
यहां अहिल्या गोदावरी का संगम भी है। मैंने यहां के महाशमशान में जाकर देखा कि लोग पूजा करवा रहे हैं। मशान में भी सती का मंदिर है। पूजा करवाने वालों को सिर मुंडवाना पड़ता है। कुंड में स्नान करने के बाद भक्त गंगा मंदिर में भी दर्शन के लिए जाते हैं।
सावन माह में और हर सोमवार में त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग की सोने की बनी मुख मूर्ति को यहां कुशा कुंड में स्नान करवाने के लिए लाया जाया है। उस वक्त भक्तों का स्नान रोक दिया जाता है।
कुल मिलाकर छोटी-छोटी पूजा के सामान की दुकानें, हर ओर रुद्राक्ष, हर तरफ पूजा यह सब देखने के बाद कहा जा सकता है कि त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तथाकथित विकास से दूर है इसलिए खूबसूरत है और बाजारवाद की हवा का भी यहां असर नहीं है।