जेल में कैदियों की मौत की सबसे बड़ी वजह आत्महत्या ?
जेल में कैदियों की मौत की सबसे बड़ी वजह आत्महत्या, UP में सबसे ज्यादा मौतें, पढ़िए 3 अक्टूबर का आर्टिकल
जेल सुधार के लिए बनी सुप्रीम कोर्ट कमेटी की रिपोर्ट में ये पता चलता है कि कैदियों की अप्राकृतिक मौत में सबसे ज्यादा मामले ‘सुसाइड’ के हैं।
इन अप्राकृतिक मौत में (फांसी, जहर, खुद को घायल करना, दवाइयों का ओवेरडोज, आदि) और दूसरे कैदियों द्वारा किए जाने वाले हमले, असावधानी और एक्सीडेंट से होने वाली मौत (भूकंप, सांप का काटना, डूबना, गलती से कहीं से गिरना, आग से जल जाना, ड्रग आदि) वजहे हैं।
इन बढ़ते सुसाइड केस को देखते हुए NHRC ने जून में 21 पेज की एक रिपोर्ट यानी एक एडवाइजरी जारी की है, जिसमें बताया गया है कि कैसे सुसाइड मेडिकल के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य का भी मुद्दा है।
कहानियां कई और भी
इस साल अगस्त में जेल सुधार पर सुप्रीम कोर्ट कमेटी ने अप्राकृतिक मौत में बढ़ती उम्र की वजह से होने वाली या अन्य तरह की मौत के कारण पाए गए।
2017 से 2021 के बीच यूपी में जेल में हुई मौत के सबसे ज्यादा मामले रिकॉर्ड किए गए हैं। ये रिपोर्ट कहती है कि 2019 के बाद से कस्टडी में हुई मौतों के मामले बढ़े हैं और 2021 में ये सबसे ज्यादा रिकॉर्ड हुए हैं। वहीं अगर हम देखें तो प्राकृतिक मौत यानि बढ़ती उम्र की वजह से 1879 कैदी मरे हैं।
कैद में हुई इन मौतों को किस तरह न्यायोचित माना जाए ?
अप्राकृतिक मौत के ये मामले बहुत अलग हैं, इन अप्राकृतिक मौत में (फांसी, जहर, खुद को घायल करना, दवाईयों का ओवेरडोज, आदि) और दूसरे कैदियों द्वारा किए जाने वाले हमले, असावधानी और एक्सीडेंट से होने वाली मौत ( भूकंप, सांप का काटना, डूबना, गलती से कहीं से गिरना, आग से जल जाना, ड्रग आदि की वजह से) शामिल हैं। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (CHRI) की रिपोर्ट के अनुसार कैदियों में सामान्य आम लोगों से ज्यादा पाई गई है। जबकि एनसीआरबी (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार इन कैदियों की धर्म और जातियां अज्ञात थी यानि इसका कोई भी रिकॉर्ड हमें नहीं मिलता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय में क्या कहा
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम. बी. लोकुर ने एक जजमेंट में जेलों में इस खराब ढांचे की और सबका ध्यान आकर्षित किया था, जिसमें जस्टिस लोकुर ने कहा कि प्राकृतिक मौत और अप्राकृतिक मौत में NCB के आंकड़े साफ अंतर बताते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि किसी कैदी की मौत मेडिकल सुविधाओं की कमी या इलाज में देरी के कारण होती है, तो क्या हम उसकी मौत को (बीमारी की वजह से) प्राकृतिक मौत कहेंगे? या इसे अप्राकृतिक यानी ध्यान न देने की वजह से हुई मौत में गिना जाएगा।
वहीं, मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि इन मामलों की रिपोर्टिंग कम होती है इस वजह से भी इन मामलों में कुछ भी साफ नहीं हो पाता है और इन मौतों को प्राकृतिक मौत कह दिया जाता है।
PSI रिपोर्ट ने कोविड-19 महामारी के समय हुई मौतों को प्राकृतिक मौत माना था, उस समय जेलों में कैदियों की क्षमता 118% थी और पिछले वर्ष की तुलना में अब 40000 कैदी जेलों में बंद हैं। महामारी के समय ही स्वीकृत मेडिकल स्टाफ 1:125 का रेशो यानि एक मेडिकल स्टाफ पर 125 कैदी लेकिन आज 219 कैदी पर एक मेडिकल स्टाफ है।
इसके आलावा जैसा कि जस्टिस लोकुर ने जेल में हो रही मौत से को लेकर अपने स्टटमेंट में कहा कि ये मौत क्यों होती हैं और इनकी जांच किस तरह होती है? ये विषय इस बात से भी जुड़ा है कि जेलों में भीड़भाड़ कितनी है? और कैदियों के लिए मेडिकल सुविधाएं क्या हैं? और जो मेडिकल स्टाफ है, क्या वो पूरी तरह से ट्रेंड है?
PSI 2021 की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 5% मेडिकल स्टाफ पर खर्च किया जाता है। इसके अलावा 2016 से 2021 के बीच मेडिकल के लिए जो राशि दी गई थी, उससे भी कम राशि को खर्च किया गया है यानि 2016 में 6,727.30 करोड़ रुपए कैदियों पर खर्च किए गए हैं, जबकि निर्धारित राशि 7,619 करोड़ रुपए थी।
स्कॉलर मीनाक्षी डिक्रूज ने इस विषय में अपना तर्क देते हुए कहा कि जेलों में कैदियों के रहने की बुनियादी ढांचे की कमियों की वजह से ये मौत हो होती हैं। वो कहती हैं कि कैदियों की देखरेख से इनकार करने की वजह से ही ये अप्राकृतिक मौत होती हैं, जिन्हें ‘प्राकृतिक’ मौत बता दिया जाता है। कैदियों की ये अनदेखी एक साइकोलॉजी भी हो सकती है या लगातार स्वास्थ्य और फूड सुरक्षा भी इस अनदेखी का कारण हो सकता है।
2012 में 32 वर्षीय प्रताप कुटे को किसी और की संपत्ति हड़प लेने के चलते गिरफ्तार किया गया था, जिसकी जेल में एक महीने के भीतर ही मौत हो गई। उसकी मौत की वजह प्राकृतिक मौत बताई गई थी। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उनकी मौत की वजह गंभीर रूप से TB (‘Pulmonary Koch’s with Miliary Tuberculosis) का होना बताया गया। (जो व्यक्ति के शरीर के सभी अंगों को खोखला कर देता है) इस केस को नोट करते हुए डिक्रूज कहती हैं की इस बात का कोई सबूत नहीं है कि जेल में बंद करते समय किसी डॉक्टर ने विजिट किया हो या कैदी की कोई मेडिकल जांच की हो।
वहीं पुलिस ऑफिसर ने इस बात से इनकार कर दिया कि कुटे को किसी हॉस्पिटल में जांच के लिए भेजा नहीं भी गया तो उन्हें दुख नहीं होगा, इसका मतलब ये है कि पुलिस को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रताप की जान खतरे में थी।
2023 में हाई कोर्ट की बॉम्बे बेंच ने इस बात की निन्दा की थी कि पुलिस को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता और साथ ही कहा कि ये “पुलिस अधिकारियों और जेल अधिकारियों मानसिकता और असंवेदनशीलता को बताता है कि इन मौत की जांच किस तरह की जाती है?
कस्टडी में हुई मौत और रेप के मामले में जिला मजिस्ट्रेट की जगह न्यायपालिक मजिस्ट्रेट ( जिला मजिस्ट्रेट हेड) के सामने जांच करवाई जाती है। हालांकि, नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन 2010 की रिपोर्ट इस बात को कमजोर करती है क्योंकि इसके अनुसार यदि मामला संदिग्ध नहीं है और कोई सबूत नहीं है तो ‘न्यायिक मजिस्ट्रेट’ से जांच करवाना अनिवार्य नहीं है।
मिस डिक्रूज कहती हैं कि एक सही और भरोसेमंद डॉक्यूमेंटेशन, और इसमें बरती जाने वाली पारदर्शिता ही इसके लिए अधिकारियों को जवाबदेह बना सकती है। सिर्फ सही रिपोर्टिंग से ही ये साफ हो सकता है कि कैदी की मेडिकल कंडीशन कैसी थी? क्या उसे सही ट्रीटमेंट दिया गया था? मौत प्राकृतिक हैं या अप्राकृतिक ?
NCRB के अनुसार 1993 के बाद से यदि 24 घंटे के भीतर किसी कैदी की मौत होती है, तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट, पोस्टमार्टम वीडियोग्राफी रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को दी जाती है। इसके बाद यदि आयोग की रिपोर्ट में कैदी की मौत पुलिस की लापरवाही से होती है, तो केंद्र/राज्य सरकार से मृतक के सबसे करीबी परिजनों को मुआवजा दिलाया जाता है और लापरवाही करने वाले अधिकारी के खिलाफ अभियोजन यानि कार्यवाही की जाती है।
2022 को लोकसभा के एक सवाल के जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा था “गलती करने वाला लोक सेवक” सरकार ने इसके लिए क्या किया है?
सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में एक फैसले पर जजमेंट देते हुए कहा था कि कैदी ‘दोहरी रुकावटों’ या हम कहें मुश्किलों से जूझ रहे हैं। सबसे पहले तो कैदी उन मूलभूत मेडिकल सुविधाओं से वंचित हैं, जो एक आम नागरिक के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। इसके साथ ही उन्हें एक ही जगह कैद रहना होता है, जिससे उनके पास चलने-फिरने की कोई सुविधा या कहें आजादी नहीं है, उनके पास कोई और दूसरे मेडिकल एक्सपर्ट का विकल्प भी नहीं है। दूसरा वो एक जगह कैद है इसलिए उनके पास आम लोगों से ज्यादा स्वास्थ्य समस्याएं हैं।
2016 का जेल मॉडल और मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए काम करता है और कैदियों को हेल्थकेयर की सुविधाओ पर काम करता है। इसमें हेल्थ केयर यूनिट्स होती हैं, जहां ट्रेनिंग ऑफिसर बेसिक हेल्थ केयर और इमरजेंसी उपलब्ध करवाते हैं और सुसाइड को रोकने से जुड़े प्रोग्राम चलाते हैं।
NHRC ने जून में राज्यों को 21 पेजों की एक एड्वाइज़री रिपोर्ट जारी की जिसमें बताया गया कि सुसाइड मेडिकल और मेंटल हेल्थ का विषय है। जेल सुधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इसकी सलाह दी।
इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर का ढांचा भी इन अप्राकृतिक मौत की एक बड़ी वजह है, यानि कर्मचारियों की कमी भी इसकी वजह है। 26 ऐसे राज्यों को चिन्हित किया गया है जहां बहुत ज्यादा कैदी हैं।
NHRC की रिपोर्ट के अनुसार जेल में “प्रिजन वेल्फेयर अधिकारी, प्रोबेशन ऑफिसर, सायकालॉजिस्ट और मेडिकल स्टाफ की जरूरत है। वहीं मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल्स की संख्या को भी बढ़ाया जाना चाहिए, क्योंकि स्टाफ की कमी है।
3,497 लोगों की भर्ती निकाली गई थी, (सिर्फ 2000 ही नियुक्त किए गए) जिन्हें 2021 में 2,25,609 कैदियों को देखना था, जो संख्या 2023 में बढ़कर 5,75,347 पर पहुंच गई है (आंकड़े नेशनल प्रिजन इनफॉर्मेशन पोर्टल के अनुसार)
और ये खाली पद भी असमान रूप से वितरित हैं। उत्तराखंड और बिहार जैसे राज्यों में 60% खाली पद हैं, जिनमें टोटल स्टाफ में मेडिकल एक्सएक्यूटिव, प्रिज़न ऑफिसर और अन्य पदों के लिए हैं और इनमें से हर कोई मेडिकल सुरक्षा देने के लिए ट्रेंड नहीं है।
इसके अलावा कैदियों के लिए उनके मित्र और परिवार के सदस्यों के टेलीफोन नंबर होना चाहिए, जजमेंट में भी कहा जाता है कि कैदियों को न्यूज़ पेपर और पत्रिकाएं दी जानी चाहिए, जिससे उन्हें ये ना लगे की वो पूरी तरह बंदी हैं और वी इस भाव से निकल पाएं, क्योंकि पढ़ने-लिखने से खुद को नुकसान पहुंचाने वाली घटनाओं से बचा जा सकता है लेकिन इसमें कुछ किताबों पर रोक है, जिसमें पी. जी. वूड हाउस किताब और गौतम नवलखा की किताब सुरक्षा के चलते रोक लगा रखी है।
जैसे सुरक्षा की दृष्टि से कांच, पाइप, मेटल, रस्सी जैसी चीज़ों की जांच की जाए, जिससे सुसाइड के खतरे से बचा जा सके। साथ ही जब कैदी को जेल में डाला जाए तो उसकी मेडिकल जांच की जाए, जिससे उन कैदियों को अलग रखा जा सके और सीसीटीवी से नजर रखी जा सके।
साथ ही उन्होंने अपने दिशा निर्देश में ये भी कहा कि सीसीटीवी इस तरह से भी ना लगाए जाएं जिससे प्राइवेसी का हनन हो।
CHRI की रिपोर्ट के अनुसार 1.5% कैदी मानसिक रूप से बीमार हैं। इसके साथ ही ये रिपोर्ट ये भी कहती है कि मेंटल हेल्थ के रिसोर्स की कमी होने से भी बीमारी बढ़ती है।
मिस क्रूज इस विषय में कहती हैं कि ये सुधार कैदियों के मानसिक सुधार में बदलाव से ही संभव है और कैदियों के लिए बनाई इस न्याय प्रणाली में तुरंत सुधार की जरूरत है।
आर्टिकल The Hindu अखबार में 3 अक्टूबर को Text & Column पेज पर छपा है।