वोटिंग में सच का ही चुनाव करना चाहिए ? यही विश्वास है ….

वोटिंग में सच का ही चुनाव करना चाहिए, लोग करेंगे भी, यही विश्वास है

हमारे जख्मी पैरों को एक लम्बा रास्ता निगल रहा है। हमारी आंखें किसी नाव की तरह, अंधकार के एक महासागर को पार कर रही हैं! रास्ते में जो भाटे हैं, पत्थर पड़े हैं, वे हमारी ही चकनाचूर शक्लों के टुकड़े हैं! हमारा मुंह, एक बंद तहखाना! शब्दों का एक गुम खजाना!

क्या हम अपना मुंह खोल पा रहे हैं? क्या हम कुछ बोल पा रहे हैं? कदाचित नहीं!

ठीक है, अब तक मुंह नहीं खोला, कुछ नहीं बोला! अब तो बोलो!लोहारों की भट्टी भड़क उठी है। कुम्हारों का ‘आवा’ दहकने लगा है। मुनादी दनादन बज उठी है। नगाड़ों पर ऐलान हो चुका है। रुकेगी नहीं! अब रुकेगी नहीं ये आवभगत की अजीब चुनावी लड़ाई!जो तेज कर रहे थे अपने खंजर, वे अब सजदे में बिछ जाने को तैयार हैं। जो कसते फिरते थे कमर और म्यान, वे अब कहने लगे हैं खुद को जनता का गुलाम! देखिए जो भेड़ियों की तरह गुर्राया करते थे, उनके भीतर से अब चींटियों के दल निकलने लगे हैं!

आप भी उठिए! अब तो उठिएउनके गले मिलिए और कहिए- पिछले पांच साल तक जिस तरह हमें छकाया, रुलाया, अब भी वैसा ही किया तो यही गला हम दबा भी सकते हैं। हम बेखौफ हैं। जनता हैं। जनार्दन भी।

हमसे डरो न सही, सहमो तो सही!बात चुनाव की ही है। चुनावी मौसम की। चुनाव की घोषणा होते ही शुरू हो गया है टिकटों का रोना-धोना। कई पा गए। कई खो गए। इस पाए, खोए के बीच जो कभी गिनती में भी नहीं आते थे, वे भी वैतरणी में उतर चुके हैं।

पार पाने की फिराक में।प्रमुख तीन राज्यों- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की बात करें तो यहां मुख्य रूप से दो ही पार्टियां मैदान में हैं। कांग्रेस और भाजपा। भाजपा को हमेशा की तरह या तो हिंदुत्व पर भरोसा है या अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर।

यही वजह है कि उसने तीन में से एक भी राज्य में मुख्यमंत्री का चेहरा साफ तौर पर घोषित नहीं किया है। भाजपा को लगता है कि हिंदुत्व और मोदी की आंधी में क्षेत्रीय मुद्दे तिनकों की तरह उड़ जाएंगे। इसके पहले भी ऐसा होता रहा है। अब भी ऐसा ही होगा।

दूसरी तरफ कांग्रेस इन दिनों एक नया मुद्दा लाई है। ओबीसी का। उसे लगता है अन्य पिछड़ा वर्ग का यह मुद्दा भाजपा के हिंदुत्व पर भारी पड़ेगा। चुनाव की तारीखें देखी जाएं तो ओबीसी का मुद्दा लाने में कांग्रेस कुछ ज्यादा ही लेट हो गई है।

हो सकता है कांग्रेस को इस मुद्दे पर ज्यादा ही भरोसा हो! होना भी चाहिए, लेकिन इतना ही भरोसा है तो टिकटों के बंटवारे में इतनी देरी क्यों? क्या टिकटें भी इसी सूत्र के तहत बांटने की तैयारी है कि आबादी में जिसका, जितना हिस्सा, उसका उतना हक? हो सकता है ऐसा ही हो। लेकिन मैदान में फिलहाल ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।

उधर, भाजपा ने इस ओबीसी मुद्दे को सरदार पटेल की राह पर चलते हुए दबे स्वर में ही सही, देश को जात- पांत में बांटने वाला बता दिया है। साफ संकेत है कि भाजपा अब अपने पुराने मुद्दों पर ही टिके रहना चाहती है। वो जात-पांत के दल-दल में फंसना नहीं चाहती!

जहां तक आम आदमी के मुद्दों का सवाल है, उनके बारे में तो अब कोई सोचना भी नहीं चाहता। कहने के लिए राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में जरूर कुछ मुद्दे दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे दिखाई ही पड़ते हैं, उनका आखिर में कुछ होता-जाता नहीं है।भीड़ रहती है सिर्फ बंदरबांट की। मुफ्त की रेवड़ियों से भरे रहते हैं ये घोषणापत्र। कहीं कर्ज माफी, कहीं ब्याज पर छूट, कहीं किसानों की फसलों के बीमे, कहीं हर महीने मुफ्त का पैसा।बाढ़-सी आई हुई है। हर किसी को किसी न किसी तरह सत्ता चाहिए। गद्दी चाहिए। वो दे दीजिए, फिर वादे पूरे हों या न हों, कौन पूछने वाला है? गई बात पांच साल पर। तब की तब देखेंगे।

ज्यादातर राजनीतिक दल इस चुनावी मौसम में इसी मूड में रहते हैं। और लोग यानी आम मतदाता, उसे किसी की परवाह नहीं! अपने वोट और उसके मूल्य की भी नहीं। कुछ लोगों के लिए तो मतदान की तारीख एक तरह से छुट्टी का दिन होती है। निकल जाते हैं सैर पर। उन्हें पता है कि आज वोट नहीं डाला तो उनकी किस्मत भी पांच साल के लिए एक तरह से सैर पर ही निकल जाएगी, लेकिन कोई ठहरकर सोचने को तैयार नहीं है। समझने को राजी नहीं है।

चुनाव आयोग की तो आजकल क्या पूछिए! छत्तीसगढ़ की वोटिंग की तारीखों में दस दिन का गैप दिया है! क्यों, कुछ समझ में नहीं आता! हो सकता है, वोटिंग ट्रेंड समझना होगा या सुरक्षा बलों की व्यवस्था करने में इतने दिन लगते होंगे। आयोग की बात आयोग ही जाने!बहरहाल, इस बार वोटिंग में सच का ही चुनाव करना चाहिए। लोग करेंगे भी। यही विश्वास है।यही अपेक्षा भी।

किसी न किसी तरह से हर किसी को सत्ता चाहिए..हर किसी को किसी न किसी तरह सत्ता चाहिए। गद्दी चाहिए। वो दे दीजिए, फिर वादे पूरे हों या न हों, कौन पूछने वाला है? गई बात पांच साल पर। तब की तब देखेंगे। ज्यादातर राजनीतिक दल इस चुनावी मौसम में इसी मूड में रहते हैं।

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