कितने सच और कितने प्रायोजित होते हैं चुनावी सर्वेक्षण !

कितने सच और कितने प्रायोजित होते हैं चुनावी सर्वेक्षण

पर यदि ये आरोप सच न भी हों तो भी प्रश्न यह है कि क्या इन सर्वेक्षणों के संदर्भ में किसी तरह का विधिक नियंत्रण होना चाहिए या नहीं? और यदि वह हो तो उस नियंत्रण का स्वरूप कैसा होना चाहिए? भारत में चुनाव आयोग ने 1998 में ओपिनियन पोल्स और एग्जिट पोल्स के प्रकाशन व प्रसार के लिए मार्गदर्शिका तैयार की थीं।

इसमें यह व्यवस्था थी कि मतदान शुरू होने के 48 घंटे पहले से लेकर चुनाव बंद होने तक की एक ब्लैक आउट अवधि रहेगी, जिसमें न तो ऐसे सर्वेक्षण किए जाएंगे और न उनका प्रकाशन होगा। मार्गदर्शिका यह भी अपेक्षा करती थी कि सर्वेक्षण के सैंपल का आकार, भौगोलिक क्षेत्र, त्रुटि का मार्जिन, सर्वेक्षण की प्रविधि, सर्वेक्षण कराने वाले संगठन के बारे में आवश्यक सूचना उसमें दी जाएगी।

ये कोई बड़ी कठिन गाइडलाइन नहीं थी और अंतरराष्ट्रीय अनुभवों के प्रकाश में तो कहा जा सकता है कि वे काफी शिथिल व लचीली थीं। फिर भी 1999 के चुनावों में इन गाइडलाइंस को मीडिया संगठनों ने घास नहीं डाली। चुनाव आयोग ने अभियोजन की कार्रवाई की।

मुकदमे चले और अंतत: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग को दी गई अधीक्षण, निर्देशन व नियंत्रण की शक्तियों के भीतर यह शक्ति नहीं आती। उस समय भी मेरा सोचना यही था कि कोई भी परिपत्र विधि का स्थान नहीं ले सकता और जिन चीजों के लिए विशिष्ट कानून की आवश्यकता है, उनकी कमी की पूर्ति एक प्रशासनिक सर्कुलर से नहीं हो सकती।

उच्चतम न्यायालय ने तो ऐसे प्रतिबंध की व्यावहारिकता तक पर शक किया था क्योंकि देश में अब अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी है और एक डिजिटल युग में हम एक निस्सीम संसार में वैसे ही रह रहे हैं। उसके बाद आयोग ने अपनी मार्गदर्शिका वापस ले ली। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि चुनाव आयोग गलत मुद्दा उठा रहा था। होना यह था कि जिस अधिनियम के अभाव में चुनाव आयोग का सदाशयी कदम बेकार गया, उस पर पृथक विस्तृत अधिनियम पारित करवाया जाता।

मनोज भट्टाचार्य ने ‘चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण परिणाम (प्रकाशन पर प्रतिबंध)’ शीर्षक निजी विधेयक का प्रारूप प्रस्तुत भी किया पर वह कोई कानून नहीं बन सका। 2008 में इतना जरूर हुआ कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 126 (1) (ब) लाई गई, जो 48 घंटे का प्रतिबंध इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर लगाती है।

मैं सोचता हूं कि यहां 48 घंटे की ब्लैक आउट अवधि भारी लगती है, वहां बल्गारिया में चुनाव के दिन और उसके पहले के 14 दिन तक कोई सर्वेक्षण-परिणाम नहीं प्रकाशित किए जा सकते हैं और यदि इसका उल्लंघन किया जाता है तो 28 से लेकर 2750 डॉलर तक का जुर्माना किया जा सकता है।

फ्रांस में यह अवधि पहले सात दिन की थी। एग्जिट पोल तो जब तक सभी चरणों का मतदान सम्पन्न नहीं हो जाता, नहीं किया जा सकता। बाद में वहां ओपिनियन पोल की ब्लैक आउट अवधि 24 घंटे की कर दी गई और एग्जिट पोल पर प्रतिबंध यथावत रहा।

इटली में 15 दिन पूर्व से लेकर मतदान बंद होने तक का यह प्रतिबंध चलता है। पेरू में भी 15 दिन का प्रतिबंध है, मोंटेनीग्रो में सात दिन का है। रूस में 5 दिन का। सिंगापुर में चुनावों की घोषणा से लेकर सभी चुनाव केंद्रों में चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो जाने तक यह प्रतिबंध रहता है।

कानून को विस्तृत मानक स्थापित करने चाहिए। सर्वेक्षण की प्रविधि, तकनीक, आकार, प्रश्नावली के प्रकाशन के न्यूनतम मानक तो तय होने ही चाहिए, इन सर्वेक्षणों को राजनीतिक टेलीमार्केटिंग से भी बचाना होगा। इस पहलू की उपेक्षा करने की कीमतें भी चुकानी पड़ती हैं, जैसी कि अभी ऑस्ट्रिया के चांसलर सेबेस्टियन कुर्ज ने चुकाई, जब ओपिनियन पोल का पूर्व प्रायोजन प्रमाणित हो जाने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

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