कॉरपोरेट जगत के लोगों ने कहा कि देश को आगे ले जाना है, तो उद्योगों में ज्यादा पूंजी निवेश और उच्च तकनीक का इस्तेमाल होना चाहिए। किसी का कहना था कि अब तो कृत्रिम मेधा का जमाना है, ऐसे में, चैटजीपीटी से काम करवाना चाहिए, न कि मनुष्यों से। एक उपन्यासकार का कहना था कि पैंतीस घंटे में भी सत्तर घंटे से ज्यादा काम किया जा सकता है।
सबसे विचित्र टिप्पणी एक पूर्व प्रोफेसर की थी। उन्होंने कहा कि नारायणमूर्ति तो मात्र आर्थिक समृद्धि के उद्देश्य से काम, काम और अधिक काम की बात कर रहे हैं, जबकि हमें अच्छा और सार्थक जीवन जीने की आवश्यकता है। अच्छे और सार्थक जीवन से उनका तात्पर्य था कि हमारे पास खाली समय होना चाहिए, जिसमें हम अपने को जान सकें, डूबते सूरज के सौंदर्य को देखते हुए विन्सेंट वॉन गॉग को याद कर सकें, या किसी पीले फूल पर मंडराती तितली को देखकर ध्यानमग्न हो सकें।
ऐसे लोग भूल रहे हैं कि जो भी आदमी नौकरी करता है, अपनी मर्जी से करता है, भले वह नौकरी करना उसकी विवशता ही क्यों न हो। नौकरी कर लेने के बाद उसका काम के बोझ संबंधी शिकायत करना अनैतिक है और नियम विरुद्ध भी। आपको किसी ने बंदूक दिखाकर नौकरी करने के लिए बाध्य तो नहीं किया था।
नारायणमूर्ति की आलोचना करने के दुराग्रह में ऐसे लोग दो और बातों की अनदेखी कर रहे हैं। पहली यह कि देश में रोजगार मिलना इतना कठिन है कि अधिकतर युवा जो काम मिल जाए, वही करने को तैयार रहते हैं। अपने लंबे सेवाकाल में मैंने हजारों युवाओं से बात की है। सबका यही कहना था कि उन पर जिम्मेदारियां हैं और वे विदेशों की भांति ऐसी नौकरी की प्रतीक्षा में घर पर बेकार बैठे नहीं रह सकते, जिसमें उन्हें काम से संतुष्टि प्राप्त हो। उनकी पहली प्राथमिकता पेट में रोटी के लिए पैसे कमाने की है।
दूसरी बात यह कि अच्छे संस्थानों से इंजीनियरिंग/एमबीए आदि किए हुए जो युवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों में अच्छी नौकरी पा जाते हैं, उनका सारा फोकस इस पर होता है कि उन्हें कितना मोटा पैकेज मिल रहा है। आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियां जितनी मोटी तनख्वाह दे सकती हैं, उतनी सरकार में सर्वोच्च पदों पर भी नहीं मिलती। मोटे वेतन के कारण ही वे युवा पॉश कॉलोनियों में मकान ले पाने में सक्षम होते हैं, आधुनिक सुख-सुविधापूर्ण जीवन बिताते हैं, महंगी कारें रखते हैं, फाइव-स्टार होटलों में डिनर लेते हैं, घर पर दोस्तों के साथ शानदार पार्टियां करते हैं, छुट्टियां मनाने विदेश जाते हैं और बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाते हैं। ये सभी चीजें आजकल जीवन में सफलता का मापदंड बन गई हैं। इन्हें हासिल करने के लिए आज के युवा सत्तर घंटे तो क्या, उससे ज्यादा काम करने के लिए भी तैयार हैं। उन्हें डूबते सूरज का सौंदर्य या फिर तितलियां देखने का कोई शौक नहीं है।
ध्यान रखना चाहिए कि जिन लोगों ने अपना व्यवसाय खुद खड़ा किया है, वे सप्ताह में सातों दिन 18 से 20 घंटे जी-तोड़ मेहनत करते हैं। यही नहीं, निजी डॉक्टर, वकील, आर्किटेक्ट, दुकानदार आदि को सप्ताह में सत्तर घंटे से ज्यादा ही काम करना पड़ता है। पुलिस की नौकरी में चौबीस घंटे ड्यूटी पर रहना पड़ता है। लेकिन उन्होंने या उनके परिवारजनों ने कभी शिकायत नहीं की है, क्योंकि वे जानते हैं कि बेहतर जीवन जीने के लिए खाली समय के सुख का त्याग करना ही पड़ता है। ध्यान रखना चाहिए कि नारायणमूर्ति ने देशहित में सदाशयतावश एक सुझाव मात्र दिया था, कोई फतवा जारी नहीं किया था।
-लेखक केरल के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं।