राजभवन और राज्य सरकारों के रिश्ते क्यों असहज होते जा रहे हैं !

राजभवन और राज्य सरकारों के रिश्ते क्यों असहज होते जा रहे हैं

संविधान में सरकार और प्रशासन के बीच हिस्सों की जिम्मेदारियों और अधिकारों के स्पष्ट उल्लेख के बावजूद आपसी खींचतान की घटनाएं बढ़ रही हैं। केरल के गवर्नर इन्ही गलत कारणों से खबरों में बने हुए हैं।

हाल ही में कालीकट यूनिवर्सिटी के दौरे के समय उन्होंने पुलिस को निर्देश दिया कि ऐसे सभी पोस्टर हटा दिए जाएं जिसमें उनका विरोध हो रहा हो।

उन्होंने स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के कार्यकर्ताओं को ‘अपराधी’ कहा और मुख्यमंत्री पर उन्हें ‘संरक्षण’ देने का आरोप लगाया।

इस दौरे के बाद उन्होंने प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते हुए बिना किसी पूर्व सूचना के कोझिकोड की यात्रा भी की।

ऐसी स्थिति में जब इस तरह की घटनाएं आम होती जा रही हैं, तो समय आ गया है कि विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल की भूमिका और व्यवहार पर विचार किया जाए।

साथ ही इससे उठने वाले कानूनी संकट पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

संविधान से लोक सेवकों के व्यक्तिगत व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। संविधान में केवल राज्यपाल के कार्यों, शक्तियों और जिम्मेदारियों के बारे में लिखा हुआ है। उनका व्यवहार भी संवैधानिक नैतिकता के अनुसार ही होना चाहिए।

कुलपति के रूप में कार्य करते हुए भी यदि खान राज्यपाल बने रहते हैं, तब क्या उनके आचरण में संवैधानिक नैतिकता दिखती है, यह एक खुला प्रश्न है।

छूट की सीमाएं

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 में राज्यपालों को सीमित और सशर्त छूट दी गई है।

इसके अनुसार राज्यपाल अपने कार्यालय की शक्तियों और जिम्मेदारियों के उपयोग और प्रदर्शन के लिए अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे।

यह सभी कार्य उन्होंने अपनी आधिकारिक क्षमता से किया हो या ऐसा लगे कि उन्होंने अपनी आधिकारिक क्षमता का उपयोग किया है।

इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए है कि राज्यपाल अपने गैर-जिम्मेदार आचरण के लिए जवाबदेह नहीं हैं। जिसका संबंध उनकी आधिकारिक जिम्मेदारियों से नहीं हैं।

रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि राज्यपाल ने अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल करते हुए बिहार में राष्ट्रपति शासन की मांग की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल का खास मकसद से किया गया मनमाना आचरण न्यायिक जांच के दायरे में आता है।

हालांकि, रामेश्वर प्रसाद के मामले में मुद्दा यह नहीं था कि क्या राज्यपाल को असंवैधानिक व्यवहार और टिप्पणी करने के लिए छूट मिल सकती है।

कोर्ट ने यह जरूर कहा कि पद की गरिमा बनाए रखने के लिए सही व्यक्तियों का चुनाव जरूरी है।

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने लोक सेवकों द्वारा अपमानजनक टिप्पणी करने पर सुनवाई हुई।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 19(2) में दिए अभिव्यक्ति की आजादी को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है, लेकिन सभी टिप्पणी न्यायसंगत सीमाओं की हद में होनी चाहिए।

जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने मंत्रियों के संदर्भ में कहा कि यदि लोक सेवक का बयान सरकार के विचारों के अनुरूप नहीं है।

इसे तो मंत्री का व्यक्तिगत बयान माना जायेगा और इसके लिए उन पर उचित कार्यवाही भी हो सकती है।

संविधान के गैर-राजकीय कार्यकर्ताओं के खिलाफ मौलिक अधिकारों को लागू करने के तरीके पर पूरी बेंच की राय जस्टिस नागरत्ना की राय से अलग थी।

हालांकि, सभी ने माना की लोक सेवा से जुड़े लोगों की सामाजिक कार्यों के अलावा बाकी मामलों में टिपण्णी और व्यव्हार के लिए उनकी व्यक्तिगत जवाबदेही तय होनी चाहिए।

जैसा कि, यदि कोई लोक सेवक कोई अपराध करता है, तो उनके लिए कोई वैधानिक या संवैधानिक छूट नहीं है।

लोक सेवक द्वारा मानहानि जैसा अपराध भी किया जा सकता है, जबकि भले ही ये काम उनकी आधिकारिक जिम्मेदारी से जुड़ा न हो या स्पष्ट रूप से उनके साथ किसी के टकराव की स्थिति हो।

कमीशन रिपोर्ट

हालांकि, यह विचार एक इच्छा बन कर रह जाने तक ही सीमित रह गया है।

जस्टिस एम.एम. पुंछी आयोग की रिपोर्ट (2010) में कहा गया था कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को ईमानदारी और निष्पक्ष रूप से निभाने के लिए, राज्यपाल को उन पदों और शक्तियों के बोझ के नीचे नहीं दबना चाहिए, जिन पर संविधान में उन्हें अधिकार नहीं दिया गया है।

इसमें कहा गया है कि राज्यपाल को विश्वविद्यालयों के कुलपति के रूप में नियुक्त कर, वैधानिक शक्ति प्रदान करने से राजभवन के लिए विवादों में घिरने की सम्भावना और सार्वजनिक आलोचना का विषय बनने के खतरे बढ़ जाते हैं।

केरल में, राज्य विधानसभा ने राज्यपाल के कुलपति पद को समाप्त करने के लिए एक बिल पास किया।

राज्यपाल ने इसे सहमति न देते हुए इस बिल को अन्य बिल के साथ राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया।

ऐसा तब हुआ जब राज्यपाल कई बिल लम्बे समय से अपने पास रोके हुए थे और इस वजह से राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ गया।

वहीं, विधानसभा की इच्छा के खिलाफ, राज्यपाल कुलपति के तौर पर यूनिवर्सिटी के दौरे पर चले गए। ऐसा करना राज्यपाल की लोकतांत्रिक वैधता की कमी को बताता है।

भविष्य में केंद्र में आने वाली सरकारों को राज्यपालों की नियुक्ति से जुड़े, संविधान के आर्टिकल 155 में बदलाव पर विचार करना होगा, जैसा कि सरकरिया आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि राजयपाल के चुनाव में मुख्यमंत्री से भी राय ली जानी चाहिए।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और एक स्वतंत्र संस्था को शामिल करने से, चयन प्रक्रिया में सुधार किया जा सकता है।

साथ ही कार्यकाल की समाप्ति के बाद राज्यपाल को किसी भी आधिकारिक पद पर नियुक्त करने की मनाही होनी चाहिए। ऐसे में राजभवन में संस्थागत बदलाव की जरूरत है।

समय आ गया है कि विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल की भूमिका और व्यवहार पर विचार किया जाए। साथ ही इससे उठने वाले कानूनी संकट पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

लेखक: कालीस्वरम राज, सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं।

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