रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से पहले बयानों पर बवाल ?

 रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से पहले बयानों पर बवाल, क्या जनभावना को नहीं समझ पा रहा विपक्ष?
क्या 2024 का लोकसभा चुनाव राम के इर्द-गिर्द होता दिखाई दे रहा है? प्राण प्रतिष्ठा से पहले हो रही बयानबाजी के पीछे की सियासत क्या है? क्या विपक्ष जनभावना को नहीं समझ पा रहा है? इस हफ्ते के खबरों के खिलाड़ी में इसी मुद्दे पर चर्चा हुई। चर्चा के दौरान वरिष्ठ पत्रकार पूर्णिमा त्रिपाठी, राहुल महाजन, अवधेश कुमार, विनोद अग्निहोत्री और बिलाल सब्जवारी मौजूद थे। 
त्रिपाठी: राम मंदिर का मुद्दा अभी राजनीति के केंद्र में रहेगा। कई दलों को लगता है कि इससे लोकसभा चुनाव में भाजपा को फायदा होगा। शायद यही वजह है कि कुछ नेता बौखलाहट में अशोभनीय टिप्पणियां कर रहे हैं। इस तरह का टिप्पणियां निंदनीय हैं। देश की सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई है, लेकिन वह धार्मिक उन्माद में नहीं बदल जाए, हमें इसका ध्यान जरूर रखना चाहिए। काशी और मथुरा में जिस तरह से मामले चल रहे हैं, उस पर हमें ध्यान रखना होगा, वहां धार्मिक उन्माद हावी नहीं होने पाए। 

महाजन: इसे सीधी तरह से राजनीतिक मुद्दे के तौर पर देखना चाहिए। इस तरह के बयान धार्मिक मुद्दे से ज्यादा राजनीतिक हैं। बड़ी विपक्षी पार्टियों के नेताओं के इस तरह के बयान आपको देखने को नहीं मिलेंगे। इस वक्त देश की राजनीति में जो भी नेता हिन्दू वोटों को अपने साथ रखना चाहता है, वो इस तरह के बयानों से बचेगा। क्या इस्लामिक देश बदले नहीं है? वे तेजी से बदले हैं और बदल रहे हैं। दूसरी तरफ वेटिकन सिर्फ टिकटों से 800 बिलियन डॉलर कमा लेता है। 

इसी तरह इस मंदिर के बनने के बाद अर्थव्यवस्था पर भी बड़ा असर पड़ेगा। जिस तरह से बड़े-बड़े होटल्स की चेन ने अपनी रुचि दिखाई है उससे यह पता भी चलता है। कहा जा रहा है कि वहां पर तीन लाख लोग आएंगे। जब इतने लोग आएंगे तो क्या वहां अस्पताल नहीं बनेंगे? राजनीतिक मजबूरियां अलग हैं, लेकिन जहां तक आस्था की बात है तो चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, सभी वहां पर दर्शन के लिए जाएंगे।

सब्जवारी: किसी पार्टी या समुदाय की न तो राम से लड़ाई है, न ही किसी धर्म से लड़ाई है। किसी भी पार्टी को सांप्रदायिकता से लड़ने की जरूरत है, न कि किसी धर्म से। आप सांप्रदायिकता और धर्म को एक जगह लाकर खड़ा कर देते है और सांप्रदायिकता से लड़ते-लड़ते धर्म से लड़ने लगते हैं। तब विवाद शुरू हो जाता है। 

अग्निहोत्री: इस तरह के बयान कोई पहली बार नहीं आए हैं। पहले भी इस तरह से बयान आते रहे हैं। किसी भी महापुरुष के खानपान पर टिप्पणी करना कहीं से उचित नहीं है। रामराज्य की कल्पना में ही निहित है कि राम आलोचनाओं से नहीं डरते हैं। राम के नाम पर अगर कुछ बोल दिया तो उससे राम छोटे हो गए, मैं इससे सहमत नहीं हूं। राम को लेकर राजनीति उस दिन शुरू हुई थी, जब भाजपा ने 1988 में राम मंदिर को अपने एजेंडे में शामिल किया। 2024 के चुनाव नजदीक हैं, उससे पहले जिस तरह से राम मंदिर से जुड़ा आयोजन हो रहा है, उसका लाभ भाजपा को जरूर होगा। हमारे देश में कबीर के भी राम हैं और तुलसी के भी राम हैं। कबीर के राम निर्गुण हैं, वहीं तुलसी के राम सगुण हैं। यह बताता है कि हमारे देश में आज से नहीं, बल्कि जब से यह अस्तिव में आया, तब से यह ऐसा ही है। धर्म और कर्म का जो समन्वय है, वो नहीं भूलना चाहिए। 
अवधेश कुमार: यह देश इसलिए महान रहा है कि एक धर्म में ही नहीं, एक पंत में भी कई विरोधी स्वर रहे हैं, लेकिन इन भावनाओं का कारण क्या है। हमारे देश में जो कुछ भी घटित होता है, उसे गहराई से समझने और उस पर मनन करने, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले लोगों की कमी हो गई है। जब सोमनाथ मंदिर का निर्माण हो रहा था, तब उसके बारे में लिखा गया कि सोमनाथ के पतन के साथ हमारे देश का पतन आरंभ हो गया था। जो लोग इस तरह की सोच वाले थे, उन्होंने जल्द से जल्द वहां पर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। भारत को धर्म से काट देंगे तो कुछ बचेगा ही नहीं। राम मंदिर सांस्कृतिक भारत के पुनर्उद्भव का माध्यम है। हमारे यहां धर्म का अर्थ कर्म से जुड़ा है। हमारे यहां धर्म इसलिए रहा है कि आप कर्म तो करें, लेकिन कर्म के बंधनों में नहीं बधें रहें। राजनीति तभी सही होगी, जब उस धर्म की सूक्ष्मता को समझेगी।

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