कर्ज के चंगुल में फंसी दुनिया ?

अर्थशास्त्र: कर्ज के चंगुल में फंसी दुनिया के बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने उठाए महत्वपूर्ण कदम
आईएमएफ का यह कहना कि पिछले वर्ष कुल वैश्विक कर्ज वैश्विक जीडीपी का 238 फीसदी था, बताता है कि पूरी दुनिया कर्ज के जाल में किस कदर उलझी है। ऐसे में, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा देश में असुरक्षित घरेलू कर्ज को, जो वित्तीय अस्थिरता को बढ़ा भी सकते हैं, रोकने के लिए उठाए गए कदम महत्वपूर्ण हैं।

वर्तमान वित्तीय वर्ष की शुरुआत में हमने देखा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था राजकोषीय और मौद्रिक नीति दोनों उपायों से मंदी से उबर रही थी। दरअसल, वित्त वर्ष 2022 में मुद्रास्फीति से निपटने के लिए विभिन्न देशों में ब्याज दरें बढ़ाई गईं, सार्वजनिक ऋण में भारी कमी आई और सरकारी वित्त में सुधार भी हुआ था। इस आर्थिक सुधार से अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश में कुछ हद तक स्थिरता भी संभव लग रही थी। लेकिन आर्थिक सुधारों के लिए विभिन्न देशों में अपनाई गई नीतियों में काफी फर्क भी दिखा।

भारत जैसी उभरते बाजारों वाली विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में व्यापक आधार वाले आर्थिक सुधार दिखे। लेकिन कम आय वाली विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देशों ने व्यापक आर्थिक स्थिरता का अनुभव किया, जिससे अत्यधिक सामाजिक और आर्थिक संकट पैदा हुए। संसाधनों के अभाव वाले क्षेत्रों की संसाधन-बहुल क्षेत्रों तक पहुंच कैसे सुनिश्चित की जाए, इस संदर्भ में हाल के समय में कई वैश्विक नीतिगत चर्चाएं भी हुईं। नई दिल्ली में आयोजित जी-20 सम्मेलन में मजबूत, सतत, संतुलित और समावेशी विकास की जरूरत पर बल दिया गया। हालांकि इस स्थिति की जटिलता के कई आयाम हैं।

ऐसा ही एक महत्वपूर्ण मुद्दा है बढ़ते वैश्विक कर्ज का। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, पिछले वर्ष कुल वैश्विक कर्ज कुल वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (वैश्विक जीडीपी) का 238 फीसदी था, जो 2019 की तुलना में नौ फीसदी ज्यादा था। अगर इन्हीं आंकड़ों को डॉलर में देखें, तो यह कर्ज 2,350 खरब डॉलर था, जो 2021 की तुलना में करीब दो सौ अरब डॉलर ज्यादा था। इसमें सबसे ज्यादा चिंता का विषय घरेलू और निजी क्षेत्र का बढ़ता कर्ज है। हालांकि 2008 की वैश्विक मंदी के बाद से घरेलू कर्ज पर पूरी तरह से निगरानी रखी गई है, लेकिन फिर भी पिछले पंद्रह वर्षों में यह काफी तेजी से बढ़ा है।

कोविड महामारी ने तो इसे और भी तेजी से बढ़ाया है। उल्लेखनीय है कि घरेलू कर्जों का उच्च स्तर वित्तीय अस्थिरता का एक प्रमुख स्रोत हो सकता है। हालांकि वैश्विक नीतिगत चर्चाओं में कोविड महामारी के बाद वित्तीय स्थिरता को वापस लाने पर फोकस किया गया है, लेकिन जब बात घरेलू और निजी क्षेत्र के कर्ज की हो, तो ज्यादा सोच-विचार जरूरी हो जाता है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि घरेलू कर्ज की प्रकृति, विशेषताएं और प्रभाव विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होते हैं।

उल्लेखनीय है कि अगर असुरक्षित घरेलू कर्ज ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो वित्तीय स्थिरता के लिए बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। दूसरी तरफ, सुरक्षित घरेलू कर्ज, मसलन रियल एस्टेट के लिए लिया गया कर्ज, वास्तविक मांग बढ़ा सकते हैं और घरेलू संपत्ति पैदा करते हैं। कर्ज निर्माण की इस प्रक्रिया की विस्तृत समझ रखना जरूरी है। इस समस्या की भयावहता को समझने के लिए आइए, भारत सहित कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में घरेलू कर्ज की स्थिति को दो काल-खंडों 2008 और 2022 में समझते हैं। 2008 वह वर्ष था, जब पूरी दुनिया में मंदी छाई थी, जबकि 2022 कोविड महामारी के ठीक बाद का वर्ष था। दोनों वे वर्ष थे, जब देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सुधार दिखा। दोनों काल-खंडों के बीच कनाडा, फ्रांस, इटली और जापान में घरेलू कर्ज तेजी से बढ़ा।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के अनुसार, कनाडा, फ्रांस, इटली और जापान में यह 2008 के क्रमश: 83.47, 48.60, 38.98 और 60.27 फीसदी से बढ़कर क्रमश: 102.38, 66.14, 41.72 और 68.15 फीसदी हो गया। जबकि भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात में घरेलू कर्ज सर्वाधिक न्यूनतम में से रहा, जो वित्त वर्ष 2022 के जीडीपी का करीब 35 फीसदी था और 2008 से 2022 के दौरान इसमें तेज गिरावट देखने को मिली। भारत में घरेलू कर्ज 2008 में जीडीपी का 40.85 फीसदी था, जो 2022 में 35.56 फीसदी रह गया। अमेरिका और ब्रिटेन में भी इस कालखंड में घरेलू कर्ज में कमी आई।

भारत में घरेलू क्षेत्र से उत्पन्न होने वाले असुरक्षित कर्ज के जोखिमों को रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा हाल ही में उठाए गए कदम उल्लेखनीय हैं। असुरक्षित कर्ज पर अंकुश लगाने के लिए केंद्रीय बैंक ने नवंबर, 2023 में बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) दोनों के लिए क्रेडिट कार्ड जैसे असुरक्षित उपभोक्ता कर्ज पर जोखिम का भार 25 फीसदी तक बढ़ा दिया है। केंद्रीय बैंक के इस कदम का उद्देश्य महज इतना है कि देश के वित्तीय क्षेत्र को घरेलू क्षेत्र से उत्पन्न होने वाले किसी भी बड़े वित्तीय जोखिम से बचाया जाए। हालांकि भारत का घरेलू कर्ज ज्यादा नहीं है, फिर भी केंद्रीय बैंक द्वारा दिखाई जा रही सतर्कता का महत्व है। इससे जोखिमों को कम करने और वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

सारांश के तौर पर कह सकते हैं कि पूरी दुनिया में बढ़ते घरेलू कर्ज से वैश्विक अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आएगी, जिसका नकारात्मक असर भारत समेत सभी उभरते बाजारों वाली अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़ेगा। पिछले वर्ष इसी समय के आसपास अमेरिका के सिलिकॉन वैली बैंक में जो संकट दिखा था, हालांकि जिस पर काबू पा लिया गया था, इसी समस्या का एक उदाहरण है। पूरी दुनिया को ऐसी नीतियों की जरूरत है, जिनका फोकस इस बढ़ते कर्ज पर काबू पाने पर हो।
अर्थशास्त्रीय सिद्धांत बताते हैं कि घरेलू कर्ज के बढ़ने से अल्प अवधि में खपत और विकास को बढ़ावा मिलता दिख सकता है, लेकिन लंबे समय में इसका विकास पर उल्टा ही असर होता है। यह दिखाने का दरअसल कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि घरेलू कर्ज में वृद्धि वित्तीय सेवाओं या विभिन्न क्षेत्रों के बीच वित्तीय असंतुलन के बढ़ने से होती है। हालांकि यह मान लेना गलत नहीं होगा कि महामारी के वक्त आर्थिक विरोधाभास और चारों तरफ व्याप्त अनिश्चितता ही घरेलू कर्ज में वृद्धि के प्रमुख कारण थे।
ऐसे में, स्थिर और सतत विकास सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि सुधारों के लिए अपनाई जा रही कोई भी रणनीति इस पहलू पर ध्यान अवश्य दे।
(-लेखक एनआईपीएफपी के पूर्व निदेशक हैं)

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