CAA कम करेगा अल्पसंख्यकों की आक्रामकता
देश के लिए ठीक नहीं अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यकवाद, CAA कम करेगा अल्पसंख्यकों की आक्रामकता
“CAA का विरोध पूरी तरह राजनैतिक, टाइमिंग भी पॉलिटिकल”
नागरिकता संशोधन बिल बनने के बाद आखिरकार चार साल के बाद उसका नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया है. ऐसे समय पर यह लागू किया गया है जब कभी भी लोकसभा चुनाव के लिए घोषणा होने के साथ आदर्श आचार संहिता लागू हो सकती है. इसके लागू करने की टाइमिंग को लेकर काफी चर्चा चल रही है. विपक्षी दलों के द्वारा इसकी टाइमिंग को लेकर लगातार सवाल उठाया जा रहा है. यह कदम ध्यान भटकाने का और लोकसभा चुनाव में फायदा उठाने के लिए इसे लागू किया गया है, ऐसा वे आरोप लगा रहे हैं. हालांकि, भाजपा का कहना है कि वह तो अपने मुख्य मुद्दों को पूरा कर रही है और जो भी वायदे उसने किए थे, उनको एक-एक कर लागू किया जा रहा है.
फैसला तो राजनीति से प्रेरित है ही
जानकारों का मानना है कि आज की राजनीति कहीं न कहीं सत्ता को अपना साध्य मानने लगी है. उस साध्य को हासिल करने के लिए किसी भी साधन को अपनाने के लिए तैयार है. ये सच बात है कि अगर आपके पास सत्ता नहीं है तो आपकी राजनीति का कोई मोल नहीं है. कहा जाता है कि सत्ता गोंद की तरह काम करती है. अगर ना रहे तो कोई अपना नहीं रहता. जाहिर तौर पर भाजपा का ये राजनीतिक और चुनावी दांव है. हालांकि, देखा जाए तो पूरे देश में पूरी तरह से इसका फायदा मिले, ये सही नहीं है. इसकी वजह है कि उतर प्रदेश, बिहार, छतीसगढ़ आदि राज्यों में यह मसला प्रभावी नहीं होगा. इस कानून में छह धर्मों के लोगों को नागरिकता देने की बात होनी है. हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई आदि लोगों को नागरिकता देनी है, जो पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान में सताए गए औऱ वहां से भागे. ऐसे राज्यों में इनकी संख्या कम है. उनकी संख्या सीमावर्ती राज्यों में है. जिसमें राजस्थान, बंगाल, पंजाब ,असम आदि राज्य हैं. सबसे बड़ा दावा पश्चिम बंगाल और असम का है. पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय के लोग वर्षो से नागरिकता की मांग करते आ रहे हैं. ये समुदाय 2019 के चुनाव से ही भाजपा साथ है. 2019 में भाजपा ने शांतनु ठाकुर को चुनाव के दौरान अपना टिकट भी दिया था और वह फिलहाल केंद्रीय मंत्री भी हैं. इसके बहाने पश्चिम बंगाल में भाजपा ने एक बड़ी गोलबंदी की है.
पश्चिम बंगाल और असम के लिए बड़ा मुद्दा
पश्चिम बंगाल में एक बड़ा मामला अवैध रुप से बांग्लादेश से आए विदेशियों का है जो काफी समय से भारत में रह रहे हैं. इनको स्थानीय भाषा में बांगाल कहते हैं. बांगाल लोगों की जनसंख्या पश्चिम बंगाल मेें ज्यादा है. वो थोड़ा अक्रामक रुख रखते हैं. इनसे वहां की राजनीति में काफी बदलाव देखने को मिलता है. मुस्लिम इलाकों को छोड़ कर बात करें तो कलकता तक डेमोग्राफी काफी बदली है. इसको लेकर एक गोलबंदी होगी और इसका फायदा भाजपा उठाना चाहेगी. दूसरी ओर असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर एक काफी दिनों से विवाद रहा है. 80 के दशक में अखिल असम स्टूडेंट यूनियन की ओर से घुसपैठियों और अप्रवासियों को लेकर बड़ा आंदोलन चला था. बांग्लादेश से आए घुसपैठियों को हटाने के लिए यह कदम उठाए गए थे. क्योंकि उन लोगों ने कछार में डेमोग्राफी को काफी बदल दिया. वहां भी काफी विरोध रहा है. दस सालों से असम राज्य में पूर्ण रूप से और केंद्र में भाजपा की सरकार है. असम में भी ये सवाल उठ रहा था कि वहां पर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को कब लागू किया जाएगा.
असम में तो राजीव ने किया था वादा
साल 1985 में तत्कालीन पीएम राजीव गांधी के समय अखिल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) और केंद्र के बीच एक समझौता हुआ था, जिसमें 25 मार्च 1971 के पहले लोग जो आए हैं उनको नागरिक रजिस्टर में शामिल करने पर बात बनी थी. उसके बाद के लोगों को वहां से हटाने की बात कही गई थी. ऐसे में यह एक संवेदनशील मुद्दा है. इस तरह वहां के लोगों को एक उम्मीद है जो डेमोग्राफी में बदलाव हुआ है अब वो फिर से बदल कर पहले के जैसे हो जाएगी. जानकारों का मानना है कि पूरे भारत में जो अल्पसंख्यक ( खासकर मुसलमान) हैं, उनकी पूरी राजनीति या उनके वोटर कहीं न कहीं समझाने पर ही चलती रही है. कभी सपा तो कभी कांग्रेस तो कभी कोई अन्य दल उनका ठेकेदार बन जाता है. उनके नाम से बने संगठन उनके नाम पर अपनी आर्थिक गोटियां सेंकने का काम करते रहते हैं. देखा जाए तो अल्पसंख्यकों की मानसिकता को बांध कर एक फ्रेम सेट कर दिया है कि फलाने दल अल्पसंख्यकों का ख्याल रखते हैं. प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह ने भी बयान दिया था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है. ऐसे में राजनीतिक फायदा हुआ. क्योंकि बहुसंख्यकों की कभी गोलबंदी नहीं हो पाई, ज्यादातर अल्पसंख्यकों का ही गोलबंदी हुई है. ऐसे में इसका फायदा समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और वामपंथी उठाते रहे हैं. पश्चिम बंगाल में एक लंबे समय तक सरकार वामपंथियों की रही है उसका एक फैक्टर ये भी रहा है. क्योंकि बंगाल से आए हुए लोगों को ये लोग वोटर बनाते गए,राशनकार्ड देते रहे. ऐसे में वहां के अल्पसंख्यकों की गोलबंदी होती रही, लेकिन अब भाजपा की सरकार आने के बाद ये देखा जा रहा है कि बहुसंख्यक में गोलबंदी होने लगी है. ये कदम बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक के साथ खड़ा करना ही है. ये सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही हुई है.
भाजपा पूरे कर रही है अपने मुद्दे
2019 के चुनाव में भाजपा की तीन मुख्य बातें थी. जिसमें अनुच्छेद 370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता और तीसरा राममंदिर का मामला था. चुनाव से पहले भाजपा ने तीनों वादा को पूरा किया. अनुच्छेद 370 खत्म है, राम मंदिर बन चुका है और यूसीसी की दिशा में कदम बढ़ चले हैं. 2014 में भाजपा की सरकार सुशासन के लिए आई थी. 2019 के तीन मुद्दों को सरकार ने पूरा कर दिया. अब चुनाव से पहले सीएए लागू कर दिया गया है तो इसका चुनावी फायदा लेने के लिए किया गया है. अगर देखा जाए तो इस कानून के लागू होने के बाद सबसे ज्यादा विरोध टीएमसी, वामपंथी और कांग्रेस कर रही है. जाहिर है कि उनको सबसे अधिक नुकसान होता दिखाई दे रहा है. इसलिए कहीं न कहीं विपक्षी पार्टियां नागरिकता संशोधन बिल के लागू होने का विरोध कर रहे हैं.
बहुसंख्यकवाद एक हवाई अवधारणा
भारत में बहुसंख्यकवाद की अवधारणा नहीं रही है. अगर बहुसंख्यकवाद की अवधारणा होती तो देश का पहला चुनाव जो 1951-52 में हुआ, उस चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें कांग्रेस के बाद हिंदू महासभा आदि को मिलनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटें मुस्लिम लीग को मिली थी. अल्पसंख्यक को हद से ज्यादा बढ़ावा देने के कारण इस देश में बहुसंख्यकवाद पनपा. बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकवाद के विरोध में खड़ा हुआ और विकसित हुआ. जब कोई लोकतंत्र हम अपनाते हैं उसका मतलब होता है सभी का बराबर अधिकार रहे, चाहे वो अल्पसंख्यकवाद हो या बहुसंख्यकवाद . किसी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए अल्पसंख्यकवाद या बहुसंख्यकवाद दोनों में से किसी एक को अधिक आगे बढ़ाना सही नहीं है. अल्पसंख्यकवाद इतना बढ़ चुका था कि बहुसंख्यकवाद उभर रहा है या ऐसा हमें दिख रहा है.
एक दौर ऐसा भी आएगा कि जब दोनों धाराएं संतुलित होगी क्योंकि दोनों ओर काफी प्रबुद्ध लोग है. आजतक तो ये देखने को मिला है कि बहुसंख्यकवाद ने कभी भी अक्रामक रुख नहीं अपनाया कि अल्पसंख्यक को मार कर भगा देना है. लेकिन अभी भी देखा जाता है कि अल्पसंख्यक इलाकों से बहुसंख्यक का कोई धार्मिक शोभायात्रा निकलती है तो उस पर हमला होता है. इसका उल्टा नहीं होता, यानी किसी बहुसंख्यक इलाके में मुसलमानों के किसी जुलूस पर हमला नहीं होता है. तो, ये आक्रमकता जब कम होगी तो लगता है कि बहुसंख्यकवाद शांत हो जाएगा क्योंकि भारत का चरित्र हमेशा से मेजॉरिटेरियन नहीं रहा है. अगर बहुसंख्यकवाद इस देश के जीन में, खून में होता तो शायद देश में अल्पसंख्यक खड़े नहीं हो सकते थे क्योंकि अरब देश की तरह यहां भी लोग हिंदू बन गए होते. स्वामी विवेकानंद ने 1893 में जब भाषण दिया था तो कहा था कि पूरे दुनिया से पारसी समाप्त हो गए लेकिन भारत में बचे हैं क्योंकि हमारी संस्कृति सबसे अलग है. तो मान सकते हैं कि अल्पसंख्यकों के आक्रमकता को कम करने के लिए ही यह एक कदम सीएए है.
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