आखिर क्यों विभाजित नहीं होती भाजपा ?
आखिर क्यों विभाजित नहीं होती भाजपा ?
भारत की राजनीति में कांग्रेस समेत अधिकाँश दल अक्सर विभाजित होते आये हैं लेकिन भाजपा में अभी तक स्पष्ट विभाजन कभी हुआ। भाजपा टूटी लेकिन ऐसी नहीं की उसकी टूटन से भाजपा का भत्ता ही बैठ जाए। भाजपा में इस समय पिछले 44 साल के इतिहास में सबसे ज्यादा असंतोष है लेकिन भाजपा विभाजित होने वाली नहीं है। भाजपा में अब तक गुजरात और मध्य प्रदेश में ही बगावत हुई थी लेकिन अब बगावत के सुर कर्नाटक से उठ रहे है।
भाजपा ने विभाजन का दर्द कभी ढंग से महसूस ही नहीं किया जबकि कांग्रेस तो बीते सौ साल में एक बार नहीं बल्कि बार-बार विभाजित हुई ,किन्तु कभी समाप्त नहीं हुई। आज भी कांग्रेस की देश के अनेक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं। तेलंगाना,हिमाचल और झारखंड अभी तक कांग्रेस का ध्वज उठाने वाले राज्य हैं। दो आम चुनाव जीतने के बाद भी भाजपा इस देश को कांग्रेस मुक्त नहीं कर पायी है। 2024 के आम चुनाव में क्या होगा ,ये कहना कठिन है।
आपको बाटा दूँ कि 1947 में देश के स्वतंत्र होने से लेकर से लेकर 2019 तक, 17 आम चुनावों में से, कांग्रेस ने 6 में पूर्ण बहुमत जीता है और 4 में सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व किया है। इस तरह कांग्रेस कुल 49 वर्षों तक वह केंद्र सरकार का हिस्सा रही। कांग्रेस ने देश को एक -दो नहीं बल्कि पूरे सात प्रधानमंत्री दिए हैं। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ,लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी ,राजीव गांधी ,पी.वी. नरसिम्हा राव और डा मनमोहन सिंह कांग्रेस के अंतिम प्रधानमंत्री बने । कांग्रेस 2014 के आम चुनाव में एक बार सत्ताच्चुत हुई तो अब तक सत्तारूढ़ नहीं हो पायी। कांग्रेस ने आज़ादी से अब तक का सबसे ख़राब आम चुनावी प्रदर्शन 2014 में किया और 543 सदस्यीय लोक सभा में केवल 44 सीट जीती। 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस 44 से आगे बढ़कर 52 पर आ पायी ,अब 18 वे आम चुनाव में कांग्रेस की छलांग उसे कहाँ तक ले जा पाएगी ये भविष्य के गर्त में हैं।
मै बात कर रहा था भाजपा में असंतोष की । भाजपा में पिछले 44 साल में 11 अध्यक्ष चुने गए, मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्ढा फिलहाल एक्सटेंशन पर हैं। भाजपा को सत्ता के शीर्ष तक पहुँचाने के लिए भाजपा का रथ खींचने वालों में अटल बिहारी बाजपेयी,डॉ मुरली मनोहर जोशी,बंगारू लक्ष्मण, कुशाभाऊ ठाकरे और जेना कृष्णमूर्ति के अलावा वैंकया नायडू,राजनाथ सिंह ,नितिन गडकरी और अमित शाह का नाम प्रमुख है। भाजपा में असंतोष लालकृष्ण आडवाणी के समय भी था और आज भी है । आडवाणी के समय में मध्य-प्रदेश में उमा भारती और गुजरात में केशूभाई के बाद शंकर सिंह बाघेला जैसों ने बगावत की,अलग पार्टियां बनाई,लेकिन वे कभी राष्ट्रीय पार्टियां नहीं बन पायीं और अंतत: भाजपा से अलग हुई पार्टियां भाजपा में ही विलीन हो गयीं।
पिछले एक दशक से सत्ता पर काबिज भाजपा की चाल,चरित्र और चेहरे में बहुत तब्दीली आयी है। आज भाजपा कारपोरेट तरीके से चल रही है। भाजपा में बगावत का मतलब बाग़ी साथी का मटियामेट करना होता है। जो पार्टी नेतृत्व के खिलाफ गया उसको मिट्टी में मिला दिया गया हो। यशवंत सिन्हा से लेकर तमाम लोग हैं जो मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोलने में घबड़ा रहे हैं। मौजूदा नेतृत्व के आतंक के बावजूद हरियाणा में ,राजस्थान में ,आंधी प्रदेश में और अब कर्नाटक में बगावत के स्वर सुनाई दे रहे हैं।
ताजा खबर ये है कि बेटे को टिकट नहीं मिलने से नाराज कर्नाटक के पूर्व उपमुख्यमंत्री के.एस. ईश्वरप्पा ने शिवमोग्गा से निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा की है। इस लोकसभा सीट से भाजपा ने बी एस येदुयुरप्पा के बेटे बी वाई राघवेंद्र को उम्मीदवार बनाया है। बुधवार को के.एस. ईश्वरप्पा ने येदियुरप्पा परिवार पर जमकर निशाना साधा। उन्होंने दावा किया कि शिवमोग्गा से वह चुनाव जीतेंगे,चुनाव नतीजों के बाद येदियुरप्पा के दूसरे बेटे बी.वाई. विजयेंद्र से प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का पद छिन जाएगा। उन्होंने अपने बेटे कांतेश का टिकट कटने का ठीकरा भी येदियुरप्पा पर ही फोड़ दिया। इस बयान के बाद येदियुरप्पा का भी बयान आया। उन्होंने कहा कि विजयेंद्र को जिम्मेदारी केंद्रीय नेतृत्व ने दी और जनता उनके आरोपों का जवाब देगी।
आम चुनाव कोई प्रक्रिया शुरू होने के बाद भाजपा में असंतोष को दबाने के लिए भाजपा का नेतृत्व क्या सबके साथ यशवंत सिन्हा की तरह ही व्यवहार करेगा या कोई दूसरा रास्ता खोजेगा ये कहना कठिन है। भाजपा का असंतोष कांग्रेस के लिए कितना फायदेमंद होगा कहना जल्दबाजी होगी । हाँ यदि भाजपा की ही तरह कांग्रेस भी अपने यहां भाजपा के असंतुष्टों के लिए शरणार्थी शिविर खोल ले तो शायद बात बन जाए। वरुण गांधी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के भांजे अनूप मिश्रा तक असंतुष्टों की कतार में हैं।
नेतृत्व के मामले में दोनों दलों में जमीन -आसमान का अन्यत्र है। कांग्रेस का नेतृत्व जहाँ गांधी परिवार की छाया से मुक्त नहीं है वहीं भाजपा का नेतृत्व इस समय स्वयंभू हो गया है । उसके ऊपर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नियंत्रण भी नहीं रह गया है।