समाज की चुप्पी परेशान करने वाली ?
हालात: यह मृत्यु झकझोरती है…और समाज की चुप्पी परेशान करने वाली
जो बांग्लादेश बड़ी तेजी से कट्टरवाद की ओर झुकता चला गया है, जहां स्त्रियों की स्वतंत्रता और उदार चिंतन की जगह क्रमश: सिकुड़ती गई है, और हाल के वर्षों में आर्थिक स्थिति बेहतर होने के कारण जहां उपभोक्तावाद तेजी से बढ़ा है, वहां पिछले दिनों घरेलू काम करने वाली एक आदिवासी किशोरी प्रीति उरांव की संदेहास्पद मृत्यु ने लोगों का ध्यान खींचा है। दक्षिण एशिया में उरांव आदिवासियों की बड़ी आबादी रहती है। भारत में मुख्यत: झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा में इनका निवास है, तो बांग्लादेश में भी इनकी बड़ी संख्या है। वर्ष 2020 की आदमशुमारी के मुताबिक, बांग्लादेश में उरांव आदिवासियों की आबादी लगभग 2.45 लाख है।
लेकिन प्रीति ढाका शहर के किसी आम घर में नहीं, चर्चित अंग्रेजी अखबार द डेली स्टार के एक संपादक के यहां काम करती थी, जिनकी स्वाभाविक ही बौद्धिक छवि थी। जो व्यक्ति अखबार में मानवाधिकार, स्त्री-पुरुष समान अधिकार और औरतों के साथ होनेवाली हिंसा के खिलाफ लिखता हो, जो हर तरह के शोषण के खिलाफ बात करता हो, उससे व्यवहारिक तौर पर भी स्त्रियों के साथ संवेदनशील व्यवहार करने की ही उम्मीद की जाती है। लेकिन पता चलता है कि उनके घर पर बाल श्रमिक काम करते थे। ऐसा क्यों था? अगर बौद्धिक लोग भी अपने घर पर बच्चों से काम कराएंगे, तो समाज किससे सीखेगा कि हर बच्चे को स्कूल जाने का अधिकार है? तथ्य यह है कि पिछले साल छह अगस्त को भी काम करने वाली एक किशोरी फिरदौसी नौवीं मंजिल स्थित उस व्यक्ति के फ्लैट से नीचे कूदकर गंभीर रूप से घायल हो गई थी। अपनी जान जोखिम में डालकर वह किशोरी उतनी ऊंचाई से क्यों कूदी थी? फ्लैट में क्या हुआ था? महीनों बाद प्रीति उरांव को भी फिरदौसी की तरह अपनी जान जोखिम में डालकर नीचे कूदना पड़ा। लेकिन वह फिरदौसी की तरह भाग्यशाली नहीं थी। नीचे गिरने के बाद वह मर गई।
सबसे स्तब्ध करने वाली बात यह है कि छह महीने पहले एक दुखद घटना घटने के बाद भी उस संपादक और उनके परिवारजनों ने कोई सबक नहीं लिया था। सिर्फ यही नहीं कि उनके यहां घरेलू कामगारों के शोषण का सिलसिला लगातार जारी रहा, बल्कि जिस खिड़की से फिरदौसी कूदी थी, उसमें ग्रिल लगाने या सुरक्षा की दूसरी व्यवस्था करने की जरूरत भी उस परिवार ने महसूस नहीं की। क्या उस परिवार को इसका अहसास नहीं था कि शोषण से तंग आकर काम करने वाली दूसरी लड़की भी जान बचाने के लिए कूद सकती है? या अपनी विशिष्ट पहचान या समाज में खास छवि के कारण उस परिवार को इसकी कोई परवाह नहीं थी?
प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि प्रीति के शरीर पर जख्मों के निशान थे। कुछ लोगों का कहना है कि प्रीति की बुरी तरह पिटाई की गई होगी, यहां तक कि उसे मार डाला गया होगा, फिर ऊपर से लाश नीचे फेंक दी गई। जबकि कुछ लोगों का यह आकलन है कि भीषण पिटाई के बाद प्रीति ने जान बचाने के लिए ऊपर से छलांग लगा दी होगी।
आश्वस्ति की बात यह है कि आरोपी की गिरफ्तारी हुई है। पुलिस ने इस मामले में उस घर के कुल छह लोगों को गिरफ्तार किया है। गौर करने वाली बात यह है कि काम करने वाली नौकरानियों पर अत्याचार करने के कारण आरोपी को इससे पहले भी गिरफ्तार किया गया था। लेकिन यह मामला बेहद गंभीर है। प्रीति उरांव की मृत्यु से बांग्लादेश में हलचल मच गई है, तो इसका कारण यही है। पहाड़ी छात्रों का एक संगठन न सिर्फ प्रीति के मामले में न्याय की मांग करते हुए सड़क पर उतरा, बल्कि उसका यह भी कहना है कि प्रीति के पिता को दो लाख रुपये देकर आरोपी इस मामले को रफा-दफा करना चाहता है। यह एक और उदाहरण है कि समृद्ध लोगों को अपने अन्याय का कोई अहसास नहीं होता। इसके बजाय वे कुछ पैसे देकर गरीबों का मुंह बंद कर देने पर ज्यादा भरोसा करते हैं। यह सही है कि प्रीति उरांव की मौत से जुड़ी पूरी सच्चाई अभी तक सामने नहीं आई है। या तो उसे मारकर फेंक दिया गया होगा, या फिर शोषण से मुक्ति के लिए उसने खुद जोखिम उठाया होगा। लेकिन यह तो साफ ही है कि उसे काम करते हुए शोषण का सामना करना पड़ रहा था।
दूसरे देशों की तरह बांग्लादेश में भी एक समय घरेलू नौकरानियों का खूब शोषण किया जाता था। लेकिन आज वह स्थिति नहीं है, क्योंकि हजारों की संख्या में खुली गारमेंट्स फैक्टरियों के कारण वहां घरेलू नौकरानियां मिलना पहले की तरह आसान नहीं है। उन्हें वेतन भी पहले की तुलना में ज्यादा मिलता है। पर मालिकों और घरेलू कामगारों का रिश्ता पहले जैसा ही है। गरीब महिलाओं की बड़ी आबादी अधिक वेतन के लालच में खाड़ी देशों का रुख करती हैं। यह अलग बात है कि वहां भी उन्हें शोषण का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह देखना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने देश में भी अनेक गरीब लड़कियां और महिलाएं शोषण का निरंतर शिकार होती हैं।
प्रीति उरांव की मृत्यु ने, दुर्भाग्य से, समृद्ध होते समाज की उस दुखद सच्चाई से हमारा सामना कराया है, जिसमें न केवल अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती जा रही है, बल्कि समाज में गरीबों के प्रति अमानवीय व्यवहार को सामान्य घटना समझ लिया जाता है। जब तक समतापूर्ण समाज का निर्माण नहीं होगा, तब तक अमीर-गरीब की खाई को पाटा नहीं जाएगा, तब तक गरीबों के शोषण पर अंकुश नहीं लगने वाला। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि समाज ऐसी घटनाओं पर चुप रह जाए, बल्कि ऐसे मामलों में समाज को ही सक्रिय होना पड़ेगा।