बच्चे स्कूल सीखने जाते हैं, पढ़ने के लिए नहीं!

बच्चे स्कूल सीखने जाते हैं, पढ़ने के लिए नहीं!
छत्तीसगढ़ के दुर्ग से दस किमी दूर एक गांव में रहने वाली वह बच्ची इस साल जून में पूरे चार साल की हो जाएगी। इस गांव की आबादी दो हजार है और अधिकांश घर खेती पर निर्भर हैं। एक अप्रैल को वह गर्व के साथ तीन अन्य छात्रों के साथ स्कूल बस में चढ़ी, ये बस उसे लेने आई थी।

इस सोमवार से स्कूल उसे अपने तरीके से पढ़ाएगा जैसे उन्हें लगता है कि वे बच्चों की जिंदगी को आकार देंगे। ये सिर्फ इस एक बच्ची के साथ नहीं है बल्कि देश में ऐसे हजारों बच्चे हैं, जो इस हफ्ते से इस यात्रा पर निकलेंगे। उनके माता-पिता ने अच्छे शिक्षक-अच्छे बुनियादी ढांचे के साथ सही शैक्षणिक संतुलन चुनकर अपना काम कर दिया, जो कि उन्हें सही स्कूल चुनने से पहले लगता था।

मुझे याद है, छह दशक पहले मेरे पिता मेरा हाथ पकड़कर विनोबा भावे जी के पवनार आश्रम (महाराष्ट्र में सेवाग्राम के पास) ले जाते थे, विनोबा जी भूदान आंदोलन व गांधीजी के साथ जुड़ाव के लिए जाने जाते थे। चूंकि हमारा परिवार सेवाग्राम आश्रम से जुड़ा था, ऐसे में पिता विनोबा जी को अच्छी तरह जानते थे।

पिता ने विनोबा जी को कहा, “इसे कुछ ऐसा सिखाएं जो आपको सही लगता हो’। वहां कोई कतार नहीं थी, दाखिले की मारामारी नहीं, आवेदन नहीं, कोई स्कूल बस नहीं, कोई अच्छा आधारभूत ढांचा नहीं, उनके साथ कोई बेहतरीन टीचिंग स्टाफ भी नहीं था और सबसे बड़ी बात, वहां स्कूल की कोई तय समय-सीमा भी नहीं।

वे दोनों एक-दूसरे से बात करने में लग जाते और मुझे कहते कि आश्रम में गिलहरियों के साथ खेलूं। मुझे याद नहीं पड़ता कि आश्रम में किताबों के अलावा मैं कुछ और लेकर गया होऊं। वहां मैंने जो भी सीखा, उनमें सबसे अच्छा ये था कि मुझे कभी पढ़ने के लिए नहीं कहा गया, पर हमेशा सिखाया गया! फिर चाहे भजन, श्लोक, जातक कथाएं, खेल या बाकी चीजों के जरिए हो।

आज जब मैं वे दिन याद करता हूं तो लगता है कि वो सारी चीजें कोई न कोई ज्ञान देती थीं। सात साल की उम्र के बाद मैं नागपुर के सरस्वती विद्यालय आ गया और फिर पूरी स्कूली शिक्षा वहीं हुई, जहां के ट्रस्टी व प्रिंसिपल गांधी जी के अनुयायी थे। उन दिनों माता-पिता जानते थे कि बच्चा 14 साल की उम्र से पहले 90% सब कुछ सीख लेता है और उसका भी 90%, 7 साल की उम्र से पहले सीख जाता है। ये तथ्य आज भी बदला नहीं है।

बच्चों वाले हर घर में पिछले कुछ महीनों से सारा जोर इसी बात पर होगा कि दाखिला किस स्कूल में कराया जाए क्योंकि ये माता-पिता द्वारा बच्चों के लिए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक है। पर मुझे नहीं पता कि कितने माता-पिता को मौका मिल पाता है कि वे स्कूल की विचारधारा और स्कूल प्रमुख के शिक्षा पर विचार के साथ ही बुनियादी मानवीय गुण जैसे-ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और एक अच्छा इंसान बनने के लिए उनकी राय जान सकें।

बच्चे को स्कूल में प्रवेश दिलाना जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है। यह बारीकियां ही मायने रखती हैं, क्योंकि बच्चा अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा एक शैक्षणिक संस्थान में बिताता है। यहीं पर वे मेलजोल, संवाद करना, संवेदनशील होना, आविष्कार करना, जिज्ञासु होना, शिक्षित होना और नए कौशल हासिल करना सीखते हैं।

इसलिए बात परफेक्ट स्कूल ढूंढने की नहीं, परफेक्ट लीडर ढूंढने की है, जो पूरे स्टाफ और बच्चों को सही दिशा में ले जाए। याद रखें, बच्चे इसलिए स्कूल नहीं जाते कि रट लें और ज्यादा अंक पाने के लिए उत्तर-पुस्तिका में उन रटी चीजों को उलेड़ दें।

 …. स्कूल चुनते हुए यह जानना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उस स्कूल का लीडर शिक्षा के मामले में व्यापक संदर्भ में क्या सोचते हंै। क्योंकि यह वहीं हैं जो धीरे-धीरे सुनिश्चित करेंगे कि वे आइडिया बच्चे के भविष्य को आकार दें।

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