सुप्रीम कोर्ट भी कंफ्यूज!

सुप्रीम कोर्ट भी कंफ्यूज! 9 जजों की संविधान पीठ के पास 20 साल से पेंडिंग हैं दो मामले
सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ में दो मामले 20 साल से पेंडिंग हैं. ये मामले इतने जटिल हैं कि अब तक अदालत अपना फैसला नहीं कर सकी है.

सुप्रीम कोर्ट में अभी दो ऐसे मामले लंबित हैं जिनकी सुनवाई 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ करेगी. ये दोनों मामले 20 साल से भी ज्यादा समय से अदालत में विचाराधीन हैं. क्या आप इन दो मामलों के बारें में जानते हैं?

सुप्रीम कोर्ट के 70 साल के इतिहास में नौ-न्यायधीशों की पीठ की ओर से दिए गए फैसलों की संख्या बहुत कम है. अदालत ने अब तक केवल 18 नौ न्यायाधीशों की पीठ के फैसले सुनाए हैं. इनमें ज्यादातर मामले मौलिक अधिकारों के दावों के इर्द-गिर्द घूमते हैं. नौ न्यायाधीशों की पीठ मुख्य रूप से संविधान की व्याख्या से संबंधित जटिल मामलों पर ही सुनवाई करती है. 

7 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में नौ जजों की संविधान पीठ के सामने चार मामलों की लिस्ट रखी गई थी. अब अदालत को इनमें दो मामलों की सुनवाई करनी है. ये दो मामले क्या हैं… इस स्पेशल स्टोरी में विस्तार से जानिए. 

पहले जानिए क्या है संविधान पीठ
सुप्रीम कोर्ट में गठित विशेष पीठों को संविधान पीठ कहा जाता है. इसमें कम से कम पांच न्यायाधीश शामिल होते हैं. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के तहत इसकी व्यवस्था की गई है. इसके अलावा, अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति की ओर से किसी मामले को सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाने पर भी संविधान पीठ सुनवाई करती है. इसी तरह, भारतीय संसद के किसी अधिनियम में संशोधन से जुड़े विषयों को भी सुप्रीम कोर्ट संविधान पीठ को सौंप सकता है. भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास संविधान पीठ के गठन और उसके समक्ष मामलों को रखने का अधिकार होता है.

केस 1: प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र
यह मामला मुंबई में निजी जमीन मालिकों के बारे में है. वे महाराष्ट्र सरकार की ओर से जर्जर इमारतों को अपने अधिकार में लेकर उनकी मरम्मत करवाने का विरोध कर रहे हैं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य सवाल यह है कि क्या निजी संपत्ति को ‘सामुदायिक संसाधन’ माना जा सकता है? क्या ‘सामुदायिक संसाधन’ के अंतर्गत निजी संपत्ति (जैसे किसी व्यक्ति की फैक्ट्री या जमीन) को भी शामिल किया जा सकता है?

भारत के संविधान का अनुच्छेद 39(b) कहता है कि राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह ऐसी नीतियां बनाए जिससे यह सुनिश्चित हो कि सामुदायिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह हो कि सबका भला हो सके. यह प्रावधान संविधान के भाग IV के अंतर्गत आता है, जिसका शीर्षक ‘राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत’ है. ये ऐसे सिद्धांत हैं जिनको ध्यान में रखकर कानून बनाए जाने चाहिए, लेकिन नागरिकों के खिलाफ सीधे तौर पर उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.

आसान शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 39(ब) राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाने का सुझाव देता है कि देश के संसाधन सभी लोगों के फायदे के लिए वितरित किए जाएं. लेकिन, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इसमें निजी संपत्ति भी शामिल है या नहीं.

मुंबई में बहुत सी पुरानी और जर्जर इमारतें हैं जिनमें मरम्मत न होने के कारण रहना खतरनाक होता जा रहा है. फिर भी इन इमारतों में लोग किराएदार के रूप में रहते हैं. इन इमारतों की मरम्मत और पुनर्निर्माण के लिए महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास अधिनियम 1976 (MHADA) के तहत इनमें रहने वालों पर सेस लगाया जाता है. यह पैसा मुंबई भवन मरम्मत और पुनर्निर्माण बोर्ड (MBRRB) को दिया जाता है जो इन ‘सेस वाली इमारतों’ की मरम्मत और पुनर्निर्माण के काम को देखता है.

प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन की क्या है मांग
साल 1986 में संविधान के अनुच्छेद 39(ब) के तहत दायित्व का हवाला देते हुए एमएचएडीए में संशोधन किया गया था. इसमें धारा 1ए जोड़ी गई थी जिसमें घोषणा की गई थी कि एमएचएडीए का उद्देश्य अनुच्छेद 39(ब) के सिद्धांत सुरक्षित करना है. जरूरतमंद व्यक्तियों को जमीन या प्रॉपर्टी देने के लिए एमएचएडीए योजनाएं बना सकता है. MHADA में किए गए संशोधन में अध्याय VIII-A भी जोड़ा गया. जिसमें अगर किसी जर्जर इमारत के 70 फीसदी निवासी सहमत हैं, तो MHADA उस इमारत को अपने अधिकार में ले सकता है.

इसके विरोध में 20,000 से ज्यादा जमीन मालिकों ने 1986 में बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की. इस तरह यह मामला अदालत पहुंच गया और तब से इस पर धीमी गति से सुनवाई चल रही है. उनका कहना है कि अध्याय VIII-A का प्रावधान संपत्ति मालिकों के साथ भेदभाव करता है. यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि भाग IV के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बनाए गए कानूनों को संविधान के अनुच्छेद 31C के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है. यानी ऐसे कानूनों को समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है.

प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने दिसंबर 1992 में सुप्रीम कोर्ट में बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की. सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य सवाल यह था क्या अनुच्छेद 39(b) के तहत ‘सामुदायिक संसाधनों’ में निजी संपत्ति भी शामिल है? अगर ऐसा है तो जर्जर इमारतों को भी सामुदायिक संसाधन माना जाएगा. 

फरवरी 2002 में सात न्यायाधीशों की बेंच ने ‘मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ (1997)’ मामले में 9 न्यायाधीशों की बेंच की ओर से दिए गए फैसले का हवाला दिया. उस फैसले के अनुसार, अनुच्छेद 39(b) निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को भी कवर करता है. लेकिन सात जजों की बेंच ने कहा, “हम इस पर सहमत होने में कुछ कठिनाई महसूस कर रहे हैं.” इसलिए उन्होंने MHADA के अध्याय VIII-A की चुनौती वाला मामला नौ न्यायाधीशों की बेंच को भेज दिया गया. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में 31 से ज्यादा सालों से लंबित है.

2019 में आया अहम मोड़
इस मामले में 2019 में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम देखने को मिला जब राज्य विधानसभा ने कानून में फिर से संशोधन किया. इसमें जमीन मालिकों के लिए जर्जर इमारतों की मरम्मत करवाने के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी गई. अगर मालिक तय समय तक मरम्मत नहीं करवा पाते हैं, तो राज्य सरकार उस संपत्ति को अपने अधिकार में ले सकती है.

हालांकि राज्य का कहना है कि यह बदलाव लोगों के हित के लिए किए गए, पर जमीन मालिकों का कई सालों से यह आरोप रहा है कि राज्य सरकार की मंशा गलत है. वह चाहते हैं कि जमीन मालिकों से उनकी संपत्ति छीनकर उसे बड़े बिल्डरों को दे दिया जाए.

केस 2: स्टेट ऑफ यूपी बनाम जय बीर सिंह
बैंगलोर वॉटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड बनाम ए राजप्पा (1978) केस में भारत में मजदूरों के पक्ष में एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया. सात न्यायाधीशों की बेंच ने औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 (IDA) के तहत ‘उद्योग’ शब्द की बहुत व्यापक परिभाषा दी. इस परिभाषा के दायरे में कई संस्थाएं और उनके कर्मचारी आ गए जिससे उनको कानूनी संरक्षण मिलने लगा. बोर्ड की ओर से हटाए गए कुछ कर्मचारियों ने औद्योगिक विवाद अधिनियम (IDA) के तहत अपने बकाये का भुगतान पाने के लिए मुकदमा दायर किया था. 

लेकिन, बाद के कुछ सालों में इसको लेकर अदालतों में असमंजस की स्थिति बन गई. 1996 में सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने ‘बैंगलोर वॉटर सप्लाई’ वाले मामले के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि ‘सामाजिक वानिकी विभाग’ को भी ‘उद्योग’ की परिभाषा के तहत माना जाएगा. लेकिन 2001 में दो न्यायाधीशों की बेंच ने एक अलग नजरिया अपनाया. उनका तर्क था कि वन विभाग राज्य के ‘संप्रभुता से जुड़ा कार्य’ है और याचिकाकर्ता ने यह स्पष्ट नहीं किया कि यह उद्योग की कैटेगरी में क्यों आएगा.

इस तरह दोनों फैसलों में काफी अंतर था जिससे मजदूरों के बीच चिंता पैदा हो गई. फिर वे सुप्रीम कोर्ट गए ताकि औद्योगिक विवाद अधिनियम (IDA) के तहत उद्योग की  परिभाषा निर्धारित की जा सके. उनका तर्क था कि बैंगलोर वॉटर सप्लाई मामले में उद्योग शब्द को इतना व्यापक बना दिया था कि सरकारी संस्थानों पर उस कानून को लागू करने में बहुत भ्रम की स्थिति थी.

इसके बाद ‘उद्योग’ की परिभाषा पर स्पष्टता लाने के लिए मई 2005 में न्यायमूर्ति धर्माधिकारी की अध्यक्षता में पांच न्यायाधीशों की बेंच ने इस मामले को नौ न्यायाधीशों की बेंच के पास भेज दिया. तब से ये मामले अदालत में लंबित है.

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