वो सभ्यताएं और साम्राज्य जो जलवायु परिवर्तन की वजह से नष्ट हो गए ?

वो सभ्यताएं और साम्राज्य जो जलवायु परिवर्तन की वजह से नष्ट हो गए
हमारा जीवन जीने का तरीका एक स्थिर मौसम पर ही टिका हुआ है. ऐसे में हमारे लिए जरूरी है कि हम मौसम में बदलाव की वजह से उन खत्म हो चुकी सभ्यताओं से सीख लें.

पृथ्वी का मौसम हमेशा बदलता रहता है. मौसम का बदलना एक ऐसा चक्र है जो लगातार चलता रहता है और इसे रोका नहीं जा सकता. लेकिन इतिहास गवाह है जब भी किसी प्राचीन सभ्यता ने अपनी सीमा लांघ दी या प्राकृतिक संसाधनों का ज्यादा दोहन किया तो जलवायु परिवर्तन का असर उन पर बहुत बुरा पड़ा है.

पिछले 650,000 सालों में ही धरती पर सात बार हिमयुग आए और गए. इसकी वजह से ग्लेशियर यानी बर्फ की बड़ी चादरें फैलती और सिमटती रहीं. आखिरी बड़ा हिमयुग करीब 11,000 साल पहले खत्म हुआ था और उसके बाद से धरती का मौसम काफी हद तक स्थिर रहा है.

बीच में 1200 से 1850 ईस्वी के दौरान जरूर थोड़ा ठंडा दौर आया था जिसे छोटा हिमयुग कहा जाता है. लेकिन जलवायु परिवर्तन सिर्फ बर्फ की चादरों के फैलने और सिमटने तक सीमित नहीं है. कई बड़ी सभ्यताएं भी अपने इलाके के मौसम में बदलाव की वजह से तबाह हो चुकी हैं. 

सिंधु घाटी सभ्यता
लगभग 3000 ईसा पूर्व आज के पाकिस्तान में सिंधु घाटी सभ्यता का विकास हुआ था. इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है. ये समाज अपने शानदार शहरों और पानी के भंडारण के तरीकों के लिए मशहूर था. सिंधु घाटी की सभ्यता घनी आबादी वाले शहरों में रहती थी. उनका जीवन व्यापार और खेती पर निर्भर करता था. लेकिन करीब एक हजार साल बाद जलवायु परिवर्तन ने इन लोगों के लिए खतरा पैदा कर दिया.

शोधकर्ताओं का मानना है कि सूखे ने शायद इस सभ्यता को खत्म करने में अहम भूमिका निभाई. अनुमान लगाया जाता है कि 2000 ईसा पूर्व के आसपास मानसून की बारिश में काफी कमी आ गई जिसके साथ ही वहां की आबादी में भी तेजी से गिरावट होने लगी. उसी समय एशिया की दूसरी सभ्यताओं ने भी जलवायु से जुड़ी परेशानियों का सामना किया और उनका जीवन भी प्रभावित हुआ. करीब 200 साल तक मुश्किलों से जूझने के बाद सिंधु घाटी के ज्यादातर बाकी बचे लोग शायद पूर्व की ओर पलायन कर गए. 

वो सभ्यताएं और साम्राज्य जो जलवायु परिवर्तन की वजह से नष्ट हो गए

पुएब्लो सभ्यता
जलवायु परिवर्तन की वजह से तबाह होने वाली सिंधु घाटी की सभ्यता इतिहास में अकेली नहीं है. पुएब्लो सभ्यता जलवायु परिवर्तन से तबाह हुई सबसे प्रसिद्ध सभ्यताओं में से एक है. ये लोग लगभग 300 ईसा पूर्व से लेकर कोलोराडो पठार क्षेत्र में रहते थे. ज्यादातर जनजातियां चाको कैन्यन, मेसा वर्डे और रिओ ग्रांडे के आसपास बसती थीं. वे खेतीबाड़ी करके अपना जीवनयापन करते थे और खासतौर पर मक्के की फसल पर निर्भर थे.

समय के साथ, इस सभ्यता को उन्हीं की बनाई हुई एक चुनौती का सामना करना पड़ा. पुएब्लो के लोगों ने फसल उगाने के लिए जंगलों को काट दिया. इस वजह से खेती के लिए जमीन अनुकूल नहीं रह गई और उपजाऊ कम हो गई. उसी दौरान मौसम भी बदल गया. बुवाई का समय कम होता गया और बारिश भी कम होने लगी, जिससे फसलें कम होने लगीं. 1225 ईस्वी के आसपास पुएब्लो की बस्तियां खत्म होने लगीं.

माया सभ्यता
8वीं और 9वीं सदी में माया सभ्यता का अचानक पतन कई सालों से शोधकर्ताओं को हैरान कर रहा है. माया सभ्यता मेसोअमेरिका का एक सांस्कृतिक केंद्र थी, जब तक कि इसका विनाशकारी पतन नहीं हुआ. युकाटन प्रायद्वीप में 2600 ईसा पूर्व में बनी यह सभ्यता अपनी कला, वास्तुकला और परिष्कृत ग्रंथों के लिए जानी जाती है.

मेसोअमेरिका में माया सभ्यता करीब 3000 सालों तक चली. उनका साम्राज्य पूरे युकाटन प्रायद्वीप और आधुनिक ग्वाटेमाला, बेलीज, मेक्सिको के कुछ हिस्सों, पश्चिमी होंडुरास और अल सल्वाडोर में फैला हुआ था. कृषि माया सभ्यता की आधारशिला थी. जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ महान शहरों का निर्माण किया गया था. धर्म माया सभ्यता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था. इनका उद्देश्य देवताओं को खुश करना, पोषण करना और भूमि को उपजाऊ रखना था.

लेकिन 900 ईस्वी के आसपास माया सभ्यता के लिए चीजें बिगड़ने लगीं. आबादी इतनी बढ़ गई कि जरूरत की चीजों के लिए बहुत ज्यादा दबाव पड़ने लगा. ज्यादा लोगों की वजह से जरूरी चीजों के लिए लड़ाई-झगड़े भी होने लगे. वहीं कई सालों तक सूखे का दौर चला जिसने उनकी फसलों को बर्बाद कर दिया और पीने का पानी भी मुश्किल से मिलने लगा. ये एक तरह से उनकी मौत की शुरुआत थी. 

अक्काद साम्राज्य
4 हजार से भी ज्यादा साल पहले मेसोपोटामिया (आज का इराक, उत्तर-पूर्वी सीरिया और दक्षिण-पूर्वी तुर्की) में अक्काद साम्राज्य का बोलबाला था. मगर 300 साल तक लगातार चलने वाले भयंकर सूखे ने उनकी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया. ईसा पूर्व 2200 के आसपास पूरे मध्य-पूर्व में मौसम लगातार बदल रहा था जिससे लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया.

जब सूखे का असर दिखना शुरू हुआ तो लोग सूखाग्रस्त इलाकों को छोड़कर उन इलाकों में जाने लगे जहां ज्यादा पानी और खेती के लिए उपजाऊ जमीन थी. लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने से बाकी बचे संसाधनों पर बोझ बढ़ गया. इससे और भी मुश्किलें खड़ी हो गईं और धीरे-धीरे ये साम्राज्य भी खत्म हो गया. 

खमेर साम्राज्य 
इतिहास में खोई हुई एक और सभ्यता है. weforum.org के अनुसार दक्षिण-पूर्व एशिया का खमर साम्राज्य (802 से 1431 ईस्वी के बीच) अपनी शानदार अंगकोर वाट मंदिर के लिए आज भी याद किया जाता है. ये साम्राज्य भी सूखे और कभी-कभी होने वाली तेज बारिश की वजह से जलवायु परिवर्तन का शिकार हुआ था.

यहां तक कि माना जाता है कि उत्तरी अटलांटिक में ग्रीनलैंड के वाइकिंग बसने वाले भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हुए थे. करीब 500 सालों तक 5000 वाइकिंग्स इस द्वीप को अपना घर बनाकर रहे. लेकिन हो सकता है कि जलवायु परिवर्तन ने उनकी जिंदगी मुश्किल कर दी हो. 

वहां का तापमान काफी गिर गया, जिस कारण उनकी खेती की पैदावार बहुत कम हो गई और मवेश पालना भी मुश्किल हो गया. उन्होंने अपने खाने की आदतों को बदला और ज्यादा से ज्यादा खाना समुद्र से मछली पकड़कर लाने लगे. लेकिन ग्रीनलैंड पर रहना इतना मुश्किल हो गया कि आखिरकार वहां की बस्ती को ही छोड़ना पड़ा.

चोल साम्राज्य और गुप्त साम्राज्य का पतन
पर्यावरण के कारण दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य के पतन में भी अहम भूमिका निभाई. इतिहासकार तिरूमलाई ने ‘लैंड ग्रांट्स एंड एग्रेरियन रिएक्शन्स इन चोला एंड पाण्ड्य टाइम्स’ किताब में लिखा है कि 12वीं शताब्दी के बाद से कावेरी और चेय्यार नदी में बार-बार बाढ़ आती रही. ये बाढ़ें बहुत भयानक थीं, लेकिन जमींदारों ने संकट को बहुत बुरी तरह से संभाला, उन्होंने किसानों पर कर देना अनिवार्य कर दिया. 

कुछ लोगों ने इस संकट का फायदा उठाया और जमीनें खरीद ली. इससे कुछ लोग अमीर बन गए, लेकिन बाकी लोग कंगाल हो गए. 12वीं सदी के अंत और 13वीं सदी की शुरुआत तक शिलालेखों से पता चलता है कि लोग खुद को गुलामी में बेचने लगे थे. मानवीय कार्यों ने प्राकृतिक संकट को  और भी बदतर बना दिया.

ऐसे और भी उदाहरण हैं. ‘द फेट ऑफ रोम: क्लाइमेट, डिजीज एंड द एंड ऑफ एन एम्पायर’ में इतिहासकार काइल हार्पर ने बर्फ के नमूनों और पेड़ों के छल्लों का अध्ययन किया. पता चला है कि 536 ईस्वी में ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण वैश्विक स्तर पर भयानक ठंड पड़ी थी. दुनियाभर के दस्तावेजों में आसमान का काला पड़ना, लंबी सर्दियां और फसलों की बर्बादी का वर्णन मिलता है. लगभग उसी समय भारत में मध्य एशिया से हूणों ने गंगा के मैदानों पर हमला किया जिससे गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ

रोमन साम्राज्य
शोधकर्ताओं का मानना है कि रोमन साम्राज्य के पतन से पहले वहां फैली सबसे खतरनाक बीमारियों का जलवायु परिवर्तन से नाता रहा होगा. जलवायु में बदलावों ने शायद रोमन समाज में ऐसी बीमारियां पैदा की जिसके चलते वहां भयंकर तबाही मच गई. छठी शताब्दी ईस्वी में फैली प्लेग नाम की बीमारी के बारे में बीजान्टिन इतिहासकार प्रोकोपियस ने लिखा था, यह एक ऐसी महामारी थी जिससे पूरी मानव जाति लगभग खत्म होने के कगार पर पहुंच गई थी.

रोमन साम्राज्य की आधी आबादी और भूमध्य सागर के आसपास के लाखों लोगों की मौत इस महामारी में हुई हो सकती है, जिसे अब बुबोनिक प्लेग का प्रकोप माना जाता है. यह बीमारी आमतौर पर बुखार के साथ शुरू होती थी, उसके बाद कमर और बगल में सूजन, फिर कोमा या प्रलाप और अंत में मौत हो जाती थी. साइंस एडवांसेज के एक अध्ययन में रोमन साम्राज्य में फैली महामारियों को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा है. यह माना जाता है कि जलवायु में परिवर्तन ने रोमन समाज में तनाव पैदा किया जिसके परिणामस्वरूप ऐसी महामारियां हुईं.

रपा नुई सभ्यता
रपा नुई (ईस्टर आइलैंड) की सभ्यता (आज के चिली में स्थित एक द्वीप पर थी) 400 से 700 ईस्वी के बीच शुरू हुई थी. ये सदियों तक एक संपन्न कृषि समाज के रूप में जानी जाती थी. लेकिन 1700 के दशक से शुरू होकर यूरोपीय लोगों ने इस इलाके में आकर कब्जा करना शुरू कर दिया. उन्होंने वहां के मूल निवासियों का भयानक कत्लेआम किया और साथ ही बहुत से लोगों को वहां बसने के लिए ले आए.

बहुत से शोधकर्ताओं का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और आबादी के अत्यधिक बढ़ने से रपा नुई का पतन हुआ. 1300 ईस्वी के आसपास छोटा हिमयुग शुरू हुआ जिसकी वजह से लंबे समय तक सूखा पड़ा.

जमीन की वो मिट्टी जो कभी बहुत उपजाऊ थी, उसका बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने के कारण कम उपजाऊ होती जा रही थी. खाने की पैदावार कम हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ खाने की जरूरत बढ़ती जा रही थी. नतीजा ये हुआ कि इस सभ्यता को लंबे समय तक खाने की कमी का सामना करना पड़ा और 1800 के आने से पहले ही ये खत्म हो गई.  

अंगकोर कंबोडिया
अंगकोर कंबोडिया का एक बहुत बड़ा शहर था, जो 1100 से 1200 ईस्वी के बीच बनाया गया था. ये शहर ख़्मेर साम्राज्य का गौरव था और अपने भव्य मंदिरों और पानी की व्यवस्था के लिए जाना जाता था. समुद्र के पास होने की वजह से अंगकोर में अक्सर गर्मियों में मानसून आया करते थे और बारिश के इस पानी को विशाल जलाशयों में एकत्र कर लिया जाता था.

लेकिन समय के साथ मानसून का आना जाना अनियमित होता गया. कभी तो बहुत ज्यादा बारिश हो जाती थी और उसके बाद अचानक से लंबे सूखे का या बहुत कम बारिश वाला मानसून का मौसम आ जाता था. 1300 से 1400 ईस्वी के बीच, इस शहर में सबसे खराब मानसून रहा. बाढ़ की वजह से जलाशय और नहरें टूट गईं. सूखे की वजह से खाने का उत्पादन कम हो गया. कई विद्वानों का मानना है कि पानी और खाने के संकट की वजह से ये सभ्यता खत्म हो गई.  

भविष्य के लिए क्या है खतरा
आईपीसीसी के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण वैश्विक तापमान में लगभग 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है. इसकी संभावित सीमा 0.8 डिग्री सेल्सियस से 1.2 डिग्री सेल्सियस के बीच है. 2030 और 2052 के बीच वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने की संभावना है.

वो सभ्यताएं और साम्राज्य जो जलवायु परिवर्तन की वजह से नष्ट हो गए

तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से 20% से 30% जानवरों की प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच सकती हैं. अगर पृथ्वी का तापमान औसतन 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो नुकसान और भी भयानक होगा. मानव आबादी के लिए जलवायु परिवर्तन के खतरों में से एक बढ़ता समुद्र स्तर है और दुनिया के 10 सबसे बड़े शहरों में से आठ तटीय स्थानों पर हैं.

वहीं ऑस्ट्रेलिया के क्लाइमेट एक्सपर्ट की ओर से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन मानव सभ्यता के लिए अस्तित्व का एक बड़ा खतरा बन चुका है. उन्होंने भविष्यवाणी की है कि तेजी से गर्म होती पृथ्वी के कारण 2050 तक मानव सभ्यता खत्म हो सकती है. जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अरबों लोगों के पलायन के कारण अस्थिरता पैदा हो सकती है और समाज टूट सकता है. 

जलवायु परिवर्तन की वजह से हमारी दुनिया को जो खतरा है, उसे कम आंकना नहीं चाहिए. लेकिन निराश होने की भी कोई बात नहीं है. क्योंकि माया, मेसोपोटामिया और दूसरी प्राचीन सभ्यताओं के उलट आज 21वीं सदी में हमारे पास बहुत रचनात्मक कदम उठाने का मौका भी है.

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