राजनीति पहले जैसी शालीन नहीं हो सकती ?

चलन : राजनीति पहले जैसी शालीन नहीं हो सकती, ऐसे में काबिलेगौर है ओडिशा की मिसाल
राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के बीच सहज सौहार्द और शालीनता के उदाहरण बिरले हो चले हैं। राजनीतिक हिंसा-प्रतिहिंसा को  धीरे-धीरे सामान्य मान लिया गया है। ऐसे में ओडिशा की मिसाल सूरज की तपिश में शीतल हवा की भांति है।

Politics can't be as decent as before?

लोकसभा-विधानसभा चुनाव की गहमागहमी में एक महत्वपूर्ण घटना की जाने-अनजाने में अनदेखी जैसी हो गई। ओडिशा में 24 वर्ष बाद सत्ता परिवर्तन हुआ है। वहां भाजपा पहली बार बीजू जनता दल (बीजेडी) को परास्त करके अपने बल पर सरकार बनाने में सफल हुई है। जब 12 जून को शपथ ग्रहण समारोह हुआ, तब न केवल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और मुख्य विपक्षी दल बीजेडी के मुखिया नवीन पटनायक शामिल हुए, बल्कि भाजपा नेतृत्व ने उन्हें मंच पर भी स्थान दिया। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित भाजपा के शीर्ष नेता पटनायक से सहज होकर मिले।

इतना ही नहीं, चुनाव के बाद ओडिशा में राजनीतिक हिंसा की भी कोई खबर नहीं आई। यह सब इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ओडिशा के पड़ोस पश्चिम बंगाल में भाजपा समर्थकों और भाजपा के पक्ष में मत करने वाले को सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कोपभाजन का शिकार होना पड़ रहा है। इसका संज्ञान लेते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी ममता सरकार पर कड़ी टिप्पणी की है। आखिर भारतीय राजनीति में राजनीतिक-वैचारिक विरोधी को प्रतिद्वंद्वी के बजाय शत्रु मानने की विकृति कहां से आई?

स्वतंत्रता से पहले भी विभिन्न राजनीतिज्ञों में मतभिन्नता थी। परंतु वे एक-दूसरे का सम्मान करते थे। एक ही ध्वज के तले संवाद होता था। कुछ पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक समय कांग्रेस, हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग भी मिलकर काम कर चुके थे। तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे ‘भारत-रत्न’ पंडित मदन मोहन मालवीय ने न केवल वर्ष 1915 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा की स्थापना की, बल्कि कांग्रेस में सक्रिय रहते हुए हिंदू महासभा के पांच विशेष सत्रों की अध्यक्षता भी की। इसी तरह गांधीजी वीर सावरकर को ‘भाई’ कहकर संबोधित करते थे, तो वह संघ के अनुशासन से प्रभावित थे। आचार-विचार में मतभेद होने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 6 जुलाई, 1944 में गांधीजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें पहली बार ‘राष्ट्रपिता’ की संज्ञा दी थी। भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) के सह-संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर, दोनों कांग्रेस विरोधी थे। स्वतंत्रता से पहले डॉ. श्यामाप्रसाद हिंदू महासभा, तो डॉ. आंबेडकर अनुसूचित जाति संघ के नेता थे। परंतु गांधीजी की सलाह पर इन दोनों गैर-कांग्रेसी नेताओं के साथ पैंथिक पार्टी के बलदेव सिंह, जस्टिस पार्टी के आर. के. षण्मुखम चेट्टी को भी स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। संभवत: यह स्वतंत्र भारत की पहली गठबंधन सरकार थी।

स्वतंत्रता पश्चात प्रारंभिक वर्षों में भी राजनीतिक शालीनता और शुचिता तुलनात्मक रूप से ऐसी ही थी। यह प्रतिरोधी विचारधाराओं के ध्वजवाहक पं. नेहरू द्वारा अटलजी के प्रधानमंत्री बनने की ‘भविष्यवाणी’ और वाजपेयी द्वारा नेहरू के निधन पर व्यक्त भावुक श्रद्धांजलि देने तक में स्पष्ट है। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में संघ की निस्वार्थ राष्ट्रसेवा देखने और पूर्वाग्रह के बादल छंटने के बाद 1963 में गणतंत्र दिवस परेड में पं. नेहरू द्वारा आरएसएस को आमंत्रित करने, 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आमंत्रण पर संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) के सामरिक बैठक में पहुंचने, मई, 1970 और मई, 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा वीर सावरकर के सम्मान में डाक-टिकट जारी करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान की प्रशंसा करने, 1973 में गुरुजी के निधन पर इंदिरा गांधी द्वारा शोक प्रकट करते हुए उन्हें राष्ट्र-जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला विद्वान और प्रभावशाली व्यक्ति बताने और संघ की शाखाओं में प्रात: स्मरण में गांधीजी को स्थान देने आदि से भी यह वातावरण परिलक्षित होता  है।

भारतीय सनातन संस्कृति में हजारों वर्षों से संवाद और असहमति को स्वीकार करने की परंपरा रही है। लाखों-करोड़ों हिंदू गौतम बुद्ध को श्रीराम-श्रीकृष्ण की भांति भगवान विष्णु का अवतार मानते है। इस पृष्ठभूमि में बाकी धार्मिक धाराओं का यथार्थ सर्वविदित है। भारत में राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों को दुश्मन जैसा मानने का चलन वामपंथ की प्रणाली से प्रारंभ हुआ। हिंसा और असहमति रखने वालों के प्रति असहिष्णु होना-इसके केंद्र में है। दशकों से वामपंथ के गिरफ्त रहा प. बंगाल और केरल ‘राजनीतिक रक्तपात’, ‘दूसरे विचार के प्रति असहिष्णुता’ और ’विरोधियों की हत्याओं’ के मामले में सर्वाधिक दागदार है।

अविभाजित भारत में वामपंथ की राजनीतिक इकाई का उदय 26 दिसंबर, 1925 में हुआ था। भले ही इस असहिष्णु दर्शन ने कालांतर में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में ब्रितानियों के लिए मुखबिरी की, गांधीजी-नेताजी के लिए अपशब्द कहे, पाकिस्तान के जन्म में दाई की भूमिका निभाई, भारतीय स्वतंत्रता को अस्वीकार किया, भारत को 17 देशों का समूह बताया , 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के जिहादी रजाकरों को पूरी मदद दी, 1962 की लड़ाई में चीन का समर्थन किया, इसके बावजूद वामपंथ से देश की मुख्यधारा की राजनीतिक शुचिता अप्रभावित रही।

लेकिन जब 1969-71 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी अल्पमत सरकार को बचाने के लिए वामपंथियों का समर्थन लिया, तो यह राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा बन गया। इससे कांग्रेस का राजनीतिक चरित्र तक बदला। कांग्रेस द्वारा देश पर आपातकाल थोपकर हजारों विरोधियों को जेल में ठूंसना-इस घालमेल का प्रारंभिक लक्षण था।

यह स्वभाव वर्ष 2004 में मणिशंकर अय्यर द्वारा बतौर मंत्री अंडमान-निकोबार की जेल से सावरकर के विचारों को हटाने से लेकर अब तक स्वघोषित सेक्यूलरवादियों द्वारा भाजपा-संघ-मोदी के नाम पर अक्सर गरियाने और मुखर घृणा भाव दिखाने आदि की शक्ल में जारी है। दलों और नेताओं के बीच सहज सौहार्द और शालीनता के उदाहरण बिरले हो चले हैं। इस पृष्ठभूमि में ओडिशा के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान जो कुछ घटित हुआ, वह सूरज की तपिश में शीतल हवा की भांति है। यह घटनाक्रम निस्संदेह, भारतीय लोकतंत्र के हृष्ट-पुष्ट स्वास्थ्य को दर्शाता है।    

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