भारत में पक्षियों का उजड़ता कारवां, किसी को नहीं है सुध ?
पक्षियों की उड़ान पर कसता शिकंजा, नहीं ली सुध तो बिसरा दिए जाएंगे नन्हे पंछी
गैर-परंपरागत भूमि उपयोग में व्यापक स्तर पर बदलाव, वैश्विक उष्मन और जलवायु परिवर्तन, हवा समेत पानी, मिट्टी, ध्वनि और प्रकाश प्रदूषण, अनियंत्रित शिकार और जीव जन्तुओं का अवैध व्यापार तथा इनवेसिव (आक्रामक) प्रजातियों का नए-नए इलाकों में बड़े स्तर पर फैलाव, जैव-विविधता में व्यापक स्तर पर आने वाली कमी के कुछ प्रमुख कारक हैं. हाल के समय में हो रहे जैव-विविधता की क्षति को रोकने और मानवीय कार्यकलापों से होने वाले जीव-जन्तुओं के विलुप्तीकरण को तत्काल रोकने के लिए साल 2022 में बायोडाइवर्सिटी फ्रेमवर्क (GBF) अपनाया गया, जो एक कारगर नीति हो सकती है अगर इसे पूरी तैयारी के साथ लागू किया जाये.
जैव विविधता जरूरी
इस क्रम में जैव-विविधता का समय-समय पर सर्वेक्षण और उनकी संख्या का वैज्ञानिक आकलन एक महत्पूर्ण पड़ाव है, पर यह एक कठिन और जटिल प्रक्रिया है जिसके लिए पर्याप्त समय और कुशल मानव संसाधन की जरूरत होती है. हालांकि कुछ जीव-जंतु, पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के सूचक जैसे काम करते हैं, जिनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति और उनका विन्यास से उस पूरे इलाके के पर्यावरण के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है. इस कड़ी में तितली और पक्षी प्रमुख हैं जो पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य की जानकारी देते हैं.
पक्षियों की उपस्थिति हर जगह एक खासी संख्या में होती है, ये आसानी से पहचान में भी आ जाते हैं. सबसे खास बात कि ये घुमंतू होते हैं, छोटे से लेकर सुदूर हजारों किलोमीटर तक एक निश्चित समय और निश्चित मार्ग पर प्रवास भी करते हैं. पारिस्थितिक तंत्र में होने वाले छोटे से छोटे बदलाव के प्रति संवेदनशील भी होते है.
पर्यावरण में हो रहा बदलाव
अपनी इतनी सारी खूबियों के कारण पक्षी को पर्यावरण में हो रहे बदलाव को समझने का एक महत्वपूर्ण और प्रभावी जरिया माना जाता है. इस प्रकार किसी खास क्षेत्र में पक्षियों का सर्वेक्षण उस क्षेत्र की जैव-विविधता में होने वाले बदलाव के लिए संकेतक का कार्य करते हैं, लेकिन रेड डाटा बुक के ताजे आंकड़े पक्षियों को लेकर कुछ और ही कहानी कह रहे हैं.
पारिस्थितिक के सूचक पक्षी खुद ही ‘मानव जनित’ ‘पर्यावरण विघटन’ के शिकार हो रहे हैं. पक्षियों की लगभग आधी प्रजातियों की संख्या तेजी से घट रही है, वही मात्र 6% प्रजातियों ही की संख्या में बढ़ोतरी का संकेत है. पिछले केवल 40-50 सालो में ही यूरोप और उत्तरी अमेरिका से पक्षियों की संख्या में कम से कम एक तिहाई की कमी आयी है.
पक्षियों की संख्या में कमी
भारत में पक्षी विविधता संबधी विस्तृत और सिलसिलेवार अध्ययन की कमी के कारण संरक्षण का दायरा कुछ खास और बड़े पक्षियों तक सीमित रहा है, पर हाल के कुछ वर्षों में पक्षियों के अध्ययन में मूलभूत बदलाव देखने को मिला है, जो मुख्य रूप से अकादमिक तो नहीं है पर सर्वेक्षण जरूर है. अच्छी खासी संख्या, हर जगह पाया जाना, और आसानी से पहचान लिए जाने के कारण बड़े पैमाने पर पक्षियों की विविधता और उनकी संख्या के अध्ययन में जन सहभागिता यानी सिटिजन साइंस एक कारगर तरीका बन गया है.
इस प्रयोजन में ऑनलाइन सूचना तंत्र ‘ईबर्ड’ एक कारगर माध्यम के रूप में उभरा है. जन सहभागिता पर आधारित पक्षियों के वैश्विक ऑनलाइन सूचना तंत्र ‘ईबर्ड’ के अनेक लोगों के 867 पक्षियों के एक करोड़ से अधिक अलग-अलग सर्वेक्षण आंकड़ों का उपयोग कर भारत में पहली बार पक्षी-विविधता और ‘संरक्षण स्थिति’ का आकलन 2020 में किया गया.
भारत में भी घटती गई संख्या
इस रिपोर्ट में कई नई जानकारियां पहली बार सामने आईं, जिसमें पूर्व धारणा के उलट गौरैया का विस्तार और संख्या सामान्य पाई गयी, वही पक्षियों के प्राकृतिक रहवास क्षेत्र में हो रही कमी, अवैध शिकार और व्यापार के कारण शिकारी और जलीय पक्षी बुरी तरह प्रभावित पाए गए. दीर्घकालिक आकलन के योग्य 246 पक्षियों, में से लगभग आधी की संख्या में गिरावट देखी गई, वही 146 पक्षियों में से लगभग अस्सी प्रतिशत की संख्या तात्कालिक मूल्याङ्कन में कम होती पाई गयी.
भारत में पाये जाने वाले पक्षियों की 1350 प्रजातियों मे से 942 प्रजातियों की तात्कालिक (पिछले आठ साल में आये बदलाव) और दीर्घकालिक (पिछले तीन दसक में आये बदलाव) आबादी, उनके उपमहाद्वीप में वितरण और ‘संरक्षण स्थिति’ पर प्रकाशित स्टेट ऑफ इंडियाज़ बर्ड्स (एसओआईबी) रिपोर्ट 2022 ने बहुत ही गंभीर तस्वीर पेश की है, जो वैश्विक सन्दर्भ के अनुरूप ही है.
40 -50 फीसद तक आई कमी
सनद रहे कि वैश्विक स्तर पर हो रहे पर्यावरणीय बदलाव के शिकार पक्षी भी उसी स्तर से हो रहे हैं. इस अध्ययन में दीर्घकालिक आकलन के योग्य 348 प्रजातियां जिनके व्यवहार, रहन-सहन, विस्तार आदि पर पिछले तीस वर्षों से नज़र थी, इनमें से साठ प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में गिरावट देखी गई. पिछले आठ साल से 359 प्रजातियां जो मूल्यांकन के करीब थीं उनकी संख्या में भी चालीस प्रतिशत तक कमी पाई गई.मौजूदा विकास के प्रारुप के साथ ये कमियां पाटने योग्य नहीं लगती हैं. इस रिपोर्ट का चौंकाने वाला पक्ष यह भी है कि खुले स्थान और वेटलैंड में रहने वाले पक्षियों की संख्या में कमी आयी है.
पक्षियों का खुला प्राकृतिक आवास एक विस्तृत रहवास है और, पारिस्थितिकी तंत्र की एक वृहत् शृंखला है, जिसमें घास के मैदान, अर्द्ध शुष्क मैदान और रेगिस्तान, नदियों के किनारे और विशाल समुद्री तट सहित मानव निर्मित, कृषि भूमि, चरागाह, परती भूमि और मैदान शामिल हैं. खुला क्षेत्र मौसमी चरम से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला क्षेत्र है, चाहे अत्यधिक तापमान, सुखाड़, बाढ़ या उतनी ठंढ, जिसका असर खुले क्षेत्र में पाई जाने वाली पक्षियों की घटती संख्या पर साफ दिख रहा है. इस बात की पुष्टि कॉर्नेल यूनिवर्सिटी और झेजियांग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा चीन के शहरों पर बढ़ते तापमान के चलते पक्षियों की संख्या और उनकी विविधता की कमी से भी हो जाती है.
सभी के सहयोग की जरूरत
प्रस्तुत रिपोर्ट में पाया गया है कि फल-फूलों का मधु या सर्वाहारी पक्षियों के मुकाबले मांसाहारी, कीटभक्षी और अनाज या बीज खाने वाले पक्षियों की संख्या में अधिक तेजी से गिरावट आ रही है, हालांकि आहार के आधार पर आयी कमी के कारण स्पष्ट नहीं है पर मांसाहारी, अनाज और बीज खाने वाले पक्षियों की संख्या में गिरावट आहार श्रृंखला में रासायनिक खाद और पेस्टीसाइड जैसे जहर की मौजूदगी की तरह इशारा करती है. जिसका सटीक उदाहरण भारत में गिद्ध की संख्या में अचानक आयी गिरावट है, जिसके मूल में दुधारू जानवरों के लिए प्रयोग होने वाली दवा डाइक्लोफेनेक थी. इसके अलावा प्रवासी प्रजातियां जो हजारों किलोमीटर प्रजनन के लिए सुदूर उतर से उड़कर आती है, गैर-प्रवासियों और स्थानीय पक्षियों की तुलना में अधिक खतरे में पाई गयी हैं.
सारी चिंताओं के बीच उपमहाद्वीप स्तर के अध्ययन में एक सुकून की खबर यह है कि दीर्घकालिक आकलन में 134 और तात्कालिक आकलन में 217 प्रजातियां ऐसी पाई गईं हैं जिनकी संख्या या तो स्थिर थीं या संख्या में बढ़ रही थीं, पर क्या इन प्रजातियों की संख्या में बढ़ोतरी का ज्यादा प्रजातियों में हो रही कमी का कोई सम्बन्ध तो नहीं है? भारतीय पक्षियों की दशा और दिशा पर ऐसे कई सवाल है जिनका जवाब इस रिपोर्ट में जवाब मिलना मुश्किल तो है, पर समाधान तो हमें ढूँढना ही होगा. प्रस्तुत रिपोर्ट उपमहाद्वीप स्तर पर पक्षियों के अर्थपूर्ण और प्रभावी संरक्षण के नीति निर्धारण और क्रियान्वयन में सहायक होगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि ….न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]