भारत में विपक्ष के नेता की क्या है अहमियत !
भारत में विपक्ष के नेता की क्या है अहमियत, राहुल गांधी इस पद के लिए कितने योग्य?
राहुल गांधी ने अपने 20 साल के राजनीतिक करियर में पहली बार नेता प्रतिपक्ष के तौर पर कोई गंभीर जिम्मेदारी संसद में ली है. इस पद पर रहने वाले वह गांधी परिवार के तीसरे सदस्य हैं.
24 जून को भारत की 18वीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू हुआ था. वैसे तो संसद में सत्ता पक्ष- विपक्ष नेताओं के बीच तू-तू मैं-मैं और हो-हल्ला काफी आम बात है. लेकिन नवनिर्वाचित 18वीं लोकसभा के पहले सत्र के बाद जहां कुछ लोगों का कहना है कि नेता प्रतिपक्ष के तौर पर राहुल गांधी ने सत्ता पक्ष पर तीखा हमला बोला है, तो वहीं कुछ लोगों का मानना है कि पीएम मोदी और सत्ता पक्ष के अन्य सदस्यों ने राहुल गांधी को करारा जवाब दिया है.
हालांकि ये कहना मु्श्किल है कि संसद के पहले सत्र में विपक्ष नेता राहुल और पीएम नरेंद्र मोदी के बीच हुई नोक-झोंक और तकरार का फायदा किसे मिलेगा. इस रिपोर्ट में विस्तार से जानते हैं कि हमारे देश में विपक्ष के नेता की अहमियत क्या है और राहुल गांधी इस पद के कितने योग्य हैं?
देश को 10 साल बाद मिला नेता प्रतिपक्ष
25 जून 2024 कांग्रेस ने ऐलान किया था कि राहुल गांधी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होंगे और इस ऐलान के साथ ही विपक्ष को पूरे 10 साल बाद नेता प्रतिपक्ष मिल गया.
राहुल गांधी ने राजनीति में साल 2004 में एंट्री की थी और उस वक्त से ही वो किसी भी बड़े पद को लेने से बचते रहे थे. 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन इस चुनाव में आए नतीजों के बाद अब राहुल अनिच्छुक नेता की अपनी छवि तोड़ते हुए नेता प्रतिपक्ष के पद को संभाल चुके हैं.
राहुल गांधी इस पद के कितने योग्य?
इस सवाल के जवाब में प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार संजय कुमार कहते हैं कि राहुल गांधी का नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद नवनिर्वाचित लोकसभा का पहला सत्र हुआ. इस सत्र में पीएम मोदी और राहुल के बीच भले ही काफी नोक झोंक हुई लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राहुल ने संसद में अग्निवीर योजना, पेपर लीक जैसे कई महत्वपूर्ण चिंताएं उठाईं है.
संसद में अपने भाषण के दौरान नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल ने अग्निवीर योजना का मुद्दा उठाते हुए सेवा के दौरान जान गंवाने वाले अग्निवीरों को मुआवजा देने की बात कही. इतना ही नहीं उन्होंने पेपर-लीक के मुद्दे को भी जमकर उठाया. राहुल गांधी ने सदन में सरकार पर किसानों को आतंकवादी कहने और मणिपुर संकट के मुद्दे पर चुप्पी साधने के लिए रखने सरकार को आड़े हाथों भी लिया.
इतना ही नहीं राहुल गांधी ने पहले संसद सत्र में बेरोजगारी, किसानों की समस्याएं, और आर्थिक नीतियों पर सरकार की आलोचना की. उनके भाषणों ने मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित किया. इस पूरे सदन में राहुल गांधी ने एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने की कोशिश की है. राहुल गांधी के भाषणों और बयानों को मीडिया ने व्यापक रूप से कवर किया. उन्होंने संसद में अनुशासन और भागीदारी दिखाई. उन्होंने कई बार संसद में सवाल पूछे और चर्चा में भाग लिया. इससे यह स्पष्ट होता है कि वे संसद की कार्यवाही में गंभीरता से शामिल थे.
वहीं दूसरी तरफ पटना यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर अमित सिंह का कहना है कि भले ही राहुल ने संसद में कई मुद्दों पर डट कर उठाया है लेकिन बावजूद इसके विपक्ष के नेता के रूप में राहुल गांधी को आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा. कुछ लोगों का मानना है कि उनके भाषण में स्पष्टता और गहराई की कमी थी. ऐसे में एक विपक्ष नेता के तौर पर राहुल गांधी के प्रदर्शन की गुणवत्ता और प्रभावशीलता पर लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है. उनके समर्थक उनकी सक्रियता और स्पष्टता की प्रशंसा करते हैं, जबकि आलोचक उन्हें और अधिक प्रभावी और निर्णायक बनने की सलाह देते हैं.
जब हमने वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सौरभ से पूछा कि क्या राहुल गांधी विपक्ष के नेता के तौर अपनी जिम्मेदारी निभाने के योग्य हैं, तो उन्होंने कहा कि, “अभी लोकसभा चुनाव के बाद जो पहली संसद सत्र चली है उसमें राहुल गांधी का परफॉरमेंस काफी बेहतरीन और मारक रहा है. खासतौर से जिस तरह से राहुल गांधी ने संवेदनशील मुद्दे को, फिर चाहे हिंदुओं का सवाल हो या धार्मिक सवाल, उसपर उन्होंने बीजेपी के मूल विचारधारा के माद में घुसकर हमला किया है. “
प्रदीप आगे कहते हैं, ” इतना ही नहीं उन्होंने परीक्षा में हो रही धांधली से लेकर अग्निवीर योजना जैसे तमाम मुद्दों पर बहुत ही बुलंद तरीके से अपनी बात रखी है. राहुल ने इस सत्र में दिए अपने भाषणों से ये साबित भी किया कि नरेंद्र मोदी का आरएसएस वाला जो हिंदुत्व है वही हिंदुत्व नहीं है. ऐसे में अगर उनके इस सत्र के भाषण के आधार पर मैं कहूं तो उनका प्रदर्शन बहुत ही आक्रामक, मारक, वैचारिक और सुव्यवस्थित था.
उन्होंने आगे कहा कि भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल ने राहुल के गंभीर नेता की छवि को धक्का पहुंचाने में करोड़ों खर्च किए, लेकिन उनके पहले भाषण ने ये साबित कर दिया की भारतीय जनता पार्टी को कितने आसानी से घेर सकते हैं.
जब हमने प्रदीप सौरभ से पूछा कि विपक्ष के नेता की भूमिका निभा चुके अटल बिहारी वाजपेयी,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, पीवी नरसिम्हा राव और एलके आडवाणी जैसे नेताओं की तुलना में आप राहुल गांधी को कहां पाते हैं, तो उनका जवाब था, कि राहुल गांधी की इन नेताओं से तुलना किया जाना ही बेमानी है. अटल बिहार वाजपेयी का सुषणा स्वराज का राजनीतिक सफर राहुल से काफी अलग रहा है. राहुल ने पहली बार इस तरह की कोई कमान संभाली है. ऐसे में फिलहाल इनकी तुलना सही नहीं है.
राहुल गांधी की नेता प्रतिपक्ष के तौर पर चुनौती
पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अमित सिंह ने कहा कि नेता प्रतिपक्ष के तौर पर राहुल के लिए अभी सबसे बड़ी चुनौती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ तालमेल बैठाने की होगी. कुछ सार्वजनिक मंचों को छोड़ दें तो राहुल और पीएम मोदी की मुलाकात सिर्फ संसद में ही होती रही है. इन 10 सालों के दौरान दोनों ने एक-दूसरे पर खूब शब्दों के बाण छोड़े हैं. कई बार बयानों में मर्यादाएं भी लांघी गई हैं. लेकिन, अब राहुल को पीएम मोदी के साथ बैठकर चुनाव आयोग से लेकर मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष तक का चयन करना पड़ेगा.
इतना ही नहीं अब राहुल गांधी पीएम मोदी के साथ बैठकर ईडी और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों के प्रमुखों के चुनाव में भी भूमिका निभाने वाले हैं. ऐसे में राहुल को परिपक्व नेता के तौर पर पीएम मोदी के साथ अच्छे रिश्ते बनाने होंगे.
इसके अलावा राहुल का नेता प्रतिपक्ष बनना उन्हें राजनीतिक फायदा भी पहुंचाने वाला है. इसे ऐसे समझिए की कांग्रेस को राहुल के तौर पर मजबूत चेहरा तो मिलेगा ही, साथ ही विपक्ष को भी एक ऐसा नेता मिलेगा, जो सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास रखता है.
अमित आगे कहते हैं कि राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष बनने के साथ ही संसद में एक मुखर आवाज बनकर उभरने वाले हैं. अभी तक चुनावी रैलियों और सभाओं में आक्रामक भाषण देने वाले राहुल को अब संसद का मंच मिलेगा, जहां वह विपक्ष के मुखिया के तौर पर छाप छोड़ पाएंगे. अगर वह अपने तीखे भाषण संसद में भी बरकरार रखते हैं तो उनकी छवि एक मजबूत नेता के तौर पर भी उभरने वाली है और अगर राहुल साल 2029 तक नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अच्छा काम करते हैं तो उनके लिए गठबंधन का पीएम उम्मीदवार बनना भी आसान हो जाएगा.
कितना ताकतवर होता है नेता प्रतिपक्ष का पद
नेता प्रतिपक्ष इस पद को साल 1977 में संसदीय कानूनों के तहत मान्यता मिली थी. इस पद पर रहने वाले सांसद का वेतन और उसे मिलने वाले भत्ते की बात करें तो ये कैबिनेट मिनिस्टर के स्तर का होता है. इसके साथ ही नेता प्रतिपक्ष की भूमिका आपको उन समितियों में भी देखने को मिलती है जो सेन्ट्रल विजिलेंस डायरेक्टर, सीबीआई डायरेक्टर, मुख्य चुनाव आयुक्त, मुख्य सूचना आयुक्त, लोकायुक्त और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के चेयरपर्सन और सदस्यों की नियुक्ति करता है. इसके अलावा सरकार के खर्चों पर नजर रखने के लिए जो लोक लेखा समिति होती है नेता प्रतिपक्ष इस सिमिति का अध्यक्ष होता है.