ट्रंप पर हमला दिखाता है, अमेरिका की कमजोर हालत !
ट्रंप पर हमला दिखाता है अमेरिका की गिरती साख और लोकतंत्र पर खतरे को…घर दुरुस्त करे महाबली
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर पूरी दुनिया की निगाहें लगी होती हैं. दुनिया के बहुध्रुवीय होने की हम चर्चा भले ही कितनी कर लें, लेकिन फिलहाल दुनिया की एकमात्र शक्ति अमेरिका ही है और इसी वजह से पूरी दुनिया इसको लेकर उत्सुक होती है. नवंबर में अमेरिका में चुनाव होनेवाले हैं, हालांकि इसी बीच रिपब्लिकन उम्मीदवार और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर गोली चलायी गयी. सौभाग्य से वह बच गए और हमलावर भी मारा गया. डेमोक्रेट उम्मीदवार और वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस घटना पर दुख जताया है और कहा है कि लोकतंत्र में ऐसे हमलों की कोई जगह नहीं है. हालांकि, इस हमले से अमेरिकी प्रशासन और क्षमता पर एक बड़ा सवालिया निशान तो लग ही गया है.
अमेरिकी लोकतंत्र पर सवाल
ट्रंप पर पेनसिल्वेनिया में चुनावी रैली के दौरान जो हमला हुआ, वह काफी दुःखद है और यह लोकतंत्र को शर्मसार करता है. पिछले कुछ दिनों से ट्रंप और बाइडेन में एक अलग तरह का घमासान चल रहा है और कुछ डिबेट्स में ट्रंप दरअसल बाइडेन पर भारी पड़ते नजर आए. उसके बाद बाइडेन ने ट्रंप की आलोचना करते हुए कुछ ऐसे बयान भी दिए, जिसके बारे में रिपब्लिकन कह रहे हैं कि वे बयान ही ट्रंप पर हमले का कारण बने. हमला कहीं न कहीं साजिश के तहत हुआ. इतनी सुरक्षा के बावजूद एक रायफलमैन अगर ट्रंप पर निशाना लगाने में कामयाब हो जाता है, तो यह उनकी सुरक्षा की गंभीर कमियों को, साजिश को उजागर करता है. इतनी कड़ी सुरक्षा के बाद भी एक पूर्व राष्ट्रपति के पास हमलावर पहुंच गया, यह खोज और सोच का विषय है.
अगर हम अमेरिका के इतिहास को खंगालें तो यह हमला भी पहला नहीं है. अमेरिका के राष्ट्रपति उम्मीदवारों, पूर्व राष्ट्रपतियों, कार्यरत राष्ट्रपतियों आदि की संख्या जोड़ लें, तो लगभग 15 ऐसे हमले अब तक हो चुके हैं. कई बार राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपति को अपनी जान गंवानी पड़ी है. तो, एक तरफ तो वह अमेरिका है जो पूरी दुनिया को जब-तब ज्ञान देता रहता है कि लोकतंत्र का वह पहरुआ है, सबसे पुराना लोकतंत्र है- हालांकि, यह भी गलतबयानी है क्योंकि लोकतंत्र की मां तो भारतभूमि है- और दूसरी तरफ इस तरह के हमले वहां हो रहे हैं. सोशल मीडिया के दौर में हुआ यह हमला और भी खतरनाक इसलिए है क्योंकि चीजें अनियंत्रित हो जाती हैं, भड़क उठती हैं.
ट्रंप को मिलेगी सहानुभूति
बाइडेन रेस में कहीं न कहीं पिछड़ रहे थे. सत्ता के गलियारों में ट्रंप के साथ लोगों की सहानुभूति जुड़ जाएगी और बाइडेन का समर्थन भी घटेगा. उनकी उम्र और शारीरिक अवस्था को लेकर भी बहुतेरे सवाल उठाए जा रहे हैं. उनकी पार्टी के कई समर्थक भी दबे जुबान उनको हटाने और दूसरे उम्मीदवार को लाने की बात कर रहे हैं. यहां तक कि उनका वित्त प्रबंधन देखने वाले जॉर्ज क्लूनी ने भी कह दिया कि बाइडेन को ग्रेसफुली हट जाना चाहिए. फिलहाल, उनकी हालत बहुत कमजोर थी और हमले के बाद तो बाइडेन की हालत तो और खराब ही होगी.
फिलहाल, अमेरिका को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए और लोकतंत्र में कैसे चलना चाहिए, कैसे बरतना चाहिए, यह भी सोचना चाहिए. अमेरिकी मीडिया भी थोड़ी नोटोरियस है. अगर किसी दूसरे देश में यह हमला हुआ होता, तो रंगत कुछ और होती. अमेरिकी मीडिया तो तिल का ताड़ बनाकर अक्सर ही दूसरे देशों को यह ज्ञान देती है कि उनके यहां लोकतंत्र खतरे में है. सही मायने में तो अमेरिका में ही लोकतंत्र में खतरे में है और वह कई सालों से है. पिछले चुनाव के दौरान ब्लेक लाइव्स मैटर को लेकर जिस तरह का धरना-प्रदर्शन हुआ, ब्लैक्स को जिस तरह निशाना बनाया गया, वह भी पूरी दुनिया ने देखा, लेकिन अमेरिकी मीडिया ने उसको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया.
फिसल रहा है अमेरिका
अमेरिका में गन-कल्चर बहुत बढ़ रहा है, असहिष्णुता काफी बढ़ गयी है जिसकी वजह से वे दूसरी संस्कृति के लोगों को देखना नहीं चाहते. उन्होंने दिखाया था कि अमेरिका तो दरअसल सपनों का शहर है, लेकिन अब वह सपना टूट रहा है. अमेरिका की साख दुनिया में गिर रही है, क्योंकि वह बड़े फैसले लेने में अक्षम हो रहा है, चाहे वह रूस-यूक्रेन मामला हो, या हमास-इजरायल का मसला. जो उनका नैरेटिव सेटिंग का मंत्र था, जो हॉलीवुड भी बेचता था कि पूरी दुनिया को खतरे से केवल अमेरिका बचा सकता है, वह अब चूर-चूर हो चुका है. अमेरिका अभी भी संभल नहीं रहा है और वह दरअसल पचा नहीं पा रहे हैं कि उनके साथ क्या हो रहा है और इसीलिए वे इस पूरे मुद्दे को ही दबाना चाहते हैं.
उनको भी पता है कि इसके पीछे कोई अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र नहीं है, दरअसल अमेरिका का समाज ही ऐसा हो चुका है. प्रजातंत्र में वाद-विवाद और संवाद के माध्यम से ही बात बनती है, न कि बंदूक और गोली से. एक साथ बैठ कर मामले सुलझाए जा सकते हैं. अमेरिका को भारत से सीख लेनी चाहिए. भारत के प्रजातांत्रिक मूल्य 1947 के बाद हम लगातार देख रहे हैं. हरेक पांच साल बाद सत्ता का हस्तानांतरण बहुत आसानी से हो जाता है, विपक्ष को भी अच्छा स्थान मिलता है. अमेरिका में तो यह पंद्रहवां प्रयास है. अमेरिकी मीडिया को भी सीखने की जरूरत है. चुनाव अभी नवंबर में हैं और सहानुभूति की लहर तब तक कितनी रहेगी पता नहीं, लेकिन फिलहाल तो ट्रंप का पलड़ा भारी है. बाइडेन को ग्रेसफुली अब इस दौड़ से हट जाना चाहिए.
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