अंधविश्वास और अंधश्रद्धा में बारीक फर्क को समझें
अंधविश्वास और अंधश्रद्धा में बारीक फर्क को समझें
अंधविश्वास और अंधश्रद्धा में बारीक फर्क है। जैसे नेताओं के प्रति अंधविश्वास होता है और बाबाओं के प्रति अंधश्रद्धा। विवश पुरुष अंधविश्वासी हो जाता है और लाचार स्त्री अंधश्रोद्धा में डूब जाती है। भक्ति करना अच्छी बात है, लेकिन भक्ति में व्यक्तियों की स्तुति के अच्छे परिणाम नहीं मिलते।
स्तुति के लिए तो दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती ऊपरवाला ही है। नीचे वालों का सम्मान करिए, फिर वो गुरु हो, आदर्श पुरुष हो, मार्गदर्शक हो। पर इनके प्रति अंधविश्वास-अंधश्रद्धा न रखी जाए।
कौन लोग इस अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के गलियारों में भटकते हैं? देखने में आया है कि जिनके जीवन में अपनापन खत्म हो जाता है या जिनकी अपनों से दूरी बन जाती है, वो इस तरह के गलियारों में घूमते हैं। ये बिल्कुल तय है कि अपनों का साथ हमें निर्भय और निरोग बनाता है। तो मानसिक सेहत के लिए रिश्तों को बेहद करीब से जीएं। अपनों की ताकत होगी, तो ईश्वर का आशीर्वाद रहेगा।