रिटायर होते ही पॉलिटिक्स जॉइन न करें जज …लोग क्या सोचेंगे

CJI बोले- रिटायर होते ही पॉलिटिक्स जॉइन न करें जज
कल आप कोर्ट में थे और आज राजनीतिक पार्टी में, लोग क्या सोचेंगे

क्या जजों को रिटायरमेंट के तुरंत बाद राजनीतिक पद स्वीकार करने चाहिए? क्या इससे उनकी निष्पक्ष न्यायमूर्ति की छवि प्रभावित नहीं होती है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब कयासों के रूप में हमारे और आपके बीच तैरते रहते हैं।

सवाल: कोर्ट की लंबी छुट्टियों पर अक्सर सवाल उठते हैं। क्या लंबी छुट्टियां होनी चाहिए?
जवाब: कोर्ट से शाम 4 बजे जब हम उठते हैं, काम तो तब शुरू होता है। सोमवार या शुक्रवार को हर बेंच के सामने 60-70 मामले आते हैं। लोगों को लगता है कि मामला दो मिनट सुना और निपटारा हो गया। दो या पांच मिनट में डायलॉग करने के लिए भी हर जज एक केस को आधा घंटा और बड़े मामले में 3 घंटे तक पढ़ता है।

शनिवार-रविवार को जज पेंडिंग फैसले लिखते हैं। रविवार को सोमवार को लिस्ट मामले पढ़ते हैं। सफर में भी पढ़ते रहते हैं।

इस साल छुट्टियों से पहले मेरे पास कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच के करीब 18 या 19 बड़े मामले थे। उनके साथ 176 कनेक्टेड केस थे। अब इन्हें पढ़ने और समझने का समय कब मिलेगा। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सामने कई बार ऐसे मामले होते हैं, जिन पर देश का भविष्य या दिशा निर्भर करती है। जजों को समय नहीं देंगे, तो वे ये काम कैसे करेंगे।

सवाल: जज की नियुक्ति पर सरकार और कोर्ट में मतभेद की खबरें आती हैं। क्या पैरामीटर अलग-अलग हैं?
जवाब:
 जजों की नियुक्ति के लिए जो संवैधानिक प्रणाली है, उसमें केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के साथ राज्य सरकारों और हाईकोर्ट की भी जिम्मेदारी है। हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए नाम कॉलेजियम रिकमेंड करता है। ये नाम राज्य सरकार, राज्यपाल, केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के पास आते हैं।

राज्य सरकार का 3 या 4 सप्ताह में समर्थन न आए तो इसे स्वत: स्वीकृत माना जाता है। फिर केंद्र सरकार जांच करती है। कई बार हाईकोर्ट के जजों की भी राय लेते हैं। सबकी राय एक साथ करके सुप्रीम कोर्ट को भेजते हैं। कई बार समर्थन करते हैं, तो कई बार आपत्ति आती है।

ये समझना जरूरी है कि संवैधानिक प्रणाली में संघीय ढांचे में किसी भी एक संस्था को एकतरफा महत्व नहीं दिया गया है। सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद नियुक्ति तो राष्ट्रपति करते हैं।

एक परिपक्व ज्यूडिशियल सिस्टम के तहत अगर केंद्र या राज्य की आपत्ति आती है, तो हम बातचीत करते हैं। सरकार से जजों की नियुक्ति के संबंध में जो प्रशासनिक कामों को लेकर बातचीत है, वह टूटनी नहीं चाहिए।

सवाल: हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज रिटायर होते ही राजनीति में आ रहे हैं, क्या ये सही है?
जवाब:
 यह निजी मामला है। मेरी अपनी राय पूछें तो मैं यह समझता हूं कि जज बनकर जब आप रिटायर हो जाते हैं, तो थोड़ा समय आपको देना चाहिए। राजनीति में जाते हैं तब भी, पर्याप्त समय (गैप) देना चाहिए। पॉलिटिक्स जॉइन करनी चाहिए या नहीं, यह अलग मामला है।

यह बहस का मुद्दा है, लेकिन अगर राजनीति में जाना चाहें तो कूलिंग ऑफ ​पीरियड जरूरी है। मैं समझता हूं कि एक बार आप जज नियु​क्त हो जाते हैं, तो उम्रभर जज रहते हैं। चाहे आप कोर्ट में काम कर रहे हों, चाहे आप रिटायर हों। सामान्य नागरिक आपको देखता है, तो ये सोचता है कि आप जज ही तो हैं।

जज की जो बोलचाल है, व्यवहार है, रिटायर होने के बाद भी वैसा ही होना चाहिए। किसी और के फैसले की मैं समीक्षा नहीं करना चाहता। हम कहते हैं ‘न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए।’ मान लीजिए कि आज जज साहब कोर्ट में थे। कल रिटायर होकर उन्होंने राजनीतिक पार्टी जॉइन कर ली। एक आम आदमी क्या सोचेगा।

सवाल: कोर्ट जाने में आम आदमी डरता क्यों है?
जवाब: मैं हर रोज कोर्ट जाता हूं। एक जज होने के नाते मैं नहीं डरता। हां, अगर मैं विवादित होता तो शायद डरता। नागरिक कोर्ट की प्रक्रिया को नहीं जानते। वे नहीं जानते कि किस वकील को रखें। कोर्ट की भाषा, शैली, प्रक्रिया आम नहीं है। इसे सहज होना चाहिए। इसे आदमी के हिसाब से बनाएं तो काफी सुधार आ सकता है।

सवाल: बड़ी वजह महंगाई और भाषा भी है, क्या इनके लिए कोई रास्ता निकाला जा सकता है?
जवाब:
 हां, जरूर। लेकिन, ये कहना ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ साधन संपन्न लोगों के लिए है। अभी सुप्रीम कोर्ट में 80 हजार मामले लंबित हैं। इनमें ज्यादातर छोटे-छोटे हैं। किसी की पेंशन के बारे में है, तो किसी के जमीन बंटवारे के।

डॉ. अंबेडकर का सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के समय मानना था कि हमें ऐसा सुप्रीम कोर्ट नहीं बनाना, जो साल में 180 या 200 मामलों की सुनवाई करे। सुप्रीम कोर्ट ऐसा हो, जिसके द्वार पर आम आदमी आ सके।

इसे बढ़ावा देने के लिए हमने 29 जुलाई से 3 अगस्त तक लोक अदालत का आयोजन किया था। शुरुआत में 14 हजार मामले लिस्ट किए थे, जिनमें समझौते की गुंजाइश थी। हमने कोशिश की तो एक हफ्ते में 900 से ज्यादा मामले निपटे।

सवाल: हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट की प्रक्रिया हिंदी या स्थानीय भाषाओं में क्यों नहीं है?
जवाब: हिंदी या अन्य स्थानीय भाषा में कोर्ट के कामकाज का मैं समर्थन करता हूं। जिला न्यायालयों में गवाही हिंदी या स्थानीय भाषा में होती है। सुप्रीम कोर्ट में कई जज अच्छी हिंदी जानते हैं। मैं महाराष्ट्र से हूं। यूपी में 3 साल मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम किया था, इसलिए मुझे अच्छी हिंदी आती है।

कई बार कोई नागरिक खुद बहस करना चाहता है तो मैं उनसे हिंदी में ही बात करता हूं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में तमिलनाडु, केरल, असम समेत देशभर से मामले आते हैं। हर जज को उस राज्य की भाषा के बारे में जानकारी नहीं रहती, न वकीलों को रहती है।

इसलिए यहां एक भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सबको पता चले। इसलिए कामकाज अंग्रेजी में होता है। इसका मतलब ये नहीं कि हम रुक गए हैं।

सवाल: कोई ऐसा सिस्टम बन सकता है कि केस आते ही तय हो जाए कि ये कोर्ट में जाएगा और ये मध्यस्थता में?
जवाब: 
सिस्टम बनाना चाहिए। मामले जब कोर्ट में आते हैं तो हम अलग-अलग ट्रैक पर उन्हें भेज सकते हैं। कोई कॉमर्शियल विवाद है, पार्टनर या परिवार में विवाद है तो मध्यस्थता में भेज सकते हैं। सबसे ज्यादा लिटिगेशन विवाद सरकार लाती है।

इसके लिए एक लिटिगेशन पॉलिसी बनवानी है। सरकार इस पर काम कर रही है। जैसे टैक्स विवाद में सरकार का निर्णय है कि अब 2 करोड़ से कम वाले मामले सुप्रीम कोर्ट में फाइल नहीं करेंगे। जो फाइल हो भी गए हैं, उन्हें वापस लेंगे।

अभी सरकारें छोटे-छोटे मामले सुप्रीम कोर्ट में लाती हैं। केंद्र के साथ राज्य सरकारों को भी मिलकर निर्णय लेना होगा कि कौन से मामलों को हम सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट तक ले जाएं। अभी सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट तक केस न जाए तो अफसर डरता है कि कहीं 5 साल के बाद उसके खिलाफ विजिलेंस जांच न हो जाए।

ये विश्वास की कमी है। इसका जवाब सरकार को ढूंढना होगा। सरकार को उन्हीं मामलों को लाना चाहिए, जिसमें कोई पॉलिसी इश्यू है।

सवाल: AI और IT ज्यूडिशियरी के लैंडस्केप को बदलने वाली है?
जवाब: IT ने ज्यूडिशियरी के लैंडस्केप को बदल दिया है। 1950, 1980 और अब का कोर्ट देख लें। पूरा बदल चुका है। AI से रजिस्ट्री में भी सुधार लाना चाहते हैं। एक आदमी को 500 पन्ने की पिटीशन पढ़ने और उसमें गलतियां ठीक करने में 3 घंटे से एक दिन तक लग जाते हैं। ये काम AI से एक मिनट में हो सकता है। हमने IIT मद्रास के साथ MoU किया है।

सवाल: क्या हम AI के तहत फैसले भी ले सकते हैं?
जवाब: इसमें मुझे कठिनाई लगती है। इंसान की सारी कमियां जज में हैं। कहीं गलती हो सकती है, पर एक जज के अंदर मानवता का बहुत बड़ा महत्व है, जो AI नहीं दे सकता। पूरी न्यायिक प्रक्रिया को AI से नहीं बदल सकते। किसी व्यक्ति ने कोई गुनाह किया तो उसे कितनी सजा मिलेगी, ये फैसला AI नहीं कर सकता।

सवाल: दुनिया में सबसे अच्छी ज्यूडिशियरी कहां की है, दूसरे देशों में भारतीय न्याय प्रणाली को किस तरह देखते हैं?
जवाब: 
भारत की ज्यूडिशियरी सबसे अच्छी है। इससे ज्यादा काम कहीं नहीं हुआ है। मैं समझता हूं कि हर जज का उत्तरदायित्व है कि वह हर केस को देखे तो उसमें सीखने के लिए बहुत कुछ होता है।

हाल ही में जर्मन फेडरल के जज आए। वे कह रहे थे कि आपके फैसलों को हम फॉलो करते हैं, जैसे हम उनके फैसलों को करते हैं। बाकी देशों खासकर ग्लोबल साउथ के साथ हमारा अच्छा संबंध है। इनके जज ट्रेनिंग के लिए नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी (भोपाल) आए हैं। इसकी वजह से इंटरनेशनल एक्सचेंज हुआ है।

भारतीय न्याय प्रणाली की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो जगह है, वह ऊंचे स्तर पर गई है, क्योंकि वे जानते हैं कि किन कठिनाइयों और कितने केसों के बीच हमारे जज काम करते हैं। जे-20 (समिट ऑफ हेड्स ऑफ सुप्रीम कोर्ट्स एंड कॉन्स्टिट्यूशनल कोर्ट्स ऑफ जी-20 मेंबर्स) के लिए ब्राजील गया था। वहां के जज कह रहे थे कि वे हमारे डिसीजन को बहुत गहराई से पढ़ते हैं।

सवाल: आप कहते हैं कि ज्यादातर लोगों के लिए डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ही सुप्रीम कोर्ट है। इन्हें प्रभावी कैसे बनाएंगे?
जवाब:
 हमने हाईकोर्ट को कहा है डिस्ट्रिक्ट ज्यूडिशियरी में खाली पद भरें। इसी तरह हाईकोर्ट में भी जो पद खाली हैं, उन्हें जल्द भरने की जरूरत है। अभी डिस्ट्रिक्ट ज्यूडिशियरी में जो भर्ती हुई हैं, उनमें 60 से 70% महिलाएं हैं। कुछ दिन पहले मेरे कोर्ट में लोक अदालत के दौरान आगे सारी युवा महिलाएं थीं।

मैंने सेक्रेटरी जनरल से पूछा कि क्या ये वकील हैं? उन्होंने बताया कि ये दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस में भर्ती नई ज्यूडिशियल अफसर हैं। वहां 108 लोगों की भर्ती हुई है, उनमें से 78 महिलाएं हैं।

सवाल: कई जिला अदालतों में तो जगह की कमी से जांच अफसर, आरोपी और पीड़ित एक साथ बैठते हैं?
जवाब:
 कई जगहों पर तो एक ही कमरे में 3-3 ट्रायल चल रहे हैं। एक जज साहब हैं और उसी कोर्ट रूम में तीन गवाही एक साथ चल रही है। जब तक राज्य सरकारें निवेश नहीं करेंगी, तब तक सुधार कैसे हो सकता है।

हम सुप्रीम कोर्ट की नई बिल्डिंग बनवाने जा रहे हैं। पुरानी बिल्डिंग 1950 में बनी थी। ये 5 कोर्ट के लिए थी, जबकि इसमें 17 कोर्ट चल रहे हैं। नई बिल्डिंग में 27 कोर्ट हो जाएंगे, जो अगले 75-100 साल के लिए पर्याप्त होगी। हर चीज के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा। हाईकोर्ट की भी जिम्मेदारी है कि वह सरकार को बताएं कि क्या जरूरत है।

सवाल: पॉक्सो और ऐसे कई केस सामने आए हैं, जहां ट्रायल के दौरान आरोपी 5 साल जेल में रहे, फिर निर्दोष साबित हो गए। ऐसे में आरोप लगाने वालों पर क्या गंभीर सजा और जुर्माने का प्रावधान होना चाहिए?
जवाब: 
आप जो कह रहे हैं, वह गंभीर बिंदु है। ऐसे मामलों में न्याय प्रणाली को भी सतर्क रहना चाहिए। किसी पर गलत आरोप लगे तो उस व्यक्ति को तुरंत जमानत मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में हम हमेशा कहते हैं कि किसी काे एक दिन ज्यादा भी कस्टडी में रखना गलत है। ये संदेश जिला अदालतों तक पहुंचाना चाहिए। जांच एजेंसियों को भी सुधार करना चाहिए।

सवाल: FIR की प्रक्रिया को और आसान बनाया जा रहा है। क्या इससे कोर्ट पर बोझ बढ़ेगा?
जवाब: 
मैं ऐसा नहीं मानता। मेरा मानना है कि न्याय प्रणाली को तो आसान बनाना ही चाहिए। उल्टा, सवाल ये है कि क्या काम बढ़ जाएगा, इसलिए हम न्याय प्रणाली को सरल नहीं बनाएंगे? इसके लिए तो हमको अपने संसाधन, इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने होंगे।

महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और अन्य जरूरतमंदों के लिए ऐसी पहल जरूरी है। हम काम के डर से पीछे नहीं हट सकते। हमें इसके लिए तैयार होना होगा।

सवाल: फैसलों के अलावा आप अपने कार्यकाल का बेस्ट काम क्या मानते हैं?
जवाब:
 मेरे कार्यकाल के बारे में टिप्पणी करना समाज का काम है। मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि संवैधानिक मूल्यों को बढ़ाने के लिए मैं इस संस्था में एक सेवक रहा हूं। मुझसे कुछ काम ठीक हुआ है, या कुछ गलतियां हुई हैं या कुछ और काम कर सकते थे, ये समाज को बताना पड़ेगा। मैंने एक फिलॉसफी को हमेशा सामने रखा है, जो लोक अदालत में भी हमने रखा था, वह है- न्याय सबके द्वार।

सवाल: आपके दो बेटे हैं। दो बेटियां भी गोद ली हैं। इसके पीछे आपकी सोच क्या है?
जवाब:
 जीवन में कई बार ऐसे मौके आ जाते हैं, जिसमें आप सोचते नहीं है। जीवन आपके सामने ऐसे मौके ले आता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में जब मैं मुख्य न्यायाधीश था, तो ये दो बहनें प्रियंका और माही हमारे जीवन में आईं।

मैं समझता हूं कि ये मेरी सोच की वजह से मेरे जीवन में नहीं आई, न पत्नी कल्पना की सोच की वजह से। बस उन दोनों बच्चियों ने हमें अपना लिया। उनसे भी हमने बहुत सीखा है। दोनों बच्चियां स्पेशल हैं। उनकी जो कंडीशन है, उसे मायोपैथी कहते हैं। इसमें मसल्स कमजोर होती हैं। उनका दिमाग बहुत तेज है। मुझे कम्प्यूटर में कोई प्रॉब्लम होती है, तो वे उसका समाधान करती हैं।

दोनों एनिमल राइट्स एक्टिविस्ट हैं। पर्यावरण के बारे में जागरूक हैं। कल्पना और मैंने एक साल पहले वीगन लाइफस्टाइल अपनाया है। सिर्फ खाने में ही नहीं, पहनने में भी। ये बेटी माही के कहने पर किया।

सवाल: आपके पिता CJI थे, आप भी हैं, अब आप अपने बच्चों से क्या उम्मीद रखते है?
जवाब: मेरे पिताजी 1985 में रिटायर हो गए। मुझसे 1998 में पूछा गया था कि क्या आप जज बनोगे। पिताजी ने कहा था कि ये आपका फैसला है। इससे समाज के लिए बड़ा काम कर सकते हो, पर पैसे नहीं कमा सकते।

पैसे कमाना है, तो वकील का काम करो। तब जज बनने का फैसला मेरा था। मेरे बेटों का फैसला भी उनका ही होगा। मैं उन्हें कहता हूं कि मैं राय दे सकता हूं। फैसला आपको लेना है, क्योंकि उसके साथ जीना आपको है।

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