जाति-विमर्श का नया दौर ??
मुद्दा : जाति-विमर्श का नया दौर, एक बार फिर इस पहचान को मिटाने पर नये सिरे से मंथन

हाल के दिनों में संसद से लेकर साहित्यिक संगोष्ठियों तक जाति-विमर्श ज्वलंत मुद्दा छाया हुआ है। जाति कैसे मिटेगी, इस बात को लेकर बौद्धिक जगत में चिंता होने लगी है। जाति को लेकर सांसद अनुराग ठाकुर की टिप्पणी (जिनकी जाति का पता नहीं, वे जाति गणना की मांग कर रहे हैं) पर राहुल गांधी की नाराजगी, अखिलेश और चंद्रशेखर आजाद की जाति जनगणना की मांग को सोशल मीडिया ने खासी हवा दी है। यहां तक कि ‘प्रेमचंद जयंती’ पर कथा मासिक ‘हंस’ की परिचर्चा का विषय ‘समाज से सियासत तक कैसे टूटे जाति’ चर्चा विशुद्ध साहित्यिक नहीं थी।
जाति के लाभार्थी क्यों अपनी जाति छोड़ना-तोड़ना चाहेंगे? बकौल डॉ. आंबेडकर ‘भारत में समाज और सियासत का नेता वर्ग अब भी ब्राह्मण है। वे चाहेंगे तो जाति टूटेगी, नहीं चाहेंगे तो नहीं टूटेगी।’ पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित कुछ लोकगीतों को सुनें, तो उनमें प्रकारांतर से कहा गया है कि अनुसूचित जातियां अब क्रीमी-लेयर हो गई हैं।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी कोटे के भीतर कोटा बनाने का सुझाव राज्यों को दिया। कांग्रेस शासित दो राज्यों ने इसे लागू करने की घोषणा भी कर दी है। साथ ही ओबीसी की तरह एससी/एसटी में क्रीमी-लेयर लागू करने का फैसला दिया। कुछ ओबीसी जातियां छुआछूत का व्यवहार करती हैं और कुछ बहुजन की धारणा के तहत संगठित करती हैं। भाजपा के एससी/एसटी सांसदों की प्रधानमंत्री से भेंट के बाद उन्होंने क्रीमी-लेयर लागू करने से इन्कार के प्रति आश्वस्त किया है।
सवाल है कि कल्पित क्रीमी-लेयर को शामिल करते हुए भी शिक्षा, सेवा, न्यायपालिका, मेडिकल, आईआईटी में आरक्षित पद खाली क्यों हैं? क्या अब नॉट फाउंड सूटेबल (एनएफएस) की प्रवृत्ति बढ़ेगी या घटेगी? एससी/एसटी की बैकलॉग वैकेंसी की बढ़ती संख्या का क्या होगा? आरक्षित स्थान अधिक खाली होंगे, तो आरक्षण स्वतः समाप्त नहीं हो जाएंगे? क्या इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की आरक्षण समाप्त किए जाने की आशंका निराधार है? क्या वह उपजाति विभाजन से पूरा होगा या स्थिति और भी भयावह हो जाएगी? गौरतलब है कि आईआईटी, नीट आदि के दाखिलों में कटऑफ लिस्ट एससी/एसटी से भी कम रही है।
वर्ष 1989 के राजीव गांधी स्पेशल ड्राइव के बाद बीते तीन दशकों में बैकलॉग पूरा नहीं हो पाया है। एससी/एसटी की पदोन्नति में आरक्षण को ठंडे बस्ते में डाल कर भूल जाने के बाद, यह नया वर्गीकरण आया, जो डॉ आंबेडकर के अस्पृश्य जाति-समूह को समान अवसर, के सिद्धांत के खिलाफ है। यह ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो’ के आह्वान को उलटने वाला है।
मांग उठ रही थी एससी/एसटी की आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की, आरक्षण को नौवीं सूची में रख कर सुरक्षित करवाने की, निजी क्षेत्रों में भागीदारी देने की, दलित उत्पीड़न की बढ़ती घटनाएं रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की। संसद में एससी/एसटी सांसद तो निर्धारित संख्या में मौजूद हैं, परंतु वे अपने-अपने दलों के प्रतिनिधि हैं अपने समाज-समुदाय के नहीं। इसलिए डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिशों से ‘पृथक निर्वाचन’ प्राप्त किया था, ताकि दलित प्रतिनिधियों के मुंह में जुबान आ सके। अधिसंख्य दलित-आदिवासी जस्टिस बेला त्रिवेदी के फैसले को संविधान संगत मान रहे हैं। एससी/एसटी का यह आरक्षण आर्थिक कसौटी पर नहीं कसा जा सकता, क्योंकि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो चुका दलित-आदिवासी भी अस्पृश्यता-बहिष्कार का शिकार होता है।
आरक्षित क्षेत्रों को निजी क्षेत्रों में पहले ही तब्दील कर दिया गया है। अजा/अजजा के लिए आरक्षण की व्यवस्था उनकी दरिद्रता दूर करने के लिए नहीं की गई। सेवाओं व शिक्षा संस्थाओं में उन्हें प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से की गई थी। किसी भी प्रकार का विभाजन समाज की एकता-अखंडता के प्रतिकूल होता है। स्वतंत्रता दिवस हमें याद दिला रहा है कि विभाजनों को कम कर, जातियों को तोड़ कर, समाज को जोड़ कर हम समृद्ध, विकसित और सच्ची स्वतंत्रता पाने की ओर अग्रसर होंगे। संगठित और सशक्त समाज बना कर ही हम शक्तिशाली राष्ट्र बना सकेंगे।