लोकतंत्र और स्वतंत्रता ! अनगिनत संदर्भों के साथ बनी रहेगी यह बहस …
लोकतंत्र और स्वतंत्रता : अनगिनत संदर्भों के साथ बनी रहेगी यह बहस, इसका नहीं कोई अंत

स्वतंत्रता तभी हमें चकमा देती है, जब हम इसे अपनी विचारधारा या सांस्कृतिक सुविधा के अनुसार परिभाषित करते हैं। लेकिन यह वर्तमान की सच्चाई बन गई है। इसलिए एक कदम पीछे हटकर सुरक्षात्मक आवरण को उतार फेंकिए। हम अपनी स्वतंत्रता की उन तारीखों को नहीं भूल सकते, जो सड़क पर फैले खून और लाशों की तरह वास्तविक हैं, हड़पी गई जमीन और अनाम कब्रों की तरह भयावह हैं और स्वतःस्फूर्त एवं फर्जी विद्रोहों की तरह जानी-पहचानी हैं। स्वतंत्रता के रंगमंच को सुर्खियां मिलती हैं, लेकिन उससे परे के व्यक्तिगत संघर्ष, एकाकीपन और शौर्य को कोई पूछता तक नहीं। एक ऐसी दुनिया, जो लाखों विकृतियों से ग्रस्त है, यह सुनिश्चित करती है कि स्वतंत्रता को लेकर बहस बनी रहेगी, जिसका कोई अंत नहीं है।
लोकतंत्र का आदर्श संघर्ष में होता है। यही लोकतंत्र की मूल भावना है। जबकि शेख हसीना ने इस्लाम को राष्ट्रधर्म मानने वाले देश में धर्मनिरपेक्षता को बदनाम करने से इन्कार कर दिया, जिसने बांग्लादेश के पाकिस्तानीकरण को रोका। लेकिन, समस्या तब शुरू हुई, जब वह अपनी वैचारिक अनिवार्यता की राह में सवालों को खतरे के रूप में देखने लगीं। क्या हसीना के बाद का ‘बांग्लादेश’ स्वतंत्रता के ‘सड़क-सेनानियों’ के लिए लोकतंत्र का नया तोहफा है? समस्या बस यहीं है। प्रतिरोध के इतिहास में नाराजगी सड़कों पर उतरती है। टूटी हुई बैरिकेड और सड़क किनारे शहादत का रोमांस साठ के दशक की विद्रोही भावना और अस्सी के दशक के उत्तरार्ध के कम्युनिस्ट विरोधी उभार से बहुत आगे निकल चुका है। यहां तक कि जब विचारधारा की जगह आस्था ने ले ली थी, तब भी युवाओं में सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ गुस्सा बरकरार था। लेकिन स्थितियां जटिल तब हुईं, जब कट्टरपंथी इस्लाम को ओसामा में अपना चे-ग्वेरा मिला, जो अफगानिस्तान में कहीं से चरम जिहाद के अपने फरमान जारी कर रहा था। एक फ्रांसीसी विद्वान जिसे कट्टरपंथ का इस्लामीकरण कहते हैं, उसका समय अभी पूरा नहीं हुआ है। बेशक उसके पास अब कोई नायक न रह गया हो। ढाका के सड़क-सेनानी सिर्फ दमनकारी नेतृत्व के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे; उनमें से कुछ लोग धर्म विशेष के अनुसार स्वीकार्य विकल्प के लिए लड़ रहे थे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हसीना के बाद के बांग्लादेश में स्वतंत्रता का मूल्य लोकतांत्रिक रह सकेगा? अब इसे इच्छा कहा जाए या विवाद कि स्वतंत्रता के सिपाही सड़कों पर उतर आते हैं, और कई लोकतंत्र इसे होने भी देते हैं। मीडिया जिसे अति-दक्षिणपंथी ठगी कहता है, वह अब इंग्लैंड को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है। उसकी अभिव्यक्ति का तरीका भले ही खराब हो, लेकिन इसके पीछे एक ऐसा कारण है, जिससे पश्चिम को निपटना चाहिए: वैध या अवैध आप्रवासन।
मौजूदा कटु यथार्थवाद के दौर में बहुसंस्कृतिवाद और विश्वबंधुत्ववाद के लाभ राष्ट्रीय पहचान और सामाजिक संसाधनों की कमी के आवेगों को बेअसर नहीं कर सकते। अति-दक्षिणपंथी लोग बोझ से दबे राष्ट्र के एकमात्र पैरोकार बन गए हैं, क्योंकि मुख्यधारा की राजनीति, चाहे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, के पास आप्रवासन को लेकर कोई ईमानदार प्रतिक्रिया नहीं है। दुनिया सीमापार स्वतंत्रता के संघर्ष और आप्रवासियों के मुक्त प्रवाह के खिलाफ आक्रोश के बीच संतुलन कैसे बनाएगी?
स्वतंत्रता एक सौदेबाजी भी है। पुतिन की युद्ध मशीन के खिलाफ यूक्रेन की आत्म-रक्षा शायद गाजा की सुर्खियों में खो गई है। सात अक्तूबर, 2023 के बंधकों की आजादी कई मोर्चों पर उलझी हुई है और एक खाड़ी राज्य द्वारा संचालित जटिल बातचीत प्रक्रिया का हिस्सा है, जो हमास के राजनीतिक नेतृत्व की मेजबानी करता है। जिन जगहों पर सत्ता शिकायतों और गौरवपूर्ण विरासत के आधार पर कायम रहती है, वहां स्वतंत्रता एक बहस है, जो सिर्फ एक नेता ही जीत सकता है। पर हमेशा के लिए नहीं। भारत जैसे देश को, अपनी आजादी के 78वें साल में, इस बहस को लोकतंत्र की बुनियादी बातों को नुकसान पहुंचाए बिना बदलाव की राष्ट्रीय जरूरत में बदलना होगा। राष्ट्र के राजनीतिक पुनर्गठन के पिछले दशक में भारत अपनी पहचान संबंधी कई बाधाओं को पहले ही दूर कर चुका है, और यह प्रक्रिया इतनी सहज रही है कि विकल्पों के लिए जगह जरा भी कम नहीं हुई है। पिछले आम चुनाव ने इस बात को सही साबित कर दिया है। सत्ता अपनी नैतिकता तभी बनाए रखती है, जब लोकतंत्र को उसके नेतृत्व द्वारा खतरे के रूप में न देखा जाए। नेतृत्व ने भारत में राष्ट्र को फिर से आकार देने के लिए जनादेश अर्जित किया है। यह उस क्षेत्र में मायने रखता है, जहां सबसे स्थिर नागरिक समाज ने अपने आदर्शवाद को नहीं छोड़ा है। लेकिन किसी को भी इस पर विवाद करने की स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।