देश की वो रियासतें जहां तिरंगा नहीं फहराया गया ?
देश की वो रियासतें जहां तिरंगा नहीं फहराया गया…आजादी के पहले जश्न में ऐसा क्यों हुआ?
Independence Day 2024: आजादी के लिए 15 अगस्त की तारीख तय हो चुकी थी. पाकिस्तान के लिए इसकी तारीख 14 अगस्त थी. इस बीच विभाजित भारत की सीमाएं तय होनी थीं. साथ ही दोनों देशों के भूभाग में स्थित देसी रियासतों के भविष्य का भी निपटारा होना था. भारत ने विभाजन को इसी शर्त के साथ कुबूल किया था कि सत्ता हस्तांतरण के पश्चात इन रियासतों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होगी.
3 जून 1947 को भारत की आजादी की तारीख 15 अगस्त तय हो चुकी थी. पाकिस्तान के लिए इसकी तारीख 14 अगस्त थी. इस बीच विभाजित भारत की सीमाएं तय होनी थीं. साथ ही दोनों देशों के भूभाग में स्थित देसी रियासतों के भविष्य का भी निपटारा होना था. भारत ने विभाजन को इसी शर्त के साथ कुबूल किया था कि सत्ता हस्तांतरण के पश्चात इन रियासतों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होगी. उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनना और उसमें विलय करना होगा.
ये रियासतें थीं जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद. हालांकि आगे उनका भी भारत में विलय हुआ. लेकिन अंग्रेजों की लंबी गुलामी के बाद मिली आजादी के 15 अगस्त 1947 के पहले उत्सव से ये रियासतें अलग रहीं और वहां राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया जा सका.
जूनागढ़ नवाब की पाकिस्तान में शामिल होने की नाकाम कोशिश
हिंदू बहुल आबादी लेकिन मुस्लिम शासक महाबत खान द्वारा शासित 3337 वर्ग मील में फैली जूनागढ़ रियासत का पाकिस्तान से कोई सड़क संपर्क नहीं था. हिंदुओं का प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर इसी रियासत में स्थित है. तय मानकों के अनुसार उसका भारत में विलय होना था लेकिन नबाब इसे आखिर तक टालते रहे. 17 अगस्त को उन्होंने रियासत के पाकिस्तान में विलय का औपचारिक पत्र वहां की सरकार को भेज दिया. पाकिस्तान ने 13 सितंबर 1947 को विलय की मंजूरी दे दी.
सरदार पटेल ने इसकी जानकारी मिलते ही अपने सहयोगी वी पी मेनन को 17 सितंबर को जूनागढ़ भेजा. रियासत की सीमा पर 24 सितंबर को भारतीय सेना तैनात कर दी गई. इसी बीच नबाब पाकिस्तान उड़ लिए. जहाज से जाते समय वे अपने प्रिय कुत्ते साथ ले जाना नहीं भूले. हालांकि उनकी एक बेगम यहीं छूट गईं. 2 नवम्बर को सामल दास गांधी की अगुवाई में वहां बागी अराजी सरकार का गठन हुआ. सात नवंबर को रियासत के प्राइम मिनिस्टर शाहनवाज अली भुट्टो ने अराजी सरकार को और आठ नवंबर 1947 को भारत सरकार को रियासत के भारत में विलय की सहमति का पत्र पेश कर दिया.
20 फरवरी 1948 को वहां हुए जनमत संग्रह में भारत के पक्ष में 1,90,870 और पाकिस्तान के लिए सिर्फ 91 वोट पड़े. भारत सरकार ने इसके बाद ही रियासत के भारत में विलय को मंजूरी दी. बेशक वहां की आबादी आजादी के पहले उत्सव को लेकर उत्साहित थी लेकिन नवाब की जिद में उसे इस मौके पर सार्वजनिक तौर पर तिरंगा फहराने और खुशियां मनाने का मौका नहीं मिला.
अनिर्णय के बीच झूलते कश्मीर के राजा हरी सिंह
देश के सबसे बड़े भूभाग वाली कश्मीर रियासत के राजा अंग्रेजों के जाने के बाद रियासत की संप्रभुता का सपना संजोए थे. हालांकि, अंग्रेजों से उन्हें कोई सहायता नहीं मिलनी थी लेकिन फिर भी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. घाटी में मुस्लिम जबकि जम्मू में हिंदू आबादी का बहुमत था. लेकिन पूरी रियासत की जनसंख्या में मुस्लिमों की संख्या का योग अधिक था. दूसरी ओर शासक हिंदू राजा हरी सिंह थे. वे उहापोह में थे. पाकिस्तान की उनकी रियासत पर बुरी नजर थी. एक ओर वे अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहते थे. दूसरी ओर विलय की स्थिति में घाटी की मुस्लिम बहुसंख्या उन्हें भारत की ओर बढ़ने से रोक रही थी. दूसरी ओर पाकिस्तान की ओर मुड़ने पर उन्हें हिंदू आबादी की सुरक्षा और हितों को लेकर चिंता थी. जाहिर है कि इन हालात के बीच भारत की आजादी के पहले उत्सव से कश्मीर अलग-थलग रहा.
पाकिस्तान का हमला, भारत से मदद की गुहार
अनिर्णय के बीच झूलते राजा हरी सिंह तब जागे जब कबाइलियों की आड़ में पाकिस्तानी सेना अक्तूबर के तीसरे हफ्ते में श्रीनगर के पास तक पहुंच गई. इस बीच रियासत की सेना और पुलिस के मुस्लिम सैनिकों-अफसरों ने पाला बदल दिया. असहाय राजा ने 24 अक्तूबर को भारत से मदद की गुहार लगाई. पहले गवर्नर जनरल बिना भारत में विलय के कश्मीर में भारतीय सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे.
शुरुआत में कश्मीर की ओर से उदासीन सरदार पटेल जूनागढ़ प्रकरण के बाद कश्मीर में दिलचस्पी लेने लगे थे. उनके सहयोगी वी पी मेनन ने कश्मीर पहुंच राजा हरी सिंह को सुरक्षा के नजरिए से श्रीनगर छोड़ने के लिए राजी किया. 26 अक्तूबर 1947 को राजा हरी सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय का पत्र उन्हें सौंपा. उसके साथ ही भारतीय सेनाएं रियासत की रक्षा के लिए दाखिल हुईं.
कश्मीर में तिरंगे को बार-बार चुनौती
कश्मीर की आबादी के लिए केवल पहले स्वतंत्रता दिवस पर ही नहीं बल्कि आगे भी वहां राष्ट्रीय धवज फहराना एक चुनौती का कार्य रहा. अनुच्छेद 370 अंतर्गत कश्मीर को मिले विशेष दर्जे के चलते लम्बे समय तक साथ में राज्य का अपना भी ध्वज फहराया जाता रहा. पाकिस्तान समर्थित ताकतों के सक्रिय रहने के कारण खासतौर पर घाटी में स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस के आयोजनों में सेना-पुलिस की सुरक्षा जरूरी महसूस की जाती रही. लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के साथ वहां स्थितियां बदलनी शुरू हुईं. पांच वर्ष पूर्व जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद से वहां की तस्वीर बिलकुल बदली हुई है. लाल चौक से डल झील तक या फिर श्रीनगर की सड़कों और घर-घर में तिरंगे फहरा रहे हैं. बेशक लम्बा समय लगा. लेकिन कश्मीर देश की मुख्यधारा से जुड़ चुका है. देश के अन्य हिस्सों की तरह ही वहां भी आज स्वतंत्रता दिवस की धूम है.
हैदराबाद में सेना की दखल के बाद निजाम हुए मजबूर
बड़ी रियासतों में शामिल हैदराबाद भी आजादी के पहले जश्न से दूर थी. वहां की आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 85 फीसद थी लेकिन मुस्लिम शासक निजाम उस्मान अली अपनी स्वतंत्र सत्ता या फिर विकल्प में पाकिस्तान की ओर मुखातिब थे. एक करोड़ साठ लाख आबादी, 82 हजार वर्ग मील क्षेत्रफल और 26 करोड़ सालाना राजस्व वाली इस रियासत के पास अपनी सेना और करेंसी भी थी. हिंदू बहुमत के बाद भी वहां प्रशासन-पुलिस पर मुसलमानों का वर्चस्व था.
भारत की आजादी की घोषणा के बाद हैदराबाद के हालात काफी नाजुक हो चले थे. हिंदुओं की जान-माल खतरे में थी. निज़ाम अपनी सेना को मजबूत करने में लगे थे. पाकिस्तान से मदद के लिए उन्होंने बीस करोड़ की रकम वहां की सरकार को सौंपी थी. आजादी के बाद विभाजन के कारण विकट स्थितियों से जूझते भारत की समस्याएं निजाम लगातार बढ़ा रहे थे. सरदार पटेल अब और इंतजार को तैयार नहीं थे.
भारत की सेना ने 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद में आपरेशन पोलो अभियान शुरू किया. 17 सितंबर को निजाम की सेना घुटनों पर थी. वहां की जनता को देश के पहले ही नहीं बल्कि दूसरे स्वतंत्रता दिवस की खुशियों में भी शामिल होने का अवसर नहीं मिला था. लेकिन 18 सितंबर 1948 को निजाम के समर्पण और रियासत के भारत में विलय की घोषणा के साथ सड़कों पर उमड़ी जनता के हाथों में तिरंगे लहरा रहे थे.