हिलने-डुलने वाली पृथ्वी कैसे हुई स्थिर?

 हिलने-डुलने वाली पृथ्वी कैसे हुई स्थिर? संस्कृति के पन्नों से जानें पूरी कहानी
ब्रह्मा ने शेषनाग से कहा, मेरी आज्ञा है…इस पृथ्वी पर असंख्य पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगर स्थित हैं। परंतु पृथ्वी हिलती-डुलती रहती है। तुम इसे अपने सिर पर धारण करो, जिससे यह अचल हो जाए।

How did moving earth become stable? Know the story behind it

महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू के पुत्र नाग थे। उनमें से महायशस्वी शेषनाग को अपनी माता का स्वभाव अच्छा नहीं लगता था। इसलिए उन्होंने कद्रू का साथ छोड़कर तपस्या करने का निश्चय किया। शेषनाग गंधमादन पर्वत पर बदरिकाश्रम तीर्थ में रहते हुए ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। वह केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रत का पालन करते थे। शेषनाग ने अपनी इंद्रियों को भी वश में कर लिया था। बाद में उन्होंने गोकर्ण, पुष्कर, हिमालय के तटवर्ती प्रदेशों तथा भिन्न-भिन्न पुण्य-तीर्थों और देवालयों में भी रहकर संयम-नियम के साथ एकांतवास का पालन किया। 

ब्रह्मा ने देखा कि शेषनाग के घोर तप के चलते उनके शरीर का मांस, त्वचा और नाड़ियां सूखने लगी थीं। वह सिर पर जटा और शरीर पर वल्कल धारण करके मुनिवृत्ति से रहते थे। उनमें सच्चा धैर्य था और वह निरंतर तप में संलग्न थे। यह देखकर एक दिन ब्रह्मा उनके पास आकर बोले, ‘शेष! तुम यह तप किसलिए कर रहे हो? तुम्हारी इस कठोर तपस्या के कारण संपूर्ण प्रजा संतप्त हो रही है। तुम्हारे हृदय में जो कामना हो, वह तुम मुझे बताओ। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने की चेष्टा करूंगा।’ 
शेषनाग बोले,  ‘प्रभु! मेरे सहोदर सर्प-भाई मंदबुद्धि हैं। वे सदा एक-दूसरे के दोष निकाला करते हैं। मैं उनके कुटिल स्वभाव से ऊबकर तपस्या करने लगा हूं, ताकि मुझे उन्हें न देखना पड़े। वे सब मेरी विमाता विनता और उनके पुत्रों से ईर्ष्या करते हैं। आकाश में विचरण करने वाले विनता-पुत्र गरुड़ हमारे भाई हैं। मेरे पिता महर्षि कश्यप के वरदान से गरुड़ अत्यंत बलवान हैं। किंतु वे सर्प, मुझसे भी द्वेष रखते हैं। इसलिए मैंने निश्चय किया है कि मैं घोर तपस्या कर शरीर को ही त्याग दूं। आप मेरी यह मनोकामना पूर्ण कीजिए!’

परम पिता ब्रह्मा ने उनसे कहा, ‘हे शेष! मैं तुम्हारे सब भाइयों की कुटिल मंशा को जानता हूं। उनकी माता कद्रू भी उन्हीं की भांति कुटिल है। उसके किए अपराधों के कारण ही तुम्हारे सर्प-भाइयों के मन में भय उत्पन्न हो गया है। परंतु इस विषय में जो कुछ होना अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहले ही कर दी है। अतः तुम्हें अपने भाइयों के लिए शोक नहीं करना चाहिए। तुम जो अभीष्ट हो, वैसा वरदान मांग लो। तुम्हारे ऊपर मेरा बहुत स्नेह है। नागों का भाई होने के बाद भी तुम्हारी बुद्धि उनकी तरह दूषित नहीं है, अपितु तुम धर्म के मार्ग पर अडिग हो। मांगो, क्या चाहिए?’

शेषनाग बोले, ‘मेरी केवल यही इच्छा है कि मेरी बुद्धि सदा धर्म तथा तपस्या में लगी रहे।’

ब्रह्मा ने उत्तर दिया, ‘शेष! मैं तुम्हारे इंद्रियसंयम और मनोनिग्रह से अत्यंत प्रसन्न हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारी बुद्धि सदा धर्म में स्थिर रहेगी। अब मेरी आज्ञा सुनो। मैं तुम्हें प्रजा के हित के लिए एक कार्य सौंप रहा हूं, जिसे तुम्हें करना चाहिए।’

‘कौन-सा कार्य, पितामह!’
‘इस पृथ्वी पर असंख्य पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगर स्थित हैं। परंतु यह पृथ्वी हिलती-डुलती रहती है। तुम इसे भली-भांति अपने सिर पर इस प्रकार धारण करना कि यह पूर्णतः अचल हो जाए।’
शेषनाग बोले, ‘मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। मैं इस पृथ्वी को इस तरह धारण करूंगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आप इसे मेरे सिर पर रख दीजिए।’ 

ब्रह्मा ने कहा, ‘शेष! तुम पृथ्वी के नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें जाने के लिए मार्ग देगी।’
तब नागराज वासुकि के बड़े भाई भगवान शेष ने ‘आपकी जैसी आज्ञा’ कहकर ब्रह्मा को प्रणाम किया और पृथ्वी के विवर में प्रवेश कर गए। नीचे जाकर समुद्र से घिरी पृथ्वी को सब ओर से पकड़कर अपने सिर पर धारण कर लिया। इस प्रकार, यह पृथ्वी पूर्णत: स्थिर हो गई।

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