क्रांतिकारियों ने बलिदान से लिखी क्रांति और सामाजिक सद्भाव की इबारत !
काकोरी की याद: क्रांतिकारियों ने बलिदान से लिखी क्रांति और सामाजिक सद्भाव की इबारत, सौवें वर्ष में भी स्मरणीय
रतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के असहयोग आंदोलन (1921) को क्रांतिकारियों ने धैर्य के साथ देखा था, लेकिन चौरा-चौरी में हुई हिंसा के बाद उस जनावेग को एकाएक रोक दिए जाने से विप्लवमार्गी ही नहीं, गांधी जी के सहयोगी भी नाराज और निराश हो गए थे। ऐसे में क्रांतिकारियों ने पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ (एचआरए) नाम से नए दल का गठन करके उसका संविधान रचा, जिसमें कहा गया था कि वे ऐसे समाज का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जिसमें एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण संभव नहीं होगा।
इस दल के 10 नौजवानों ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ में काकोरी के निकट एक सवारी रेलगाड़ी को रोक कर सरकारी खजाना लूट लिया, जिसमें अशफाकउल्ला खां, मन्मथनाथ गुप्त, कुंदनलाल गुप्त, शचीन्द्रनाथ बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, मुकुंदीलाल, मुरारीलाल, केशव चक्रवर्ती और बनवारी लाल शामिल थे। इस घटना से ब्रिटिश सरकार भौंचक्की रह गई। क्रांतिकारियों का ब्रितानी हुकूमत पर यह सीधा प्रहार था, जो बहुत कारगर सिद्ध हुआ। पकड़े गए क्रांतिकारियों पर लखनऊ में 18 महीने चले इस मुकदमे को देशव्यापी ख्याति मिली, जिसमें बिस्मिल, अशफाकउल्ला और रोशनसिंह को 19 दिसंबर, 1927 को फांसी पर चढ़ा दिया गया, जबकि राजेंद्र लाहिड़ी को अज्ञात कारणों से दो दिन पूर्व ही 17 दिसंबर, 1927 को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई।
काकोरी कांड की विशेषता यह थी कि देश की क्रांतिकारी गतिविधियां, जो पहले छापेमार लड़ाइयों के रूप में जारी थीं, वे एकजुट होकर एक बड़े दल और तीव्र विचारवान अभियान के तौर पर सामने आईं। असल बात यह है कि असहयोग आंदोलन की निराशाजनक समाप्ति के बाद भारतीय राजनीति में जो एक खालीपन आ गया था, उसे भरने में इस क्रांतिकारी कार्रवाई ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस घटना ने देश का ध्यान सांप्रदायिकता से स्वतंत्रता संग्राम की ओर भी मोड़ा। काकोरी शहीदों का बलिदान देश की सर्वाधिक रोमांचकारी घटना बनी और इस संघर्ष में अशफाकउल्ला की उपस्थिति और सक्रियता ने उसे ऐसे साझे संघर्ष और साझी शहादत का दर्जा दे दिया, जो पूर्व में दुर्लभ था।
बिस्मिल और अशफाक भिन्न धार्मिक आस्थाओं के होते हुए देश की आजादी के लिए साझे मार्ग के राही बने। उन्होंने स्वतंत्रता-प्राप्ति के रास्ते में धर्म को बाधक नहीं बनने दिया। अशफाक अपने क्रांतिकारी जीवन में निरंतर दृढ़तर होते चले गए। मुकदमे के दौरान उन्हें माफ करने और विदेश भेजने का लालच भी दिया गया, पर वह डिगे नहीं। अशफाक ने किसानों और मजदूरों की ताकत को पहचाना और पहली बार कम्युनिस्ट सिद्धांतों की वकालत की।
बिस्मिल ने भी अंतिम दिनों में नौजवानों से अपने संदेश में कहा था कि वे रिवॉल्वर या पिस्तौल का मोह त्याग कर वास्तविक साम्यवादी बनने का प्रयत्न करें। फांसी से दो दिन पहले तक गोरखपुर जेल की कालकोठरी में लिखी गई बिस्मिल की आत्मकथा हिंदी जीवनी-साहित्य का अमूल्य दस्तावेज होने के साथ क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के उस कालखंड का निष्पक्ष मूल्यांकन भी है, जिसमें वह स्वतंत्रता के युद्ध को आगे बढ़ाने के लिए हथियार ही नहीं, बल्कि प्रचार और साहित्य को एक जरूरी माध्यम समझने लगे थे। बिस्मिल स्वयं कलम के बहुत धनी थे। अपने जीवन काल में उन्होंने अत्यंत कठिन परिस्थितियों के मध्य अनेक पुस्तकों की रचना की।
अपने जीवन के अंतिम दौर में बिस्मिल को लगने लगा था कि अभी जनता क्रांतिकारी संघर्ष को उतना समर्थन नहीं दे रही है, जितना अपेक्षित है। यह बिस्मिल का निराशावाद नहीं है, बल्कि क्रांति के पूर्व वैचारिक चेतना के निर्माण के लिए की जाने वाली जरूरी कार्यवाई की जरूरत थी।
काकोरी केस में पकड़े गए क्रांतिकारी दामोदर स्वरूप सेठ और राजेंद्र लाहिड़ी जेल से अदालत जाते समय ‘भारतीय प्रजातंत्र की जय’ के नारे लगाते थे, जबकि कांग्रेस बहुत आगे चलकर भी ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को लक्षित नहीं कर पाई थी। काकोरी की फांसियों के बाद चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में दल के पुनर्गठन के समय भगत सिंह के सुझाव पर पार्टी के नाम में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़कर उन्होंने पार्टी का लक्ष्य और भी स्पष्ट कर दिया था। एक शताब्दी पूर्व काकोरी के क्रांतिकारियों ने देश की मुक्ति के साथ सामाजिक सद्भाव की जिस इबारत को अपने बलिदान से रचा, वह आज भी स्मरणीय है।